दिवाला घोषित करने वाला कानून क्या है ?

दिवाला घोषित करने वाला कानून क्या है, सुप्रीम कोर्ट में आई एक याचिका से फिर चर्चाओं में क्यों?
दिवाला निकल जाने के बाद उस व्यक्ति के साथ उसकी गारंटी लेने वाले व्यक्ति पर भी कार्रवाई होती है. हाल ही में इसके संबंध में एक मामला अदालत में आया जिसके बाद 2016 में आया यह कानून चर्चाओं में आ गया.
जब कोई व्यक्ति या संस्थान बैंक से लिया अपना कर्ज चुकाने में असमर्थ हो जाता है तो उसे दिवालिया घोषित कर दिया जाता है. हालांकि ये सुनने में जितना आसान लग रहा है उतना आसान नहीं है, इस प्रक्रिया को कानूनी कार्रवाई से होकर गुजरना पड़ता है.

इसके लिए उस संस्थान या व्यक्ति को पहले कोर्ट में अर्जी दाखिल करनी होती है. इसके बाद कोर्ट उस शख्स की दलीलों को सुनता है और यदि अदालत को उसकी दलीलें सही लगती हैं तो उसे दिवालिया घोषित करने की प्रक्रिया शुरू कर दी जाती है. इस पूरी कार्रवाई में लगभग 180 दिनों का समय लगता है. 

दिवालिया घोषित होते ही उस शख्स की संपत्ति तो जब्त कर ही ली जाती है साथ में उसकी गारंटी लेने वाले व्यक्ति पर भी कार्रवाई होती है. भारत में दिवाला और दिवालिया संहिता कानून (IBC) 2016 में बना था जो हाल ही में आई एक याचिका से फिर चर्चाओं में आ गया है.

सुप्रीम कोर्ट में आई याचिका पर बहस क्यों?
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में दिवाला और दिवालियापन संहिता के महत्वपूर्ण प्रावधानों को चुनौती दी गई. जिसमें याचिकाकर्ता जो दिवाला घोषित किए गए व्यक्ति का गारंटर था उसे अपना मामला पेश करने की अनुमति नहीं दी गई थी.

बता दें व्यक्तिगत गारटंर वो होता है जो किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा लिए गए लोन की गारंटी लेता है. ऐसे में जब लोन लेने वाले व्यक्ति पर दिवालिया की कार्रवाई होती है तो उसमें गारंटर पर भी कार्रवाई की जाती है. मामले में याचिकाकर्ता ने न्यायालय में ये तर्क दिया कि दिवाला और दिवालिया संहिता के चुनौती वाले हिस्से निष्पक्ष सिद्धांतों यानी न्याय प्रक्रिया का पालन नहीं करते हैं. तथा संविधान के अनुच्छेद 21, 19(1)(g) एवं 14 के तहत आजीविका, व्यापार और समानता के अधिकार जैसे मौलिक अधिकारों को प्रभावित करते हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?
न्यायालय ने इस केस की सुनवाई करते हुए IBC की संवैधानिकता को बरकरार रखा है, जिसमें व्यक्तिगत गारंटर के खिलाफ दिवालिया कार्रवाई की अनुमति भी शामिल थी. 

मामले में न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि धारा 95 और 100 को सिर्फ इसलिए असंवैधानिक नहीं माना जा सकता क्योंकि वो व्यक्तिगत गारंटरों को लेनदारों की दिवालिया संबंधी याचिकाओं से पहले सुनवाई का मौका नहीं देते. 

साथ ही न्यायालय ने मामले में उन दावों को भी खारिज किया जिनमें ये कहा गया था कि इन प्रावधानों में निष्पक्षता की कमी है या प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन हुआ है. न्यायालय ने कहा कि निष्पक्षता का मूल्यांकन अलग-अलग मामलों में अलग-अलग तरह से किया जाना चाहिए. न्यायालय ने इस बात पर भी सहमति जताई है कि ये कानून देनदारों की अपेक्षा उधार लिए गए रुपयों की रक्षा करते हैं. 

सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के IBC पर क्या हो सकते हैं प्रभाव?
दिवालिया संहिता कानून (IBC) की सुप्रीम कोर्ट ने रक्षा की है. जिससे अब इसपर गारंटरों के संबंध में लेनदारों के विश्वास में वृद्धि हो सकती है. इसके अलावा ऋणदाता इस कानून के चलते दिवालिया घोषित किए गए व्यक्ति की गारंटरों पर भी कार्रवाई करने में अधिक सुरक्षित महसूस करेगा.

वहीं ये निर्णय उन लोगों को भी सतर्क करेगा जो लोन लेने के लिए किसी संस्था या व्यक्ति की बिना सोचे समझे गारंटी लेते हैं.

2016 में बना दिवालिया कानून
सरकार ने कई सालों से लोन लेकर भाग जाने वाले लोगों के लिए 2016 में गैर निष्पादित संपत्तियों से निपटने के लिए IBC कानून लागू किया था. यह एक नियामक निकाय है, जिसे दिवाला मामलों को पंजीकृत करने और उनका पर्यवेक्षण करने की शक्ति प्रदान है.

दरअसल ये एक ऐसी समस्या बन चुकी थी जो देश की अर्थव्यवस्था में गिरावट ला रही थी.

बता दें दिवालियापन एक ऐसी स्थिति है जिसमें ऋण लेने वाला व्यक्ति अपना ऋण चुकाने में असमर्थ होने की स्थिति में होता है. इसमें कोई विशेष राशि तय नहीं होती यदि कोई व्यक्ति ऋण लिए 500 रुपए भी चुकाने में असमर्थ है तो वो दिवालिया हो सकता है.

क्या है दिवालियापन की प्रक्रिया?
यदि आप मुंबई, कोलकाता या चेन्नई में रहते हैं, तो आप प्रेसीडेंसी टाउन इन्सॉल्वेंसी अधिनियम, 1909 के अन्तर्गत आते हैं, वहीं भारत में अन्य सभी स्थानों के लिए प्रांतीय दिवाला अधिनियम 1920 के अन्तर्गत अपील दायर की जा सकती हैं. दोनों कानून समान हैं और आईबीसी द्वारा प्रतिस्थापित किए जाने वाले हैं.

प्रांतीय दिवाला अधिनियम के तहत यदि आप ₹ 500 से अधिक का ऋण चुकाने में असमर्थ हैं, तो आप दिवालिएपन के लिए आवेदन कर सकते हैं. एक स्वतंत्र कानूनी सलाहकार समूह, विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी की रिसर्च फेलो ऐश्वर्या सतीजा ने मिंट से हुई बातचीत में बताया, “यह विश्लेषण करने के बाद कि क्या दिवालियापन दाखिल करने के लिए आवेदन पूरा हो गया है, अदालत आवेदन को स्वीकार या अस्वीकार कर सकती है. आवेदन पर निर्णय होने तक, एक अंतरिम रिसीवर देनदार की संपत्ति पर कब्जा कर लेता है. यदि आवेदन स्वीकार कर लिया जाता है, तो अदालत देनदार की संपत्ति या संपत्ति के खिलाफ किसी भी कानूनी कार्यवाई पर रोक लगा सकती है.”

एक बार जब आपका आवेदन स्वीकार कर लिया जाता है, तो आपकी संपत्ति अदालत द्वारा नियुक्त “रिसीवर” के पास सुरक्षित हो जाती है. यह अधिकारी तब आपकी संपत्ति को लेनदारों के बीच वितरित करता है, जब तक कि आपने जो समझौता प्रस्तावित किया है वो आपके लेनदारों और अदालत स्वीकार नहीं कर लेती है. यदि एक बार यह प्रक्रिया पूरी हो जाती है तो अदालत द्वारा “दिवालियापन से मुक्त” कर दिया जाता है. जिसके बाद आपको अपने पिछले लेनदारों परेशान नहीं कर पाएंगे और आप अपने जीवन को नए सिरे से जी सकते हैं.

लेकिन जबतक दिवालिएपन की कार्यवाई अदालत के समक्ष लंबित है तब तक ऋण लेने वाले व्यक्ति को अपने और अपने परिवार के अस्तित्व के लिए न्यूनतम रखरखाव राशि के लिए अदालत में आवेदन करना होता है. 

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