राजनीति के ‘दूषित’ माहौल में वास्तविक अर्थ खोज रहे हैं शब्द ?
चर्चा: राजनीति के ‘दूषित’ माहौल में वास्तविक अर्थ खोज रहे हैं शब्द
आज के समय में, जब अपने राजनीतिक विश्वास के समर्थन में बातें कही जाती हैं, और जब सुनियोजित साजिश के तहत बातें उघाड़ी और छिपाई जाती हैं, तब ऑरवेल के सुनहरे दिनों में लौटना सुखद होगा, जिनका गद्य आज भी लेखन की कसौटी है। अपने एक बहुपठित लेख में, ऑरवेल ने बताया था कि राजनीति किस तरह शब्दों को दूषित करती है, वह लिखते हैं, ‘फासिज्म का अर्थ घटते-घटते अब सिर्फ एक ऐसा शब्द रह गया है, जिसका आशय है अवांछित । लोकतंत्र, समाजवाद, स्वतंत्रता, देशभक्ति, आदि ऐसे शब्द हैं, जिनके कई-कई अर्थ है, लेकिन इन शब्दों को एक दूसरे की जगह पर नहीं रखा जा सकता।
मैंने उनके लेख, पॉलिटिक्स ऐंड इंग्लिश लैंग्वेज से यह लंबा पैराग्राफ उद्धृत किया, क्योंकि उन्होंने फासिज्म के पतन और उदारवादी, लोकतांत्रिक विश्व व्यवस्था के उदय के दौरान वर्ष 1946 में जो कहा था, वह राजनीतिक वितंडावाद के मौजूदा दौर में भी गहरे तौर पर याद रखने लायक है। स्थिति यह है कि अपनी सच्चाई साबित करने के लिए आज शब्दों का नए सिरे से इस्तेमाल किया जाता है, और हमें ऐसा लगता है कि जो हम सुन रहे हैं, वह महज वास्तविकता नहीं, बल्कि हमारे अस्तित्व से जुड़ा विवाद है।
फासिज्म के उभार से संबंधित न सिर्फ बातें की जाती हैं, बल्कि यही हर दौर में विमर्श तय भी करता है। आज जब यूक्रेन इस शताब्दी की सबसे बड़ी दबंगई से जूझ रहा है, तब पुतिन और उनके समर्थक जेलेंस्की के पराक्रम को फासिज्म बताते हैं। इससे कोई मतलब नहीं कि इस संदर्भ में पुतिन के लिए फासिज्म शब्द ज्यादा उपयुक्त है, जिसका वास्तविक अर्थ है राष्ट्र की नियति पर ज्यादा जोर देना और इस प्रक्रिया में राष्ट्र को लगी चोट, उसका हुआ अपमान और राष्ट्र के गौरव की बात सुनियोजित ढंग से बार-बार उभारना। जब शब्द इतिहास की बाड़ेबंदी से बाहर निकलकर विभिन्न भूगोलों और विचारधाराओं में विचरण करते हैं, और फिर एक दूसरे समय की बाड़ेबंदी में रुककर गोला-बारूद की भूमिका निभाने लगते हैं, तब वे एक विवादास्पद वास्तविकता की बुनियाद बन जाते हैं। इन शब्दों से जो कहानियां बनती हैं, वे अच्छे और बुरे के बीच स्पष्ट विभाजक रेखा खींच राजनीति को नैतिक ड्रामा में बदल देती हैं।
ऑरवेल ने और जिन तीन शब्दों- लोकतंत्र, स्वतंत्रता और देशभक्ति-का जिक्र किया, उनका ही उदाहरण ले लीजिए। इन शब्दों की सुस्पष्ट परिभाषा के बिना पहचान और राष्ट्रीय नियति के बारे में आज कुछ कहा ही नहीं जा सकता। लोकतंत्र का अर्थ सिर्फ वह नहीं है, जिस बारे में एक देश में रहने वाले लोग बताते हैं कि यह शासन की सर्वोत्तम प्रणाली है। लोकतंत्र के समर्थन में उनके बोलने के बावजूद इसकी सीमाओं और इसकी विशेषताओं के बारे में बहुत कुछ अनकहा रह जाता है। जब एक अधिनायकवादी अपने लोगों पर शासन करने को लोकतंत्र कहता है, तब वह झूठ बोलता है। विडंबना यह है कि अधिनायकवादी हमेशा ही यह झूठ बोलते हैं।
ऑरवेल द्वारा उद्धृत किए एक दूसरे शब्द स्वतंत्रता को आज भी लगातार लोकतंत्र के अर्थ में इस्तेमाल किया जाता है। जिन्होंने स्वतंत्रता को संपूर्ण सत्य का दर्जा दिया हो, उस प्रगतिशील वर्ग की नैतिकता भी सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और नस्लीय मुद्दों पर समझौते करती रही है। ताजातरीन सामाजिक तकनीकों ने अतीत की खुदाई के जरिये वर्तमान के पुनर्निर्माण को आसान कर दिया है; और समाज के प्रति व्यापक गुस्से की अनुमति देकर वे स्वतंत्रता को सशर्त बना देती हैं। जो तुम्हारे लिए स्वतंत्रता है, वह मेरे लिए गुलामी है।
दूसरे शब्द भी इतनी ही ताकत से विमर्श को गति देते और उन्हें विभाजित करते हैं। मसलन, देशभक्ति उदारता का लक्षण नहीं है। और यह सवाल पूछना, कि देशभक्ति शब्द ही उदारवादियों को सतर्क क्यों कर देता है, वस्तुत: उन लोकतांत्रिक देशों के प्रश्नाकुल दिमागों को चुनौती देने जैसा है, जो तेजी से दक्षिणपंथी विचारधारा की ओर मुड़ रहे हैं। दक्षिणपंथी देशभक्ति को जितना जरूरी मानते हैं, उदारवादी उसका उतना ही विरोध करते हैं। प्रगतिशील राजनीति की सोच है कि राष्ट्रवाद की अत्यधिक खुराक वास्तविक आजादी को दबा देती है। क्या इसका मतलब यह है कि देशभक्ति को आधुनिकता-विरोधी मानकर खारिज करना राजनीति में तार्किकता को स्थान देना है? क्या इसका अर्थ यह है कि लोकप्रिय आवेग सांप्रदायिक होते हैं? यह ऐसा ही, जैसे प्रगतिशीलों की किताब में जो कुछ प्रतिबंधित है, दुनिया भर में फैले लोकतंत्रों में उसी को सबसे अधिक साझा किया जाता हो।
शब्द और उसके उतार-चढ़ाव ही राजनीति में विमर्श बनाने-बिगाड़ने का काम करते हैं। विमर्श रचने वालों की अगंभीरता के कारण उनके शब्द ऐतिहासिक संदर्भों और सांस्कृतिक अवरोधों को तोड़ते हैं, और चुनावी राजनीति को उस राष्ट्र का जनमत सर्वेक्षण बना डालते हैं। इसका नतीजा अच्छा भी होता है और बुरा भी। यह शब्द चुनने के आपके कौशल और उसका इच्छित अर्थ निकालने की आपकी क्षमता पर निर्भर करता है। आज वही विजयी है, जो आज के अनुरूप शब्द चुन सकता है।
(लेखक- वरिष्ठ पत्रकार, संपादक और लेखक। साहित्य, समाज और राजनीति पर गहरे लेखन के लिए सुपरिचित। फिलहाल ओपन के संपादक।)