पसमांदा पर विपक्ष की चुप्पी के मायने ?

सियासत : पसमांदा पर विपक्ष की चुप्पी के मायने, कुलीन मुस्लिमों की तुष्टिकरण नीति से बढ़ी राजनीतिक असमानता

हाल ही में बिहार सरकार द्वारा जारी जाति सर्वेक्षण के नतीजों से कुलीन मुसलमानों के तुष्टिकरण की बू आती है, क्योंकि शेखोरा, ठकुराई और कुलैया मुस्लिम समूहों जैसी कई अगड़ी मुस्लिम जातियों को अत्यंत पिछड़ी जाति (ईबीसी) श्रेणी में शामिल किया गया है। मसलन, कुलेया मुसलमान अप्रवासी मुसलमानों के वंशज है, जो मुगलों के साथ भारत आए थे। इससे न केवल पचित पसमांदा समूह, बल्कि कई हिंदू ईवीसी भी इस श्रेणी का लाभ पाने पाने से से वंचित हो सकते हैं।

विपक्ष की यह चूक और पसमांदा मुद्दे पर उनकी चुप्पी आश्चर्यजनक है, क्योंकि यह मुद्दा कई कारणों से गहरे निहितार्थ रखता है। सबसे पहले, विपक्ष की राजनीति भाजपा को ‘मुस्लिम विरोधी’ करार देने के इर्द-गिर्द घूमती है। दूसरा, विपक्षी दल मुस्लिम वोटों के लाभार्थी रहे है। तीसरा, पसमांदा मुद्दा मुस्लिम समुदाय के भीतर सामाजिक न्याय को आगे बढ़ाने की कुंजी है। चौथा, इसका उद्देश मुस्लिम समुदाय के राजनीतिक व्यवहार में बदलाव लाना है। पांचवां, यह उस धुरी का प्रतिनिधित्व करता है, जिसके जरिये भाजपा मुसलमानों से जुड़ने की कोशिश कर रही है। छठा, यह मुस्लिम राजनीति में दुर्लभ घटना है, जिसमें एक उप-समूह, न कि मुस्लिम गुट सुर्खियों में है। 

भारत में मुसलमानों को तीन प्रमुख वर्गों में बांटा गया है-अशरफ, अजलाफ और अरजाल-जो अगड़े, पिछड़े और अत्यंत पिछड़े के अनुरूप हैं। पसमांदा, बाद के दो हाशिये के समूहों के लिए एक व्यापक शब्द है, जिसमें 40 से अधिक जातियां हैं और जिनमें लगभग 4/5वां हिस्सा मुस्लिम जनसंख्या शामिल है। शेष मुस्लिम आबादी यानी 1/5वां हिस्सा अशराफ का प्रतिनिधित्व करती है। पर अल्पसंख्यक अशराफ को असंगत रूप से उच्च राजनीतिक प्रतिनिधित्व प्रदान करके विपक्ष ने मुसलमानों को सामाजिक-आर्थिक असमानताओं को बढ़ा दिया है। हालिया रुझान इसे साबित करते हैं। लोकसभा में 25 मुस्लिम सांसदों में से 18 अशराफ और सात पसमांदा हैं। उत्तर प्रदेश में जहां पसमांदा की आबादी 65-70 फीसदी है, पिछले लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के केवल एक चौथाई और कांग्रेस के नौवां हिस्सा मुस्लिम उम्मीदवार पसमांदा थे। बिहार में, जहां पसमांदा आबादी सबसे ज्यादा है, वहां महागठबंधन के ज्यादातर मुस्लिम विधायक अशराफ हैं। इसके विपरीत भाजपा ने हाल में पसमादाओं की अधिक समावेशिता प्रदर्शित की है।

उत्तर प्रदेश में 2023 के शहरी स्थानीय निकाय चुनाबों में भाजपा के कुल 395 मुसलमान उम्मीदवारों में से 299 पसमांदा थे। 61 विजयी मुस्लिम उम्मीदवारों में से 51 पसमांदा वर्ग के हैं। यूपी विधान परिषद में सरकार के दो नवीनतम उम्मीदवार पसमांदा हैं।

अशराफ का वर्चस्व विपक्षी दलों के एजेंडे में शामिल मुद्दों में भी दिखता है। इस से पता चलता है कि केंद्र में कांग्रेस, यूपी में एसपी और बंगाल में टीएमसी के शासनकाल में मुस्लिम पर्सनल लॉ, बाबरी मस्जिद, मस्जिदों को राज्य संरक्षण आदि के मुद्दों का राजनीतिकरण क्यों किया गया। भाजपा का दृष्टिकोण अलग है, क्योंकि वह ‘भेदभाव के विना विकास’ के मुद्दे पर मुसलमानों के साथ जुड़ने का विकल्प चुन रही है। उदाहरण के लिए, स्वच्छ भारत अभियान के तहत, उत्तर प्रदेश में मुस्लिम लाभार्थियों की संख्या 22 फीसदी थी, जबकि उनकी आवादी 18 फीसदी है। कई पसमांदा जातियां कम वेतन वाले व्यवसायों में लगी हुई हैं, जैसे बुनकर (अंसारी), प्रिंटर (दर्जी छिपी), कॉटन कार्डर्स (मंसूरी) आदि, जो पीएम विश्वकर्मा योजना के लाभार्थी हैं। इससे पता चलता है कि पसमांदा के मुद्दों पर विपक्ष की चुप्पी जानबूझकर है। पसमांदा लोग विकल्प तलाश रहे हैं। इस पृष्ठभूमि में, भाजपा को मुस्लिम समुदाय में पैठ बनाने का अवसर महसूस हो रहा है। 2024 के आम चुनाव से पता चलेगा कि टोनों छोर मिलते हैं या नहीं।

-लेखक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति और उत्तर प्रदेश विधानसभा के नामित सदस्य हैं।

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