जिन 13 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हुए, उनमें सबसे अधिक चार सीटें पश्चिम बंगाल में थीं। इनमें से तीन भाजपा के पास थीं, लेकिन बाद में तीनों भाजपा विधायक तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए थे। साफ है कि उपचुनावों में भाजपा तृणमूल कांग्रेस का सामना नहीं कर सकी। इसके आसार भी कम थे, क्योंकि लोकसभा चुनाव में उसका प्रदर्शन आशा के अनुरूप नहीं रहा था। बंगाल के बाद सबसे अधिक तीन सीटें हिमाचल प्रदेश में थीं। पिछली बार इन तीनों सीटों पर निर्दलीय विधायक जीते थे। बाद में वे त्यागपत्र देकर भाजपा में शामिल हो गए थे। भाजपा ने इन तीनों को चुनाव मैदान में अपने प्रत्याशी के रूप में उतारा था, लेकिन उनमें से एक ही जीत हासिल कर सका। चूंकि लोकसभा चुनाव में इन तीनों विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा बढ़त पर थी, इसलिए उसे इस पर विचार करना होगा कि ऐसे नतीजे क्यों आए?

उत्तराखंड में जिन दो सीटों पर उपचुनाव हुए, उनमें से एक कांग्रेस के पास थी और एक बसपा के पास। इस बार दोनों सीटें कांग्रेस ने जीत लीं। इनमें से मंगलौर सीट तो भाजपा ने कभी नहीं जीती, लेकिन वह बदरीनाथ जीत सकती थी, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। उपचुनावों की एक-एक सीटें बिहार, पंजाब, मध्य प्रदेश और तमिलनाडु में थीं। इनमें से बिहार की रुपौली सीट निर्दलीय प्रत्याशी ने जदयू से छीन ली। यहां का चुनाव नतीजा जदयू के साथ-साथ राजद के लिए भी झटका है।

यह सीट जदयू की जिन विधायक के राजद में शामिल होने से खाली हुई थी, वह चुनाव हार गईं। पंजाब में जालंधर पश्चिम सीट आम आदमी पार्टी ने अपने पास बरकरार रखी। इसी तरह तमिलनाडु की विक्रवंडी सीट भी डीएमके ने फिर से जीत ली। मध्य प्रदेश की अमरवाड़ा सीट पिछली बार कांग्रेस के पास थी। उपचुनाव में भाजपा ने वह उससे छीन ली। इन उपचुनाव नतीजों की चाहे जैसी व्याख्या की जाए, भाजपा को विपक्ष के इस नैरेटिव का सामना तो करना होगा कि वह उस पर भारी पड़ा।