राजस्थान से राज्यसभा पहुंचने से पहले सोनिया गांधी रायबरेली से ही लोकसभा चुनाव जीतती रहीं। उनसे पहले पति राजीव गांधी रायबरेली का प्रतिनिधित्व करते रहे। फिरोज गांधी और इंदिरा गांधी भी रायबरेली से लोकसभा के लिए चुने जाते रहे। सोनिया गांधी द्वारा इस बार संसद जाने के लिए राज्यसभा का रास्ता चुने जाने के बाद अटकलें थीं कि राहुल वायनाड और अपनी पुरानी सीट अमेठी से लड़ेंगे, जबकि प्रियंका रायबरेली से अपनी संसदीय राजनीति की शुरुआत करेंगी, लेकिन कांग्रेस ने चौंकाने वाला निर्णय लिया।

परिवार और पार्टी के निष्ठावान किशोरी लाल शर्मा को अमेठी से स्मृति इरानी के विरुद्ध चुनाव में उतारा, जबकि राहुल के लिए अपेक्षाकृत सुरक्षित रायबरेली को चुना। कांग्रेस का दांव सफल भी रहा। रायबरेली से राहुल तो जीत ही गए, किशोरी लाल ने भी अमेठी से स्मृति इरानी को हरा कर सबको चौंका दिया। राहुल और किशोरी लाल, दोनों के चुनाव प्रचार और प्रबंधन की कमान प्रियंका गांधी ही संभालती नजर आई थीं।

जब राहुल ने वायनाड छोड़ने का एलान किया तभी उपचुनाव में प्रियंका के प्रत्याशी होने का फैसला हो गया था। राहुल ने कहा था कि वायनाड के मतदाताओं को उनकी कमी महसूस न हो, इसलिए वहां से होने वाले उपचुनाव में बहन प्रियंका गांधी कांग्रेस उम्मीदवार होंगी। बेशक वायनाड से प्रियंका की जीत में किसी को संदेह नहीं था, लेकिन भाई राहुल से भी ज्यादा अंतर से जीत हासिल कर उन्होंने चौंकाया।

प्रियंका चार लाख से भी ज्यादा वोटों के अंतर से जीती हैं। उनका मुकाबला सत्तारूढ़ एलडीएफ प्रत्याशी से हुआ, जबकि भाजपा की उम्मीदवार तीसरे स्थान पर रहीं। हालांकि प्रियंका गांधी की संसदीय पारी का आगाज भले ही अभी हुआ है, लेकिन वह राजनीति में नई नहीं हैं। खुद प्रियंका गांधी ने बताया कि वह 35 साल से राजनीति में सक्रिय हैं और उन्होंने 1989 में 17 साल की उम्र में पहली बार अपने पिता राजीव गांधी के लिए चुनाव प्रचार किया था। सभी जानते हैं कि रायबरेली और अमेठी में वह मां और भाई के लिए अतीत में भी चुनाव प्रबंधन और राजनीतिक कामकाज देखती रही हैं।

प्रियंका की संसदीय राजनीति का आगाज ऐसे समय हुआ है, जब छह महीने पहले लोकसभा चुनाव में पुनरुत्थान के संकेत मिलने के बाद कांग्रेस फिर पस्तहाल नजर आ रही है। अक्टूबर में हाथ में आती दिख रही हरियाणा की सत्ता फिसल गई, तो जम्मू-कश्मीर में मित्र दल नेशनल कांफ्रेंस की बड़ी जीत के बावजूद कांग्रेस मात्र छह सीटों पर सिमट गई। फिर नवंबर में महाराष्ट्र में चुनावी पराभव का नया कीर्तिमान बनाया तो झारखंड में अनुकूल माहौल के बावजूद कांग्रेस सीटें बढ़ाने में नाकाम रही।

भाजपा से सीधे मुकाबले में कांग्रेस के लगातार लचर प्रदर्शन और उसके बावजूद आत्मकेंद्रित अहंकारी व्यवहार के चलते अब गठबंधन में भी उसके विरुद्ध स्वर मुखर होने लगे हैं। घटक दलों के नेता गठबंधन की कमान ममता बनर्जी को देने की पैरवी कर रहे हैं। जून में लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष बने राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता पर भी मित्र दल ही सवाल उठाने लगे हैं। बेशक प्रियंका गांधी बेहतर वक्ता मानी जाती हैं, लेकिन उनके साथ ही गांधी-नेहरू परिवार के तीनों सदस्यों के संसद में आ जाने से वंशवाद के मुद्दे पर भाजपा के आक्रमण को जो तेज धार मिलेगी, उससे बचाव कांग्रेस के लिए आसान नहीं होगा।

ऐसे में यह स्वाभाविक सवाल अनुत्तरित ही है कि कांग्रेस आलाकमान या कहें कि खुद परिवार ने यह रास्ता क्यों चुना? आखिर प्रियंका राजनीति में तो थी हीं। सालों पहले ही सीधे कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव बनाई जा चुकी थीं। वह उत्तर प्रदेश सरीखे बड़े राज्य की प्रभारी थीं। हालांकि स्टार प्रचारक होने के बावजूद वह कांग्रेस को बड़ी चुनावी सफलता नहीं दिलवा पाईं। 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में उन्होंने चर्चित नारा दिया था कि ‘लड़की हूं, लड़ सकती हूं।’

कांग्रेस ने बड़ी संख्या में महिला उम्मीदवार भी उतारे, पर जोरदार प्रचार अभियान के बावजूद कांग्रेस 402 में से मात्र दो विधानसभा सीटें ही जीत पाई। कांग्रेस का मत प्रतिशत भी ढाई प्रतिशत के आसपास रहा। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की हालत लोकसभा चुनाव में सपा से गठबंधन से सुधरती दिखी, पर हाल के नौ विधानसभा उपचुनाव में सपा ने उसके लिए एक भी सीट नहीं छोड़ी। अब परिवार के तीनों ही सदस्य संसद में पहुंच जाने से वंशवाद के मुद्दे पर भाजपा का आक्रमण तो और तेज होगा ही, कांग्रेस में राहुल के समानांतर एक और सत्ता केंद्र बनने का खतरा भी रहेगा।

ध्यान रहे कि पंजाब में कांग्रेस के पराभव का बड़ा कारण बने नवजोत सिंह सिद्धू को प्रियंका गांधी का समर्थक बताया जाता रहा है। उन्हीं की जिद के चलते पंजाब में पहले प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बदला गया और फिर मुख्यमंत्री। इस उठापटक की अंतिम परिणति यह हुई कि मतदाताओं ने कांग्रेस को ही सत्ता से बेदखल करते हुए आम आदमी पार्टी को प्रचंड जनादेश दे दिया। कांग्रेस शासित हिमाचल में भी प्रियंका का दखल रहता है। यदि राहुल और प्रियंका एक-दूसरे के पूरक की भूमिका निभाएंगे तो कांग्रेस की मजबूती में मददगार होंगे, लेकिन यदि वे दो अलग-अलग सत्ता केंद्र बनकर प्रतिद्वंद्वी बन गए तो कमजोर कांग्रेस की मुश्किलें और बढ़ जाएंगी।

प्रियंका गांधी के पति राबर्ट वाड्रा भी बीच-बीच में चुनाव लड़कर समाज और देश-सेवा की इच्छा जताते रहे हैं। यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि संगठन के बाद अब संसद में भी प्रियंका की एंट्री से राबर्ट वाड्रा की राजनीतिक भूमिका भी बढ़ेगी क्या? उनके विरुद्ध कई मुकदमे लंबित हैं। पत्नी के सांसद बन जाने के बाद उन मुकदमों की गति और नियति देखना भी दिलचस्प होगा, जिसका राजनीतिक प्रभाव कांग्रेस पर पड़े बिना नहीं रह सकेगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)