इतनी बड़ी जीत के बाद क्या शिवराज फिर बनेंगे मुख्यमंत्री ?

मध्यप्रदेश में भाजपा की इतनी बड़ी जीत… क्या कोई अंडर करंट था? इस जीत का सेहरा किसे बंधेगा? क्या शिवराज सिंह चौहान फिर मुख्यमंत्री बनने वाले हैं? कई मंत्री चुनाव हार गए हैं, क्या वे एंटी एनकंबेंसी में फंस गए? इसी तरह के कई सवाल लोगों के जेहन में हैं। इस एनालिसिस में सवाल-जवाब के जरिए पूरे रिजल्ट को सिलसिलेवार समझिए…

1. भाजपा की इतनी बड़ी जीत के सबसे बड़े कारण क्या हैं?
शिवराज का इमोशनल कनेक्ट:
 कांग्रेस हमेशा सवाल पूछती रही कि आखिर भाजपा मध्यप्रदेश में शिवराज को चेहरा क्यों नहीं बना रही है? पार्टी की ओर से कभी इसका स्पष्ट जवाब नहीं आया, लेकिन जनता ने दे दिया। सवाल था खुद शिवराज का- ‘मैं चुनाव लड़ूं कि नहीं लड़ूं?’ ‘मुझे मुख्यमंत्री बनना चाहिए कि नहीं?’ चुनावी सभाओं में ‘ध्वनि मत’ शिवराज के पक्ष में ही रहा। शिवराज का यही इमोशनल कनेक्ट भाजपा के लिए फायदेमंद साबित हुआ।

लाड़ली बहना योजना: स्पष्ट टारगेट यानी महिला वोटर। सही समय यानी चुनावी सीजन से पहले। लाड़ली बहना योजना गेमचेंजर साबित हुई। महिलाओं के खाते में हर महीने 1250 रुपए का ऐसा असर हुआ कि चुनाव में महिलाएं न केवल मुद्दा बन गई, बल्कि भाजपा का चेहरा भी। कांग्रेस ने 1500 रुपए महीने देने का वादा किया लेकिन महिलाओं ने जो हासिल है उसी पर भरोसा किया।

मोदी का चेहरा और डबल इंजन: भाजपा ने जब चुनाव प्रचार अभियान के लिए अपने थीम सांग एमपी के मन में मोदी और मोदी के मन में एमपी… जारी किया था। तब ही यह साफ हो गया था कि पार्टी मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री पद का कोई चेहरा सामने नहीं रखेगी। बैनर-होर्डिंग्स से लेकर चुनावी रथ में यह सब दिखा भी। चुनावी सभाओं में जब मोदी ने एमपी के लिए खुद की गारंटी दी तब भी इसका आभास हुआ। वैसे भी लोग मोलभाव के साथ गारंटी का भी ध्यान रखते हैं। रखा भी।

चुनाव प्रचार में शिवराज का फोकस महिला वोटर पर रहा। प्रदेशभर में लाड़ली बहना सम्मेलन हुए। शिवराज ने खुद को भैया बताकर महिलाओं के इमोशनल कनेक्ट किया।
चुनाव प्रचार में शिवराज का फोकस महिला वोटर पर रहा। प्रदेशभर में लाड़ली बहना सम्मेलन हुए। शिवराज ने खुद को भैया बताकर महिलाओं के इमोशनल कनेक्ट किया।

2. भाजपा की कौनसी चुनावी रणनीति मध्य प्रदेश में कामयाब रही?
चुनाव घोषणा से दो महीने पहले टिकट:
 17 अगस्त। ये वो दिन था जब न तो चुनाव की हलचल थी और न ही कहीं इसे लेकर चर्चा हो रही थी। रात को अचानक 39 नामों की लिस्ट आ गई। इसमें 27 पूर्व विधायक थे। दरअसल, भाजपा ने सबसे पहले हारी हुई सीटों पर फोकस किया। प्रत्याशियों को प्रचार का भरपूर समय दिया। यह रणनीति काफी हद तक सही साबित हुई। इन 39 सीटों में से 20 सीटें भाजपा कांग्रेस से वापस ले ली है।

नए-पुराने चेहरे में नहीं उलझे: पार्टी ने नए-पुराने चेहरों में उलझने की बजाय सर्वे के आधार पर ही फैसला लिया। जैसे- जीतू पटवारी की वजह से इंदौर जिले की राऊ सीट को कांग्रेस के लिए मजबूत माना जाता रहा है। पार्टी ने यहां से पिछला चुनाव हारे मधु वर्मा पर ही भरोसा किया जो सही साबित हुआ। इसी तरह उज्जैन जिले की घटि्टया से 2018 में पार्टी ने विधायक सतीश मालवीय का टिकट काट दिया था। इस बार मालवीय पर भरोसा किया जो खरे उतरे।

दिग्गजों को मैदान में उतारा: पार्टी ने केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर सहित 7 सांसद और राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय को मैदान में उतारा। इन आठ सीटों में 6 हारी हुई सीटें थी। इनमें से मंडला जिले की निवास सीट से केंद्रीय मंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते जीत नहीं पाए।

पार्टी का फोकस स्पष्ट था – हारी हुई सीटों को किसी भी सूरत में जीतना। संजय शुक्ला की वजह से इंदौर-1 को कांग्रेस की मजबूत सीट माना जा रहा था, भाजपा ने विजयवर्गीय को ही भेज दिया। उनके मार्फत मालवा में मैसेज दिया गया कि हर एक सीट कितनी महत्वपूर्ण है।

3. इतनी बड़ी जीत के बाद मुख्यमंत्री कौन होगा? शिवराज या कोई और?
फिलहाल शिवराज सिंह चौहान ही आगे हैं। जिस तरह लाड़ली बहना को जीत का महत्वपूर्ण फैक्टर माना जा रहा है, उससे शिवराज का दावा ही मजबूत है। इस योजना का जनक भी उन्हें ही माना जाता है, इसलिए इसका क्रेडिट भी उन्हें ही मिलेगा।

इसके अलावा टिकट वितरण में भी उनकी पसंद को ध्यान रखा गया, जिनमें अधिकतर जीतकर भी आए हैं। और सबसे बड़ी बात इमोशनल कनेक्ट के कारण जनभावनाएं शिवराज के साथ हैं, इसलिए उन्हें दरकिनार करने की कोई वजह नजर नहीं आ रही है। पांच महीने बाद होने वाले लोकसभा चुनाव को देखते हुए पार्टी भी कोई रिस्क नहीं लेगी। हो सकता है लोकसभा चुनाव के बाद का यह विषय हो।

मध्यप्रदेश में जीत के बाद सत्ता और संगठन प्रमुख ने एक-दूसरे को मिठाई खिलाकर बधाई दी।
मध्यप्रदेश में जीत के बाद सत्ता और संगठन प्रमुख ने एक-दूसरे को मिठाई खिलाकर बधाई दी।

4 …फिर कैलाश विजयवर्गीय, तोमर और पटेल किस भूमिका में रहेंगे?
‘मैं सिर्फ विधायक बनने नहीं आया हूं। पार्टी बड़ी जिम्मेदारी देने वाली है।’ कैलाश विजयवर्गीय ने प्रत्याशी के तौर पर अपने विधानसभा क्षेत्र में प्रचार के दौरान जब यह बात कही तो चर्चाएं होने लगी कि आखिर वह बड़ी जिम्मेदारी क्या होगी? उनके साथ ही केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर व प्रह्लाद पटेल को भी मुख्यमंत्री पद का दावेदार माना जाने लगा। तीनों चुनाव जीत रहे है।

ऐसे में दो ही स्थितियां बनेंगी, पहली- शिवराज मुख्यमंत्री बनते हैं तो मध्य प्रदेश में बाकी नेताओं का क्या रोल होगा? दूसरा- नेतृत्व परिवर्तन होता है तो फिर इनमें से किसका दावा मजबूत होगा? फिलहाल पहली स्थिति ही बनती दिख रही है।

ऐसे में केंद्रीय नेतृत्व इनकी भूमिका तय करेगा। दोनों शिवराज कैबिनेट में रहे, इसकी संभावना कम है। इन दोनों में से किसी एक को प्रदेश संगठन की कमान भी सौंपी जा सकती है। लोकसभा चुनाव का विकल्प भी है।

5. मध्य प्रदेश की राजनीति में अब कमलनाथ की क्या भूमिका? क्या दिल्ली जाएंगे?
चुनाव से पहले इस बात की चर्चा भी चली थी कि वे विधानसभा का चुनाव लड़ना नहीं चाहते हैं। स्वयं कमलनाथ ने इसके संकेत दिए थे। अब वे नेता प्रतिपक्ष की भूमिका में तो कतई नहीं रहना चाहेंगे। संभावना यह है कि वे लोकसभा का चुनाव लड़कर दिल्ली का रुख करें।

6. ओल्ड पेंशन स्कीम मुद्दे का क्या कोई असर नहीं रहा?
कांग्रेस ने ओल्ड पेंशन स्कीम (ओपीएस) को प्रमुख मुद्दा बनाया। नि:संदेह कर्मचारियों के लिए यह बड़ा मुद्दा है लेकिन सभी के लिए नहीं, सिर्फ उनके लिए जो इसके दायरे में नहीं आते हैं। ऐसे कर्मचारियों की संख्या लगभग पांच लाख होगी। एक परिवार में अधिकतम 4 वोटर भी माने तो यह संख्या करीब 20 लाख होती है, जो प्रदेश के कुल वोटर का 3.5 फीसदी ही है। यह संख्या ऐसी नहीं कि जो सरकार को हटा या बना सके।

भाजपा की चुनाव प्रचार की थीम 'एमपी के मन में मोदी, मोदी के मन में एमपी' रही।
भाजपा की चुनाव प्रचार की थीम ‘एमपी के मन में मोदी, मोदी के मन में एमपी’ रही।

7. प्रचंड बहुमत के बावजूद 31 में से 12 मंत्री हार क्यों गए?
इस बार शिवराज सरकार के 33 में से 31 मंत्री मैदान में उतरे। इनमें से 12 मंत्री हार गए हैं। यानी करीब 39 फीसदी को जनता ने नकार दिया। इनकी हार में खुद की छवि और लोकल फैक्टर ज्यादा प्रभावी रहे हैं। गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा कांग्रेस की घेराबंदी में ऐसे उलझे कि बाहर ही नहीं निकल पाए।

पहले यहां भाजपा से कांग्रेस में आए अवधेश नायक को टिकट दिया, फिर उनसे वापस लेकर राजेंद्र भारती को उतारा। दोनों ने मिलकर चुनाव लड़ा और ऐसी घेराबंदी कि नरोत्तम को हार का सामना करना पड़ा। 2018 में 27 मंत्री चुनाव में उतरे थे जिनमें से 13 हार गए थे, यानी 48% को लोगों ने पसंद नहीं किया।

8. इस जीत के बाद लोकसभा चुनाव की क्या तस्वीर दिखती है?
2018 के चुनाव में कांग्रेस ने 114 और भाजपा ने 109 सीटें जीती थीं लेकिन ओवरऑल वोट भाजपा को ज्यादा मिले थे। 2019 के लोकसभा चुनाव में 29 में से 28 सीटें भाजपा ने जीती। सिर्फ छिंदवाड़ा को छोड़कर कहीं भी कांग्रेस को सफलता नहीं मिली। 2018 के चुनाव में छिंदवाड़ा संसदीय क्षेत्र में आने वाली सभी 7 विधानसभा सीटों पर कांग्रेस जीती थीं। इस बार भी ऐसी ही स्थिति बन रही है। यदि लोकसभा में विधानसभा जैसा ही ट्रेंड रहा तो 2019 जैसी ही तस्वीर रहेगी।

9. जीत क्या यह संदेश है कि सरकार को लेकर एंटी इनकम्बेंसी नहीं थी?
सरकार के प्रति तो बिल्कुल नहीं। भाजपा के जो मंत्री या विधायक हार रहे हैं, उसकी वजह खुद के प्रति नाराजगी रही है। 98 विधायकों को पार्टी ने मैदान में उतारा था जिनमें 48 जीत चुके हैं और 27 आगे चल रहे हैं। यानी 76 फीसदी विधायकों पर जनता ने भरोसा जताया है। मंत्रियों के मामले में यह 61 फीसदी रहा। माना जा सकता है लोगों का गुस्सा 24 फीसदी विधायकों पर निकाल दिया है।

10. कांग्रेस इतनी बुरी तरह क्यों हारी?
सबसे पहले कांग्रेस उम्मीदवारों तय करने में पिछड़ी। कांग्रेस अगस्त में ही उम्मीदवारों की घोषणा करने की बात कह चुकी थी, लेकिन इसमें बाजी मारी भाजपा ने। चुनाव की घोषणा के 6 दिन बाद 15 अक्टूबर को पहली सूची जारी की, तब तक काफी देर हो चुकी थी। भले ही पार्टी ने सर्वे और फीडबैक के आधार पर प्रत्याशियों के चयन की बात कही, लेकिन 7 प्रत्याशी बदलकर पार्टी ने अपनी ही प्रक्रिया पर सवाल खड़े कर दिए। फिर बगावत के बवंडर को वह थाम नहीं पाई। बागियों के कारण पार्टी 7 सीटों का नुकसान हुआ है। 84 मौजूदा विधायकों टिकट दिया था जिनमें से 58 हार गए। यानी 66 फीसदी को जनता ने नकार दिया।

11. प्रदेश के सभी हिस्सों में क्या लोगों ने एक जैसा फैसला दिया?
ग्वालियर-चंबल और निमाड़ को छोड़कर बाकी सभी क्षेत्रों भाजपा के पक्ष में एकतरफा फैसला दिया है। मालवा की 38 में से 33 सीटों पर और भोपाल-नर्मदापुरम की 36 में से 31 सीटें भाजपा के खाते में गई।पिछली बार भाजपा को मालवा में नुकसान उठाना पड़ा था। 2018 में मालवा में पार्टी 19 सीटें ही हासिल कर पाई थी।

12. सिंधिया गुट का प्रदर्शन कैसा रहा? क्या प्रभाव कम हुआ, बढ़ा या पहले जैसा ही है?
सिंधिया गुट के 9 में से 8 मंत्री मैदान में थे। इनमें से तीन को हार का सामना करना पड़ रहा है। बदनावर में राजवर्धन सिंह दत्तीगांव हार गए। भाजपा से बगावत कर कांग्रेस में आए पूर्व विधायक भंवरसिंह शेखावत जीते। महेंद्र सिंह सिसौदिया और सुरेश धाकड़ को भी हार का सामना करना पड़ा है। मंत्रियों के मामले में सिंधिया गुट को नुकसान हुआ है।

13. दोनों पार्टियों में महिलाओं का प्रदर्शन कैसा रहा?
भाजपा में बेहतर रहा है। पार्टी ने 27 महिलाओं को टिकट दिया था, जिसमें से 15 जीत चुकी हैं और 6 आगे चल रही हैं। कांग्रेस की 29 में से 1 जीती और 3 आगे चल रही हैं।

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