जिला न्यायालय उत्तरी दिल्ली के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश अजय नागर ने 2019 में नाबालिग छात्रा के साथ दुष्कर्म के कथित मामले में एक व्यक्ति को बरी कर दिया और पाया कि शिकायतकर्ता उसके साथ सहमति से संबंध में थी। निर्दोष होते हुए भी छह साल जेल में व्यतीत करना उस व्यवस्थागत असंवेदनशीलता को उजागर करता है, जहां बिना तथ्यों की पुष्टि किए पुरुष को अपराधी स्वीकार कर लिया जाता है।

इसमें किंचित संदेह नहीं कि दुष्कर्म एक ऐसी पीड़ा है, जिससे उबर पाना सहज नहीं, क्योंकि यह जितने शारीरिक घाव देती है, उससे कहीं अधिक जीवनपर्यंत मिलने वाली मानसिक पीड़ा परेशान करती है। इसलिए न्यायालय और पुलिस प्रशासन ऐसे मामलों को गंभीरता से लेता है, परंतु इस गंभीरता के भाव ने उस तार्किकता और संवेदनशीलता को विलोपित कर दिया है, जहां न्याय और अपराध के बीच पूर्वाग्रहों का कोई स्थान नहीं होता। महिला के ‘कथन’ को अंतिम सत्य मान लिए जाने की प्रवृत्ति ने पुरुषों के लिए न्याय प्रक्रिया को बहुत जटिल कर दिया है।

यह स्थिति तब और अधिक गंभीर हो जाती है जब न्यायालय के दरवाजे से जेल की दीवारों के बीच अपनी सत्यता को सिद्ध करने के लिए वकीलों तक पहुंच न हो और इसका एक उदाहरण ‘विष्णु बनाम उत्तर प्रदेश राज्य’ का मामला है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय का 28 जनवरी 2021 का फैसला तब चर्चा का विषय बन गया था, जब निर्दोष होने के बावजूद भी विष्णु को दुष्कर्म के आरोप में 20 साल जेल में गुजारने पड़े। न्याय की लड़ाई में विष्णु का सब कुछ बिक गया, परंतु जब न्याय मिला तब तक उसके पास कुछ भी शेष नहीं बचा था। ऐसे न जाने कितने विष्णु न्याय के लिए संघर्ष कर रहे होंगे, परंतु उनकी चीखें समाज और प्रशासन की उन कठोर धारणाओं के बीच दब जाती हैं, जहां पुरुष को सदैव से ही शोषक माना गया है।

दिल्ली की एक अदालत में न्यायाधीश निवेदिता अनिल शर्मा ने ‘राज्य बनाम राजू भट्ट’ मुकदमे में निर्णय देते हुए कहा था, ‘कोई भी पुरुष के सम्मान और गरिमा की बात नहीं करता। हर कोई महिलाओं की सुरक्षा, सम्मान और गरिमा के लिए संघर्ष कर रहा है। महिलाओं की सुरक्षा के लिए कानून बने हैं, जिनका कोई भी महिला दुरुपयोग कर सकती है, लेकिन ऐसी महिलाओं से पुरुषों के बचाव के लिए कानून कहां हैं? शायद अब समय आ गया है कि ऐसे मामलों के भुक्तभोगी पुरुषों के बचाव के लिए कानून बनाए जाएं।’ समस्या महिलाओं की सुरक्षा के लिए बने हुए कानून में नहीं है।

समस्या उस कानूनी ढांचे में है जहां महिलाएं बेखौफ झूठे आरोप लगाती हैं, क्योंकि वे भलीभांति जानती हैं कि उनके झूठे आरोपों को न्याय की संकरी गलियां लंबी अवधि तक सुरक्षित रखेंगी और दोष मुक्त होने तक आरोपित शारीरिक, मानसिक और सामाजिक रूप से टूट चुका होगा। इसी कारण झूठे आरोप लगाने वाली महिलाओं की जीत होती है। बीते दशकों में ऐसे मामले अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं, जहां झूठे आरोप लगाने पर महिला को सजा मिली हो।

अपवादस्वरूप मई 2024 में बरेली की अदालत ने एक महिला को झूठी गवाही और झूठे दुष्कर्म के आरोप में दोषी ठहराया और सजा सुनाई। अदालत ने महिला को 4 साल 6 महीने और 8 दिन के कारावास की सजा सुनाई, जो आरोपित द्वारा जेल में बिताए गए समय के बराबर थी। अदालत ने कहा कि ‘अपने अवैध उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए पुलिस और अदालत का माध्यम के रूप में उपयोग करना अत्यधिक आपत्तिजनक है।’ यदि इतनी कठोरता झूठे आरोप लगाने वाली हर महिला के हिस्से में आए तो निश्चित ही झूठे दुष्कर्म के मिथ्या आरोप में कमी आएगी। जितनी पीड़ादायक दुष्कर्म की घटना होती है, उतना ही पीड़ादायक दुष्कर्म के झूठे आरोपों से गुजरना भी।

अगस्त 2021 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने ‘विमलेश अग्निहोत्री और अन्य बनाम राज्य एवं अन्य’ मामले पर निर्णय देते हुए कहा था, ‘अपराध की गंभीर प्रकृति के कारण छेड़छाड़ और दुष्कर्म के मामलों से संबंधित झूठे दावों और आरोपों से सख्ती से निपटने की जरूरत है। इस तरह के मुकदमे अनैतिक वादकारियों द्वारा इस उम्मीद में लगाए जाते हैं कि दूसरा पक्ष डर या शर्म से उनकी मांगों को स्वीकार कर लेगा। जब तक गलत काम करने वालों को उनके कार्यों के परिणामों का भुगतान नहीं करना पड़ेगा, तब तक इस तरह के तुच्छ और झूठे मुकदमों को रोकना मुश्किल होगा।’

जान डेविस ने अपनी पुस्तक ‘फाल्स एक्यूजेशंस आफ रेप: लिंचिंग इन द फर्स्ट सेंचुरी’ में उन मिथकों का वैज्ञानिक खंडन प्रस्तुत किया है कि महिलाएं दुष्कर्म के बारे में झूठ नहीं बोलती हैं। डेविस ने आंकड़ों के आधार पर अपने विस्तृत शोध में यह रेखांकित किया है कि दुष्कर्म के झूठे आरोपों से पुरुष का पारिवारिक और सामाजिक जीवन भी समाप्त हो जाता है। यह आवश्यक है कि दुष्कर्म जैसे आरोपों के समय पुलिस एवं न्यायिक व्यवस्था तार्किक एवं संवेदनशील दृष्टिकोण अपनाए, अन्यथा समाज निर्दोषों की अंतहीन पीड़ा को मूक होकर देखता रहेगा और यह न्याय की हार होगी।

(लेखिका समाजशास्त्री हैं)