समानता का मूल्य सबके लिए, फिर लिंग-तटस्थ फैसलों की इतनी कमी क्यों

समानता का मूल्य सबके लिए, फिर लिंग-तटस्थ फैसलों की इतनी कमी क्यों
लिंग तटस्थ कानून की मांग कुछ दशकों से उठ रही है, क्योंकि संविधान का मूल भाव बिना किसी लिंग भेद के समानता की प्रस्थापना करता है।

बीते दिनों इंदौर के परिवार न्यायालय ने एक पत्नी को भरण-पोषण के लिए हर महीने अपने पति को पांच हजार रुपये देने का आदेश दिया। अमूमन देश भर की अदालतों में पत्नी को गुजारा भत्ता देने के आदेश दृष्टिगोचर होते हैं। बेशक यह देश का ऐसा पहला मामला नहीं है, जहां वैवाहिक विवाद की स्थिति में एक पत्नी द्वारा पति को गुजारा भत्ता देने के आदेश दिए गए हों। लेकिन पिछले सात दशकों में ऐसेे ‘लिंग-तटस्थ’ निर्णयों को उंगलियों पर गिना जा सकता है।

सितंबर, 1988 में ‘ललित मोहन बनाम तृप्ता देवी’ के मामले में निर्णय देते हुए जम्मू एवं कश्मीर उच्च न्यायालय ने कहा था कि ‘चूंकि पति की कोई स्वतंत्र आय नहीं है और प्रतिवादी पत्नी हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 30 और 31 (मौजूदा हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 24 और 25) के अनुसार, पति को गुजारा भत्ता देने की स्थिति में है, अतः याचिकाकर्ता पति को सौ रुपये प्रति माह भरण-पोषण दिया जाए।’ उल्लेखनीय है कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 24 ‘लिंग तटस्थ’ है।

लिंग तटस्थ वह विचार है, जहां जैविक अंतर के कारण सामाजिक, सांस्कृतिक तथा वैधानिक स्तर पर  विभेद परिलक्षित न हो। लिंग-तटस्थ व्यवस्था, बिना किसी व्यवधान के सामाजिक गतिशीलता को बनाए रखने का आश्वासन भी है।

अगर हम भारतीय वैधानिक व्यवस्था को इस संदर्भ में देखें, तो हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 24 तथा 25 के प्रावधान लिंग तटस्थ हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय ने 31 मार्च, 2011 को ‘रानी सेठी बनाम सुनील सेठी’ मामले में कहा था कि ‘हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 24 का उद्देश्य ऐसे जीवनसाथी को सहायता प्रदान करना है, जिसके पास आय का कोई स्वतंत्र स्रोत नहीं है और वह अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है।’ दिल्ली उच्च न्यायालय ने इसी आधार पर पत्नी को, पति को बीस हजार रुपये देने का आदेश दिया था।

लिंग तटस्थ कानून की मांग विगत कुछ दशकों से उठ रही है और इसके पीछे स्पष्ट तर्क यह है कि जब संविधान का मूल भाव बिना किसी लिंग भेद के समानता की प्रस्थापना करना है, तो क्यों वैधानिक स्तर पर स्त्री विशेषाधिकार कानून हैं? इस तर्क को अयोग्य मानते हुए यह दलील दी जाती है कि चूंकि  महिलाएं पुरुष सत्तात्मक व्यवस्था में प्रताड़ित और पीड़ित रही हैं, इसलिए उनके संरक्षण और संवर्धन के लिए कानून का एकपक्षीय होना न्यायसंगत है। इसमें किंचित भी संदेह नहीं कि दुनिया भर में सहस्राब्दियों से महिलाएं हाशिये पर धकेल दी गई थीं और इसके विरोध में लैंगिक समानता का संघर्ष जन्मा। वैचारिक, सामाजिक तथा वैधानिक स्तर पर महिलाओं को सामान्य स्तर पर लाने की जद्दोजहद जैसे-जैसे आगे बढ़ती गई, वैसे-वैसे लैंगिक समानता का वास्तविक अर्थ अपना अस्तित्व खोता चला गया।

‘लैंगिक समानता’ को मात्र महिलाओं की समानता समझना उसके अर्थ को खंडित करता है। लैंगिक समानता का वास्तविक और संपूर्ण अर्थ बिना किसी लिंग भेद के समानता स्थापित करना है। महिलाओं का समानता का संघर्ष एक संवेदनशील सामाजिक व्यवस्था में अपेक्षित और अपरिहार्य भी है, परंतु यह कहना कि ‘विश्व के सभी पुरुष क्रूर, असंवेदनशील तथा रूढ़िवादी हैं’, दुर्भाग्यपूर्ण है।

बीते दशकों में शिक्षा, रोजगार तथा अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता ने महिलाओं को सशक्त बनाया है और वह आर्थिक स्वावलंबन की ओर बढ़ रही हैं। हालांकि वह अब भी स्वावलंबन का अपेक्षित स्तर अर्जित नहीं कर पाई हैं। परंतु यह मानना कि उनकी स्थिति दशकों पूर्व जैसी ही है, महिला सशक्तीकरण से संबंधित आंकड़ों से मेल नहीं खाता। दूसरी तरफ, 2017 में ‘द मेलबॉक्स : ए स्टडी ऑन बीइंग ए यंग मैन इन द यूएस, यूके ऐंड मेक्सिको’ अध्ययन पुरुष होने की पीड़ा को बखूबी बयान करता है। यह बताता है कि पुरुषों पर यह दबाव निरंतर बना रहता है कि वे अधिकाधिक धन अर्जित करें, जिससे उनका परिवार भौतिक संसाधनों को सहजता से प्राप्त कर सके। अगर किसी कारणवश वह अपेक्षानुरूप ऐसा नहीं कर पाते, तो उन्हें कमतर और नकारा माना जाता है। क्या यह आवश्यक नहीं कि लैंगिक समानता का वास्तविक अर्थ न केवल जाना जाए, बल्कि उसके प्रति सचेष्ट प्रयास किए जाएं?

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