राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों से दूर क्यों हैं बुनियादी मुद्दे
चुनाव : नेताओं को असली मुद्दों की परवाह नहीं
राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों से दूर क्यों हैं बुनियादी मुद्दे …
देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया चल रही है। राजस्थान, मिजोरम, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और तेलंगाना में हो रहे चुनाव बेहद महत्त्वपर्ण हैं। ये चुनाव देश की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था को नई दिशा देंगे। बड़े-बड़े वादों की गारंटी, फ्री की रेवड़ियों, ईडी की छापेमारी और दलों के भीतर व दलों के बीच मचे घमासान के शोर में असली मुद्दों की ओर किसी का ध्यान ही नहीं है। न तो नेताओं का, न पार्टियों का और न ही सरकारों का। हर दल को सत्ता पर काबिज होने की आपाधापी है। इन सबके बीच असल मतदाता यानी जनता से सीधे जुड़े मुद्दे पीछे छूटते जा रहे हैं। गांव-गांव, मोहल्लेे-मोहल्ले जाकर सभाएं करने वाले राजनेताओं को असली मुद्दों का अंदाजा ही नहीं हैं। उनको पता ही नहीं है कि उनके मतदाताओें की असल समस्याएं क्या हैं?
युवाओं, किसानों और महिलाओं को सरकार से किस प्रकार की सहायता चाहिए, विकास पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के बदलते स्वरूप, समाज में उत्पन्न होती नई रूढ़िवादी परंपराओं पर कहीं चर्चा नहीं है। घटती आय, बढ़ती आर्थिक असमानता, बेरोजगारी के इस आलम में नशे के बढ़ते हुए प्रकोप, कोरोना महामारी से उत्पन्न बीमारियों से उजड़ते-बिगड़ते आशियाने और शिक्षा की नई व्यवस्था के चलते कर्ज में डूबे परिवार जैसे अहम मुद्दे चुनावी वादों से नदारद हैं।
मुख्य तीन मुद्दों पर चर्चा जरूरी है। पहला है ग्रामीण क्षेत्रों में नशे का बढ़ता प्रकोप। अफीम और डोडा पोस्त के नशे में चूर ग्रामीण नौजवान ही नहीं बुजुर्ग भी इस बुरी आदत के कारण कर्ज में डूब रहे हैं। अफीम के नशे से पीढ़ियां बर्बाद हो रही हैं। अफीम और डोडा पोस्त का नशा शहरी क्षेत्रों की बजाय ग्रामीण क्षेत्रों में कैंसर का स्वरूप ले रहा है। क्या जनप्रतिनिधियों को नशे के इस कैंसर की रोकथाम करने और नशा मुक्ति को अपना चुनावी मुद्दा नहीं बनाना चाहिए।
दूसरा प्रमुख मुद्दा है कि शिक्षा का व्यावसायीकरण और स्कूल की उच्च शिक्षा में ‘डमी क्लासेज’ का बढ़ता प्रचलन। प्रतियोगी परीक्षाओं जैसे कि जेईई मेन, जेईई एडवांस और नीट में सफलता का झुनझुना दिखा कर बच्चों को 11वीं और 12वीं में नियमित स्कूल से वंचित कर दिया जाता है। वास्तविकता यह है कि यहां सफलता सिर्फ 100 में से 2-3 बच्चों को ही मिलती हैं। नियमित स्कूल न जाने से बच्चों के व्यक्तित्व का समग्र विकास नहीं हो पाता। इससे बच्चों में चिड़चिड़ापन, मानसिक रोग और आत्मघाती प्रवृत्ति बढ़ जाती है। सवाल यह है कि यह चुनावी मुद्दा क्यों नहीं है?
तीसरा मुद्दा है कोरोना महामारी के बाद कुछ बीमारियों में आश्चर्यजनक बढ़ोतरी। ग्रामीण हो चाहे शहरी क्षेत्र, स्वास्थ्य से जुड़ी नई बीमारियां और उनसे होने वाले नुकसान से लोग चिंतित हैं। पिछले माह केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने कहा था कि आइसीएमआर ने एक विस्तृत अध्ययन किया है जो बताता है कि जो लोग कोरोना के संक्रमण से पीड़ित हुए हैं, उन्हें अधिक परिश्रम नहीं करना चाहिए। जीवन से जुड़ा यह मुद्दा भी पांच राज्यों के चुनाव-प्रचार और पार्टियों के घोषणापत्रों में कहीं भी देखने को नहीं मिल।