क्या देश के युवाओं का फोकस गड़बड़ा रहा है?
क्या देश के युवाओं का फोकस गड़बड़ा रहा है?
1.41 अरब आबादी वाले भारत के 60% से अधिक लोग युवा हैं। लेकिन उनमें से एक वर्ग पेंडुलम के एक छोर पर है, जो सर्वश्रेष्ठ शिक्षण संस्थानों में प्रवेश पा रहा है तो दूसरे छोर पर वो हैं, जो वॉट्सएप पर मिलने वाली हर सूचना की जांच-परख या फैक्ट-चेक किए बिना उस पर विश्वास कर ले रहे हैं।
ऐसे युवाओं की संख्या घटती जा रही है, जो ठहरकर सोचते हैं और तर्क करते हैं। यह स्थिति तब है, जब संसार भर की बुद्धिमत्ता, तार्किकत, टेक्नोलॉजी को अपनाने की क्षमता आज युवाओं में है, जब दूर-दराज के इलाकों में भी ई-कॉमर्स की पहुंच हो चुकी है और मोबाइल से यूपीआई आधारित भुगतान-प्रणाली को व्यापक तौर पर अपना लिया गया है। इसके बावजूद ऐसा महसूस होता है कि युवाओं में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और स्थायी रोजगार के अपने अधिकारों की समझ क्षीण हो रही है।
युवाओं को इस बात से अवगत कराने की जरूरत है कि लोकतंत्र में उनकी भागीदारी सिर्फ वोट देने तक ही सीमित नहीं है। उन्हें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि सरकारें ऐसी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करने में अपनी भूमिका निभाएं, जो नई सोच और वैज्ञानिक तर्क-प्रणाली को बढ़ावा दें और अर्थव्यवस्था को रोजगार पैदा करने के लिए प्रेरित करें।
रोजगारों में वृद्धि होती है तो आमदनी बढ़ती है और उपभोक्ता की क्रय शक्ति में इजाफा होता है, जिससे मैन्युफैक्चरिंग और उपभोग के चक्र को गति मिलती है। कृषि प्रक्रियाओं, मार्केटिंग, प्रोसेसिंग और उत्पादकता को बढ़ाते हुए बेहतर कौशल और रोजगार-निर्माण के लिए टेक्नोलॉजी के प्रसार, समस्याएं सुलझाने वाला नजरिया लेकर एमएसएमई (लघु, कुटीर एवं मध्यम उपक्रमों) पर फोकस करने को नीति-निर्माण का केंद्र बनाना ऐसी बातें हैं, जिनसे समझौता नहीं किया जा सकता।
लेकिन सामाजिक व्यवधानों, उपद्रवों, गड़बड़ियों से उपरोक्त चीजों से फोकस हट जाता है और युवा अधिक हिंसक होते चले जाते हैं। अंधविश्वास को बढ़ावा देने पर भी यही होता है। ऐसे में युवा आबादी का जो लाभ (डेमोग्राफिक डिविडेंड) हमें हासिल हो सकता था, वह इसके उलट हमारे लिए बोझ (लायबिलिटी) बन जाता है।
जबकि हमारी राजनीति और नीति-निर्धारण हमारी युवा आबादी के जनसांख्यिकीय लाभ पर ही केंद्रित होने चाहिए। भारत को रोजगार-निर्माण और आपूर्ति शृंखला के लिए सक्षम बनाना होगा। सर्वोत्तम बुनियादी ढांचे, कृषि और मैन्युफैक्चरिंग की उत्पादकता, खेलों आदि पर ध्यान केंद्रित करने के लिए वर्षों के निवेश की आवश्यकता है।
यह रातोरात नहीं होता। दशकों का समय नष्ट नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसमें एक पूरी पीढ़ी का नुकसान होता है। वे अनुत्पादक बनते हैं तो समाज में असंतोष बढ़ता है। प्रत्येक नागरिक को स्वयं से ये प्रश्न पूछने चाहिए और सही लक्ष्यों के लिए मांग करनी चाहिए।
कक्षा 10 तक के स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षकों की भर्ती और अच्छी सुविधाओं पर खर्च करके उन्हें सार्वजनिक डोमेन में रखना होगा। पिछली दो पीढ़ियों तक यही स्थिति थी, जिसमें हमारे दादा-दादी, नाना-नानी और फिर हमारे माता-पिता ने सरकारी/प्रायोजित स्कूलों में पढ़ाई की थी और उन्हें इतनी अच्छी गुणवत्ता की शिक्षा मिली कि उसके बाद वे उच्च शिक्षा प्राप्त करने पर ध्यान केंद्रित कर पाए। लेकिन आज ऐसे स्कूलों की उपेक्षा की जाती है। हेल्थकेयर पर भी यही बात लागू होती है। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की तो दशकों से उपेक्षा की जा रही है।
सड़कों, इंटरनेट और वित्तीय समावेशन के माध्यम से अच्छी कनेक्टिविटी मुहैया कराने के साथ-साथ अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान करना भी सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारी है। मनरेगा मजदूरी देने वाला रोजगार है, लेकिन गुणवत्तापूर्ण और स्थायी रोजगार को गति देने के लिए अधिक से अधिक सक्रिय एमएसएमई की आवश्यकता है।
‘समग्र’ जैसे घरेलू डेटाबेस के माध्यम से शिक्षा, कौशल और रोजगार की निगरानी की जानी जरूरी है। युवाओं पर इस तरह से समग्र दृष्टिकोण लेकर काम करने से ही उनके दिमाग को फर्जी जानकारियों और अवैज्ञानिक मान्यताओं से मुक्त कराकर एक उपयोगी ‘एसेट’ बनाया जा सकेगा।
भारत में युवाओं को अपनी कमर कसनी होगी और राजनीतिक शोर-शराबे के बीच सच्चाई की खोज करने की क्षमता विकसित करनी होगी। वैज्ञानिक सोच विकसित करके ही वे व्यक्तिगत जीवन में भी आगे बढ़ सकते हैं और देश के लिए भी योगदान दे सकते हैं। वे अपनी युवावस्था के बहुमूल्य समय को उन्हें परोसी जाने वाली तमाम किस्म की सूचनाओं पर आंखें मूंदकर भरोसा करने में बरबाद नहीं कर सकते।
युवाओं को कमर कसनी होगी और राजनीतिक शोर-शराबे के बीच सच्चाई की खोज करने की क्षमता विकसित करनी होगी। वैज्ञानिक सोच विकसित करके ही वे जीवन में आगे बढ़ सकते हैं और देश के लिए भी योगदान दे सकते हैं।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)