बेअसर होती दवाएं एक नया संकट खड़ा कर सकती हैं
बेअसर होती दवाएं एक नया संकट खड़ा कर सकती हैं …
ऐसी ही एक चुनौती है एंटी-माइक्रोबियल रेजिस्टेंस (एएमआर) का उभरना या मौजूदा एंटीबायोटिक सहित अन्य दवाओं का निष्प्रभावी हो जाना। जिस गति से नए एंटीबायोटिक विकसित किए जा रहे हैं, उसकी तुलना में एएमआर की दर अधिक है।
बीसवीं सदी की शुरुआत में जब एंटीबायोटिक्स विकसित किए गए थे, तो कई लोगों ने रोगाणुओं के खिलाफ पूर्ण जीत में विश्वास करना शुरू कर दिया था। इसके बाद के दशकों में मनुष्यों और जानवरों और पेड़-पौधों के लिए एंटी-माइक्रोबियल के अंधाधुंध उपयोग के परिणामस्वरूप एएमआर की चुनौती उत्पन्न हुई।
जब हम किसी पर अत्यधिक दबाव डालते हैं- जैसे कि इस परिप्रेक्ष्य में एंटीबायोटिक दवाओं के अत्यधिक उपयोग से रोगाणुओं पर- तब हम उनके अस्तित्व को खतरे में डाल रहे होते हैं। जब बात सर्वाइवल की आती है तो स्वाभाविक ही कोई भी पैथोजन या रोगाणु इससे बचने के रास्ते विकसित करने का प्रयास करेगा। तब वह प्रतिरोध करने और जीवित बने रहने के लिए अपनी जीनोमिक संरचना में आवश्यक संशोधन कर लेगा।
इसके साथ ही, हमें यह भी याद रखना होगा कि माइक्रोब्स (वायरस, बैक्टीरिया और अन्य रोगाणु) लगभग तीन अरब वर्षों से पृथ्वी पर मौजूद हैं। वे मनुष्यों से बहुत पहले अस्तित्व में आ गए थे। और इस बात की बहुत अधिक संभावना है कि ये सूक्ष्मजीव आगामी कई अरब वर्षों तक पृथ्वी पर जीवित रहेंगे, जबकि मनुष्य उनसे पूर्व ही विलुप्त हो सकते हैं। इसलिए इन रोगाणुओं को खत्म करने या उनसे जीतने का विचार तर्कसंगत नहीं है। एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति रेजिस्टेंस का उद्भव गंभीर समस्याएं पैदा कर सकता है।
इस तरह के प्रतिरोध से होने वाले संक्रमण के गंभीर दुष्प्रभाव हो सकते हैं। साथ ही उसके साथ अधिक आक्रामक उपचार की आवश्यकता हो सकती है, जिससे रोगी की रिकवरी में समय लग सकता है। कई महत्वपूर्ण चिकित्सा प्रक्रियाएं- जैसे अंग प्रत्यारोपण और कैंसर चिकित्सा प्रभावी एंटीबायोटिक दवाओं पर निर्भर करती हैं।
यदि ये दवाएं अपनी प्रभावशीलता खो देती हैं तो इसके संगीन नतीजे हो सकते हैं। इनमें लाइलाज संक्रमण और सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए गम्भीर चुनौती शामिल हैं। एएमआर दुनिया में खतरनाक स्तर तक पहुंच गया है और एक मूक महामारी के रूप में सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए गम्भीर खतरा पैदा कर रहा है।
इसके लिए तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता है। डब्ल्यूएचओ द्वारा एएमआर को शीर्ष 10 वैश्विक स्वास्थ्य-खतरों में से एक के रूप में सूचीबद्ध किया गया है। यह मानव और पशु स्वास्थ्य, पर्यावरण, खाद्य सुरक्षा, आर्थिक विकास और सामाजिक समानता- सबके लिए जोखिम भरा है।
दुनिया भर में हर साल लगभग 49.5 लाख मौतें एएमआर से जुड़ी होती हैं। विश्व बैंक का अनुमान है कि 2050 तक एएमआर से हेल्थकेयर सम्बंधी खर्चों में एक ट्रिलियन डॉलर की अतिरिक्त वृद्धि हो सकती है। अप्रैल 2017 में भारत के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने एएमआर के लिए राष्ट्रीय कार्य योजना (एनएपी) जारी की, जिसका उद्देश्य इस बारे में जागरूकता बढ़ाना, निगरानी में सुधार, संक्रमण पर नियंत्रण को मजबूत करना, इससे सम्बंधित रिसर्च एंड डेवलपमेंट को बढ़ावा देना, इसके लिए निवेश को प्रोत्साहित करना और सहयोग को बढ़ावा देना है। एनएपी के आधार पर कई राज्यों ने अपनी स्वयं की कार्ययोजनाएं विकसित करना शुरू कर दी हैं।
लेकिन यह सब अभी तक नीतिगत और कार्यक्रम-स्तर पर ही है। यदि डॉक्टर के प्रिस्क्रिप्शन के बिना एंटीबायोटिक दवाएं नहीं बेचने की नीतियां बनी हुई हैं तो उन्हें प्रभावी रूप से लागू नहीं किया जा रहा है। दरअसल कई राज्यों में दवाइयों की दुकानें बिना प्रिस्क्रिप्शन के ही एंटीबायोटिक्स थमा देती हैं।
फिर लोग पुराने नुस्खे भी निकाल लेते हैं और डॉक्टरों की सलाह के बिना वही दवा खरीदना जारी रखते हैं। ये दोनों ही आदतें नुकसानदेह हैं। हर बीमारी एक जैसी नहीं होती और हर बीमारी में एंटीबायोटिक की जरूरत नहीं होती।
केरल ने एंटीबायोटिक दवाओं को डॉक्टर के नुस्खे के बिना बेचने पर सख्ती से रोक लगाई है। अन्य राज्यों को भी इसी तरह के कदम उठाने चाहिए। यह जागरूकता बढ़ाना भी जरूरत है कि एंटीबायोटिक का कोर्स पूरी अवधि तक ही लें।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)