घटिया निर्माण …. पहली वर्षा ही नहीं झेल पा रहे भवन ?

छूने से उखड़ती सड़कें, पहली वर्षा ही नहीं झेल पा रहे भवन …

पिछले कुछ सालों से आप हमेशा यह देखते-पढ़ते-सुनते आ रहे हैं कि फलां नदी पर बना विशालकाय पुल पहली वर्षा में ही बह गया, जिस सरकारी बिल्डिंग का कुछ माह पहले ही उद्घाटन हुआ था, उसमें जगह-जगह से पानी टपकने लगा या सीलिंग गिर गई, नई नवेली सड़कों पर छोटे-छोटे तालाब बन गए।
  1. गुणवत्ताहीन निर्माण की शिकायतें बढ़ीं
  2. बड़े विकास कार्यों की गुणवत्ता जांचने के लिए बोर्ड परीक्षाओं की तरह उड़नदस्ता बने

 मानसून जहां पूरे देश के लोगों के चेहरे पर मुस्कान लाती है वहीं निर्माण एजेंसियों से जुड़े लोग जिसमें ठेकेदार और सरकारी अफसर शामिल हैं, उनके लिए यह सबसे कठिन समय होता है, जिसे वह भगवान का नाम लेकर निकालते हैं। दरअसल, पहली मानसून की वर्षा हजारों करोड़ रुपये की कीमत से चल रहे सैकड़ों छोटे-बड़े सरकारी प्रोजेक्ट के लिए अग्निपरीक्षा का समय होता है।

पिछले कुछ सालों से आप हमेशा यह देखते-पढ़ते-सुनते आ रहे हैं कि फलां नदी पर बना विशालकाय पुल पहली वर्षा में ही बह गया, जिस सरकारी बिल्डिंग का कुछ माह पहले ही उद्घाटन हुआ था, उसमें जगह-जगह से पानी टपकने लगा या सीलिंग गिर गई, नई नवेली सड़कों पर छोटे-छोटे तालाब बन गए।

यह पहली वर्षा ही है, जो ईमानदारी से अपना काम करती है, बिना कुछ लिए दिए, गलत क्वालिटी सर्टिफिकेट जारी नहीं करती, जिसके आधार पर ठेकेदार का बकाया बिल पास हो जाए। हालांकि बिल पास होने का निर्माण कार्य होने से कोई लेना देना नहीं। कई बार अच्छा-बुरा तो छोड़िए धरातल पर काम ही नहीं होता और बिल बकायदा पास हो जाता है। अब देखो चंबल में बीहड़ों के बीच प्राकृतिक रूप से बनने वाली मिट्टी की संरचनाओं को जल संरक्षण के सरकारी तालाब बताकर बजट हजम किया जा चुका है, खैर।

ग्वालियर में हाल ही में पांच मंजिला भव्य जिला कोर्ट बिल्डिंग का उद्घाटन हुआ। यह प्रदेश की सबसे बड़ा कोर्ट परिसर है। 117 करोड़ इसके बनाने पर खर्च हुए लेकिन पहली ही वर्षा में पानी टपकने लगा और पिलर्स में दरारें घटिया निर्माण की कहानी कहने लगीं। अब जो खुद न्याय का घर हो, वह अपने साथ हुए गलत के लिए किसके पास न्याय की याचिका लगाए? इस बिल्डिंग को लोक निर्माण विभाग की प्रोग्राम इंप्लीमेंटेशन यूनिट (पीआईयू) की देखरेख में तैयार किया गया था।

अब चलते हैं- भोपाल, जो सिस्टम की हर गतिविधि का मुख्यालय है। कुछ दिन पहले एक वीडियो बहुप्रसारित हुआ। काफी मिन्नतों के बाद जैसे-तैसे भोपाल के बैरसिया गांव में 60 लाख की लागत से सड़क तैयार हुई। कंस्ट्रक्शन फर्म सड़क पर लीपापोती करके रवाना हुई ही थी कि ग्रामीणों ने नई नवेली सड़क को हाथों से दुलारा तो वह हाथ में आ गई।

उखड़ती सड़क का वीडियो गांव के ही ग्रामीण सरजन मीणा ने बनाकर सोशल मीडिया पर वायरल कर दिया। जब सरकार की किरकिरी हुई तो आनन-फानन में फर्म को ब्लैक लिस्टेड किया गया, साथ ही घटिया निर्माण की जांच के लिए कई गाड़ियों में भरकर अफसर मौके पर भेजे, जिन्होंने दोबारा सड़क बनवाई। जबलपुर का सिवनी हो या चंबल का श्योपुर, दो साल पहले ऐसी ही किरकिरी तब हुई थी जब उद्घाटन के पहले ही करोड़ों कीमत के ब्रिज बह गए। हाल ही में इंदौर के डीएवीवी विश्वविद्यालय में नई नवेली छत की सीलिंग गिरने से छात्र घायल हो गए। कनाडिया रोड पर बनाए गए पीएम आवास योजना पहली ही वर्षा नहीं झेल पाई। निचोड़ यह है कि निर्माण छोटा हो या बड़ा, एक बात शत-प्रतिशत रहेगी कि वह घटिया अवश्य होगा।

हम प्रदेश में आज भी कई ऐसे पुल-पुलियाओं पर से गुजरते हैं, जो अंग्रेजों के जमाने अर्थात 75 साल पहले बनाए गए थे, लेकिन अभी भी बढ़िया बने हुए हैं, दूसरी ओर उद्घाटन के पहले ही बह जाने वाले पुल हैं। अब हमें इसके कारणों पर जाना होगा कि आखिर यह क्यों हो रहा है? क्यों विकसित देशों में गुणवत्तापूर्ण निर्माण होता है? क्या दोनों जगह नियमों में कोई अंतर है? मैंने अमेरिका, ब्रिटेन सहित यूरोपियन यूनियन के कई देशों के कंस्ट्रक्शन कानून और घटिया निर्माण होने पर की जानी वाली कार्रवाई की तुलना की।

अधिकांश देशों में पेनाल्टी लगाने, ब्लैक लिस्टेड करने या मानव जीवन पर खतरा पैदा करने वाले कृत्य पर एफआइआर करना ही शामिल है। मप्र सहित भारत में भी यह सब होता ही है, जो एक बात की कमी है, वह है- सरकारी तंत्र और कार्य करने वाली एजेंसी का अपने-अपने स्तर पर पेशेवर यानि प्रोफेशनल होना। सरकारी तंत्र और निर्माण एजेंसी अपना-अपना कार्य न करके जब एक दूसरे की गलती छुपाते हुए मिलकर कार्य करने लगें तो वहीं से होने वाले निर्माण के घटिया होने की आशंका शुरू हो जाती है। प्रदेश में शासकीय विभागों में यह आम धारणा है कि आप यदि निर्माण कार्य का कांट्रेक्ट पाना चाहते हैं तो आपको सिस्टम के हिसाब से ही चलना होगा।

यही वह अघोषित, अलिखित सिस्टम है, जिसके नियम लिखित संविधान के नियमों की अपेक्षा अधिक कड़ाई और ईमानदारी से दोनों ही पक्षों द्वारा पालन किए जाते हैं। टेंडर स्वीकृति, वर्क आर्डर से लेकर पूर्णतः प्रमाण पत्र और बिल पास तक की यात्रा में भ्रष्टाचार की ऐसी बाढ़ आती है कि असली पुल-पुलिया और सड़क उसी में बह चुकी होती है, उसके बाद जो मौके पर बनाया जाता है वह तो सिर्फ अवशेष होते हैं।

यह भी विचारणीय है कि प्रदेश में निर्माण संबंधी गोपनीय शिकायत करने के लिए कोई सीधा सटीक और विश्वसनीय चैनल ही नहीं है, जो आपकी शिकायत पर स्वतंत्र एवं गोपनीय जांच कर संबंधित को दंड दिलवा सके। इस वक्त प्रदेश में शिकायत का बस एक कामचलाऊ सिस्टम है- सीएम हेल्पलाइन। इसमें आपकी शिकायत सबसे पहले लेवल-1 यानी विभाग के उसी अधिकारी के पास जांच करने के लिए जाती है, जिसकी पहली जिम्मेदारी उस घटिया निर्माण को रोकने की थी, मतलब दोषी खुद ही जांच अधिकारी नियुक्त कर दिया जाता है। कभी-कभार अधिक किरकिरी होने पर उच्च स्तर से निर्माण फर्म को ब्लैक लिस्टेड कर दिया जाता है लेकिन वह कुछ ही दिन बाद दूसरे नाम से टेंडर लेकर काम करता दिखाई देता है, क्योंकि वह च्सिस्टमज् का हिस्सा जो होता है। बस इस च्सिस्टमज् को ही खत्म करना होगा, पुल बहना बंद हो जाएंगे।

टेंडर स्वीकृति, वर्क आर्डर से लेकर पूर्णता प्रमाण पत्र और बिल पास तक की यात्रा में भ्रष्टाचार की ऐसी बाढ़ आती है कि असली पुल-पुलिया और सड़क उसी में बह चुकी होती है, उसके बाद मौके पर जो बनाया जाता है वह तो सिर्फ उसके अवशेष होते हैं।

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