यहां न मर्यादा बची है और न ही संयम एवं अनुशासन। संसदीय व्यवस्था में नेता प्रतिपक्ष का पद और दायित्व सम्माननीय है, लेकिन लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने हिंदुओं को हिंसक कहा। उनके वक्तव्य से करोड़ों लोगों की भावनाएं आहत हुई हैं। अध्यक्ष ने आपत्तिजनक अंश कार्यवाही से निकाल दिए हैं, लेकिन नेता प्रतिपक्ष वही बातें दोहरा कर फिर से जोड़े जाने की मांग कर रहे हैं।

वैसे अब कार्यवाही से किसी अंश को निकाले जाने का कोई लाभ नहीं होता। संसद की कार्यवाही का सजीव प्रसारण होता है। इसलिए सभी शब्द बोले जाते समय ही सार्वजनिक जानकारी में आ जाते हैं। भारत के लोग संविधान और संसद के प्रति आदरभाव रखते हैं। भारतीय संसद की अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा रही है। अनेक सदस्य संसद के लिए पवित्र सदन, आदरणीय सदन या आगस्ट हाउस कहते हैं।

संसद सदस्यों पर विधि निर्माण और संविधान संशोधन की जिम्मेदारी है। आश्चर्य है कि अनेक सदस्य कार्यवाही में बाधा डालते हैं। नियमावली की भी उपेक्षा करते हैं। इससे आहत पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने सदन की नियमावली को ही जला देने की बात कही थी। विधायी संस्थाओं में विधि और नियम का उल्लंघन साधारण घटना नहीं है। सदनों में कार्यवाही की गुणवत्ता की चिंता पुरानी है।

ब्रिटिश राज में गठित केंद्रीय विधानसभा के समय (1921) अध्यक्ष फ्रेडरिक वाइट की अध्यक्षता में पीठासीन अधिकारियों का पहला सम्मेलन शिमला में हुआ था। तब से लगभग हर साल पीठासीन अधिकारियों के अखिल भारतीय सम्मेलन होते हैं। लोकसभा के प्रकाशन ‘संसदीय पद्धति और प्रक्रिया’ के अनुसार सम्मेलन का उद्देश्य यही है कि शासन की संसदीय प्रणाली का समुचित विकास हो। सदस्यों के संयम और आचरण भी महत्वपूर्ण हैं।

संप्रति, संसदीय कार्यवाही निस्तेज हो रही है। संसदीय गतिरोध एवं अव्यवस्था ने निराश किया है। माननीयों के सम्यक आचरण पर जनता की निगाह रहती है। सांसदों के लिए कोई निश्चित आचार संहिता नहीं है। अनुशासन और शिष्टाचार बनाए रखने का मुद्दा बार-बार चर्चा में आता है। मई 1992 में गुजरात में पीठासीन अधिकारियों का सम्मेलन हुआ था। सुझाव आया था कि अनुशासन और शिष्टाचार बनाए रखने पर विचार के लिए अखिल भारतीय सम्मेलन बुलाया जाए।

इसके अनुसरण में 23 और 24 सितंबर, 1992 को संसद भवन के केंद्रीय कक्ष में पीठासीन अधिकारियों, सदनों के दलीय नेताओं, संसदीय कार्य मंत्रियों और सांसदों आदि की भागीदारी में सम्मेलन हुआ। सम्मेलन में गंभीर विचार विमर्श के बाद संसदीय परंपराओं और नियमों के आधार पर आचार संहिता का एक प्रारूप तैयार किया गया और उसे संसद तथा विधानमंडलों में ‘अनुशासन तथा शिष्टाचार’ शीर्षक पत्र में शामिल किया गया।

इसे लोकसभा सचिवालय द्वारा प्रकाशित किया गया। सम्मेलन में सदस्यों के दायित्व और कर्तव्य के लिए सर्वसम्मति से एक संकल्प पारित किया गया। सुझाव दिया गया कि सभी राजनीतिक दल अपने जनप्रतिनिधियों के लिए आचार संहिता तैयार करें। अनुपालन सुनिश्चित करें। यह काम राजनीतिक दलों को करना था। दलतंत्र ने उसकी उपेक्षा की।

लोकसभा के स्वर्ण जयंती सत्र के अंतर्गत 26 अगस्त 1997 से 1 सितंबर 1997 के दौरान यह विषय फिर विमर्श के लिए सामने आया। सभा ने एकमत से संकल्प पारित किया। संकल्प के अनुसार, ‘सभा की प्रक्रिया तथा कार्य संचालन संबंधी नियमों, व्यवस्थित कार्य संचालन संबंधी पीठासीन अधिकारियों के निर्देशों के गरिमापूर्ण अनुपालन द्वारा संसद की प्रतिष्ठा का परिरक्षण और संवर्धन किया जाए।’

संकल्प बहुत अच्छा था, लेकिन परिणाम शून्य रहा। संकल्प में अन्य बातों के अलावा प्रश्न काल की महत्ता और नारेबाजी पर रोक तथा राष्ट्रपति के अभिभाषण में व्यवधान न करना भी शामिल था। 2001 में नियमों में संशोधन हुआ कि अध्यक्ष के आसन के सामने नारेबाजी करने वाले स्वतः निलंबित होंगे। निलंबन भी थोक के भाव हुए, मगर कोई लाभ नहीं हुआ।

इसी क्रम में 13वीं लोकसभा के दौरान अध्यक्ष ने 16 मई, 2000 को लोकसभा में 15 सदस्यीय आचार समिति का गठन किया था। समिति को सदस्यों की नैतिकता और आचरण पर ध्यान रखना, सदस्य के संसदीय व्यवहार से संबंधित अनैतिक आचरण की शिकायत की जांच करना था। इस समिति ने पहला प्रतिवेदन 31 अगस्त, 2001 को प्रस्तुत किया। इसे 22 नवंबर 2001 को सभा पटल पर रखा गया। 16 मई, 2002 को सभा ने स्वीकृत कर दिया। व्यवस्था, अनुशासन और संयम और वाक् संयम जैसे सामान्य विषयों पर लगातार बैठकें चलती रहीं, लेकिन ऐसे सम्मेलनों और बैठकों के भी अपेक्षित परिणाम नहीं आए।

सदनों की कार्यवाही का सीधा प्रसारण काफी लोकप्रिय हुआ है। उम्मीद की जाती थी कि सदन के भीतर अपशब्द बोलने, नियम तोड़ने, अध्यक्ष की बात न मानने जैसे व्यवहार को आम जनता देखेगी और अपने जनप्रतिनिधि के अनुचित आचरण का संज्ञान लेगी। यह संभावना गलत निकली। सदनों में हंगामा करने वाले सदस्यों के क्षेत्र में निर्वाचकगण हुल्लड़ देखकर संभवतः दुखी नहीं होते। वर्ष1970 के आसपास तक संसदीय कार्यवाही में लोगों की रुचि थी।

विपक्ष और सत्ता पक्ष दोनों ही कार्यवाही की पवित्रता के प्रति सजग थे। स्मरण रहे कि शोर-शराबा और हंगामा विपक्ष का काम नहीं है। राहुल गांधी को पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के वक्तव्य पर ध्यान देना चाहिए। उन्होंने लोकसभा के एक प्रकाशन की भूमिका में लिखा है, ‘संसद में अनुशासनहीनता और अव्यवस्था से मर्यादा क्षीण होती है। नागरिकों में लोकतांत्रिक संस्थाओं के प्रति सम्मान का भाव होना चाहिए। आवश्यक है कि संसद लोगों की नजरों में अपनी अधिकाधिक विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए व्यवस्थित ढंग से कार्य करे।’

संसद हुल्लड़ की जगह नहीं है। लोकतंत्र का पवित्र मंदिर है। जनप्रतिनिधि सदनों में अव्यवस्था का लगातार बढ़ना राष्ट्रीय चिंता का विषय है। बेशक जनप्रतिनिधि जनता से चुने जाते हैं, लेकिन उन्हें राजनीतिक दल ही उम्मीदवार बनाते हैं। निर्वाचित प्रतिनिधियों पर दलों का नियंत्रण रहता है। संसदीय समिति ने ठीक ही सिफारिश की थी कि राजनीतिक दल अपने-अपने प्रतिनिधियों के आचरण और व्यवहार पर ध्यान दें।

संसद के सभी दलों के संसदीय पदाधिकारी परस्पर संवाद बनाएं। संसद में मर्यादा बनाए रखने के विषय पर संसद का विशेष सत्र आहूत करने पर विचार करें। भारतीय संसद विश्व की सभी जनप्रतिनिधि संस्थाओं से बड़ी है। पवित्र सदन में संवाद के स्थान पर अव्यवस्था उचित नहीं।

(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं)