राज्यों में राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच सियासी द्वंद छिड़ा !
राज्यपाल की शक्तियां और संविधान का अनुच्छेद 200; प्रदेश की सरकारों से टकराव के बीच समझिए पूरी तस्वीर
संविधान अनुच्छेद 153 के मुताबिक भारत गणराज्य के हर राज्य के लिए एक राज्यपाल का पद होगा. राज्यपाल की नियुक्त केंद्र की सिफारिश पर राष्ट्रपति ही करते हैं.
अब सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल की शक्तियों को लेकर कहा कि राज्यपाल को एक अनिर्वाचित प्रमुख के रूप में कुछ संवैधानिक शक्तियां जरूर सौंपी गई हैं, लेकिन इस शक्तियों का इस्तेमाल वह विधानसभा द्वारा बनाए गए कानूनों को विफल करने के लिए नहीं कर सकते हैं.
मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने 27 पन्नों के फैसले में स्पष्ट कहा कि विधानसभा द्वारा प्रस्तावित कोई भी कानून केवल इसलिए खत्म नहीं हो जाता, क्योंकि राज्यपाल उस पर सहमति देने के लिए हस्ताक्षर करने से इनकार कर देते हैं. विधेयक का सदन में पुनर्विचार के लिए वापस भेजा जाना जरूरी है.
राज्यपाल के पास होते हैं तीन विकल्प
इसके अलावा अनुच्छेद 200 के पहले प्रावधान के अनुसार राज्यपाल रोके गए विधेयक को पुनर्विचार करने या इसमें बदलाव करने के लिए सदन में वापस भेज सकते हैं.
इतना ही नहीं संविधान में प्रावधान है कि राज्यपाल अपनी कार्यकारी शक्तियों का प्रयोग अनुच्छेद 154 के तहत मंत्रिपरिषद की सलाह पर ही कर सकता है. यानी बिना मंत्रिपरिषद से सलाह लिए राज्यपाल किसी भी विधेयक की सहमति पर रोक नहीं लगा सकता है.
ऐसे में इस रिपोर्ट में समझते हैं कि आखिर राज्यपाल और कई प्रदेश के मुख्यमंत्रियों के बीच सियासी द्वंद क्यों छिड़ा हुआ है और राज्यपाल की शक्तियां क्या है?
क्या है ताजा मामला
दरअसल हाल ही में पंजाब सरकार ने विधानसभा सत्र बुलाया था. इस विशेष सत्र में कई बिल भी पास किए जाने थे. लेकिन राज्यपाल ने इस सत्र गैरकानूनी कहा और बिल पेश करने से भी मना कर दिया. उनके इस कदम के बाद पंजाब सरकार ने उनके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाने का फैसला लिया. पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार है, जो केंद्रीय सत्तारूढ़ दल के विरोध में है.
उस वक्त विधानसभा में बोलते हुए मुख्यमंत्री भगवंत मान ने कहा था, “हम पंजाब के लोगों के लिए बिल पेश करना चाहते थे, लेकिन राज्यपाल ने बिल पास करने से मना कर दिया और इस सत्र को गैरकानूनी कहा.’
मान ने उसी वक्त इस सत्र को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर तीस अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट जाने का फैसला ले लिया था. सीएम मान ने राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित पर हमला बोलते हुए कहा था कि गवर्नर को गलतफहमी हो गई है कि मुख्यमंत्री की शपथ उन्होंने ली है.
केरल और तमिलनाडु भी लगा चुके हैं आरोप
इससे पहले केरल और तमिलनाडु की सरकार भी राज्यपाल पर काम में गतिरोध पैदा करने का आरोप लगा चुकी है. इन दोनों राज्यों ने भी सुप्रीम कोर्ट में राज्यपाल के खिलाफ याचिका दाखिल की थी.
तमिलनाडु में टकराव क्यों?
14 जून को तमिलनाडु में एमके स्टालिन सरकार में परिवहन मंत्री सेंथिल बालाजी को ‘कैश फॉर जॉब’ स्कैम में ईडी ने गिरफ्तार किया था. उस वक्त स्टालिन ने राज्यपाल को एक प्रस्ताव भेजा था, उस प्रस्ताव में कहा गया था कि सेंथिल के विभाग को दूसरे मंत्री को दे दिया जाए.
राज्यपाल ने सीएम के इस प्रस्ताव को ठुकराते हुए 15 दिन बाद मंत्री बालाजी को कैबिनेट से बर्खास्तगी का फरमान जारी कर दिया. इस मामले के तूल पकड़ने के बाद राज्यपाल ने एक और आदेश जारी कर दिया. आदेश में कहा गया कि राज्यपाल ने अपना फैसला वापस ले लिया है.
सुप्रीम कोर्ट के वकील विराग गुप्ता कहते हैं कि पहले राज्यपाल ने मंत्री को बर्खास्त करने का नोटिफिकेशन जारी कर दिया था और अब बहाल की बात कर रहे हैं. यह कैसे हो सकता है? उन्होंने कहा कि मंत्री को बहाल करने के लिए अब नए सिरे से नियुक्ति और शपथ की प्रक्रिया अपनानी पड़ेगी.
क्या है अनुच्छेद 200, जिसका राज्यपाल को पालन करना है जरूरी
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 200 किसी राज्य की विधानसभा द्वारा पारित विधेयक को सहमति के लिये राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत करने की प्रक्रिया को रेखांकित करता है. इसके तहत राज्यपाल किसी विधेयक को या तो सहमति दे सकता है, सहमति से रोक सकता है या राष्ट्रपति द्वारा विचार के लिये विधेयक को आरक्षित कर सकता है. इसके अलावा राज्यपाल सदन या सदनों द्वारा पुनर्विचार का अनुरोध करने वाले संदेश के साथ विधेयक को वापस भी कर सकता है.
बार-बार राज्यपाल क्यों विवाद में आ रहे?
वर्तमान में 14 राज्यों में उन पार्टियों की सरकार है जो केंद्र की सत्ता में शामिल नहीं है. विपक्षों की एकजुटता के बाद बनी इंडिया गठबंधन की भी 11 राज्यों में सरकार है. जबकि यूपीए सरकार की बात करें तो उस वक्त केवल 4-5 राज्यों में ही विपक्षी पार्टियों की सरकार थी.
सियासी जानकार की मानें तो राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच के टकराव की मुख्य वजह भी यही है. जानकारों का कहना है कि संविधान में सबकी शक्ति के बारे में बता दिया गया है. राज्यपाल अगर अपने संवैधानिक मर्यादा में रहेंगे, तो कभी विवाद होगा ही नहीं.
श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन से जुड़े एक वरिष्ठ शोधार्थी नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं- राज्यपाल और मुख्यमंत्री का विवाद दोनों के बीच का विवाद ज्यादातर राजनीतिक होता है. आसान भाषा में समझें तो जहां विपक्षी पार्टियों की सरकार होती है. वहां उसका अपना एजेंडा और विजन होता है. जबकि राज्यपाल केंद्र के प्रतिनिधि होते हैं और वे केंद्र के एजेंडा और विजन को आगे लेकर बढ़ने की कोशिश करते हैं. यही टकराव की वजह बनती है.
क्या है राज्यपाल का पद और दायित्व
संविधान अनुच्छेद 153 के मुताबिक भारत गणराज्य के हर राज्य के लिए एक राज्यपाल का पद होगा. राज्यपाल की नियुक्त केंद्र की सिफारिश पर राष्ट्रपति ही करते हैं. उनका कार्यकाल भी राष्ट्रपति पर निर्भर करता है.
पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के अनुसार राज्यपाल केंद्र और राज्यों के बीच पुल की भूमिका निभाते हैं. राज्यपाल के पास विधायी, कार्यपालिका, वित्तीय, और न्यायिक शक्तियां है. राज्यपाल बहुमत के आधार पर सरकर गठन करने, सदन बुलाने और विधानसभा भंग की सिफारिश भी कर सकते हैं.
आसान भाषा में समझें तो राज्यपाल राज्य की सभी विश्वविद्यालयों के प्रिसिंपल होते हैं. राज्य के एडवोकेट जनरल, लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति भी राज्यपाल ही करते हैं. राज्यपाल की सहमति के बिना किसी भी राज्य में फाइनेंस बिल को विधानसभा में पेश नहीं किया जा सकता. इसके अलावा कोई भी बिल उनके अनुमति के बिना कानून की शक्ल नहीं ले सकता है.