मानव-वन्यजीव संघर्ष के जिम्मेदार पशु नहीं, जागरूकता और सामुदायिक सहभागिता की जरूरत

मानव-वन्यजीव संघर्ष के जिम्मेदार पशु नहीं, जागरूकता और सामुदायिक सहभागिता की जरूरत

मानव-वन्यजीव संघर्ष को केरल सरकार ने विशिष्ट आपदा घोषित कर दिया है। ऐसे संघर्ष से मनुष्य एवं वन्यजीव, दोनों को नुकसान होता है।

Human-wildlife conflict emerging as global crisis, need for awareness and community participation in India
सांकेतिक तस्वीर 

आज मानव-वन्यजीव संघर्ष केवल भारत ही नहीं, बल्कि वैश्विक समस्या के रूप में उभर रहा है। इस संघर्ष में मनुष्य तो मारे ही जा रहे हैं, वन्य जीवन का नुकसान भी कम नहीं हो रहा है। भारत में मानव-वन्यजीव संघर्ष कई रूपों में देखा जाता है, जिसमें शहरी क्षेत्रों में बंदरों का आतंक, ग्रामीण क्षेत्रों में जंगली सूअरों द्वारा फसल को नुकसान और बाघों, तेंदुओं और भालुओं जैसे हिसंक जीवों द्वारा मनुष्यों पर हमला शामिल है। मामला इतना गंभीर हो गया कि केरल सरकार को मानव-वन्यजीव संघर्ष को विशिष्ट आपदा घोषित कर बचाव के लिए मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में एक कमेटी बनानी पड़ी। अब केरल राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण मानव-पशु संघर्ष में सहायता करने लगा है, जबकि यह वन विभाग की जिम्मेदारी है।

केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार, देश में बाघों की संख्या 3,683 तक पहुंच गई। देश में तेंदुओं की आबादी  2018 से लेकर 2022 तक के चार वर्षों की अवधि में 1,022 (लगभग आठ प्रतिशत) बढ़कर 12,852 से 2022 में 13,874 हो गई है। वास्तविक संख्या थोड़ी अधिक हो सकती है, क्योंकि ये अनुमान तेंदुओं के 70 प्रतिशत निवास की ही सैंपलिंग के आधार पर है।

मानव आबादी को सर्वाधिक खतरा तेंदुओं से ही उत्पन्न होता है। उत्तराखंड की राजधानी के कुछ इलाकों में लोगों को रात में घरों से न निकलने की सलाह प्रशासन द्वारा दी गई है। मुख्यमंत्री को राज्य में गुलदारों के बढ़ते हमलों को देखते हुए वन विभाग के कर्मचारियों की छुट्टियों पर रोक लगानी पड़ी। उत्तराखंड में हर साल मानव-पशु संघर्ष बढ़ रहा है। राज्य गठन के वर्ष 2000 से लेकर 2022 तक, कुल 1,054 लोग वन्यजीवों के हमलों का शिकार हुए और 5,112 व्यक्ति ऐसे हमलों में घायल हुए।

उत्तराखंड में गुलदारों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है और मानव जीवन को सर्वाधिक खतरा इन्हीं गुलदारों से है। इस संकट के लिए बेजुबान वन्यजीवों को अकेले दोषी ठहराना न तो न्यायसंगत है और न ही इससे कोई हल निकल सकता है। देखा जाए, तो मनुष्य ही इस संघर्ष के लिए ज्यादा जिम्मेदार है। मानव आबादी बढ़ते जाने से उसका विस्तार वन्यजीव आवासों की ओर हो रहा है। यह स्थिति वन्यजीवों को मानव बहुल क्षेत्रों में भोजन और आश्रय खोजने के लिए मजबूर करती है, जिससे संघर्ष की संभावना बढ़ जाती है।

इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन पारिस्थितिक तंत्र को बदल रहा है और वन्यजीवों के व्यवहार, वितरण और भोजन की उपलब्धता को भी प्रभावित कर रहा है। इससे जानवरों की गतिविधियों और सीमाओं में परिवर्तन हो रहा है। अवैध शिकार और वन्यजीव व्यापार जैसी अवैध गतिविधियां वन्यजीव आबादी को कम कर सकती हैं, जिससे संसाधनों के लिए प्रतिस्पर्धा बढ़ सकती है और मनुष्यों के साथ संघर्ष हो सकता है। जो समुदाय अपनी आजीविका के लिए प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर हैं, उन्हें वन्यजीवों के साथ संघर्ष का सामना करना पड़ता है। कुछ मामलों में, वन्यजीव व्यवहार के बारे में जागरूकता की कमी और अपर्याप्त शमन उपाय संघर्षों में योगदान कर सकते हैं। संघर्षों को कम करने के लिए शिक्षा और सामुदायिक सहभागिता आवश्यक है।

मानव-वन्यजीव संघर्ष को संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन ऑन बायोलॉजिकल डाइवर्सिटी के 2020 के बाद के वैश्विक जैव विविधता ढांचे में एक वैश्विक चिंता के रूप में मान्यता दी गई है। विशेषज्ञों द्वारा ऐसे कई दृष्टिकोण और उपाय सुझाए गए हैं, जो क्षति या प्रभाव को कम करने, तनाव घटाने, आय और गरीबी के जोखिमों को दूर करने और स्थायी समाधान विकसित करने के लिए अपनाए जा सकते हैं। इन सुझावों में वन्यजीवों को बस्तियों में आने से रोकने के लिए बाधाएं (बाड़, जाल, खाइयां), रखवाली और पूर्व-चेतावनी प्रणालियां, निवारक और विकर्षक (सायरन, रोशनी, मधुमक्खी के छत्ते), स्थानांतरण (वन्यजीवों को स्थानांतरित करना), मुआवजा या बीमा, जोखिम कम करने वाले विकल्प प्रदान करना, साथ ही प्रबंधन भी शामिल हैं। स्वस्थ पारिस्थितिकी तंत्र और लोगों को प्रदान की जाने वाली महत्वपूर्ण सेवाएं वन्य जीवन पर निर्भर करती हैं। इसलिए मानव-वन्यजीव संघर्षों का प्रबंधन संयुक्त राष्ट्र के जैव विविधता विजन-2050 को प्राप्त करने के लिए महत्वपूर्ण है, जिसमें ‘मानवता प्रकृति के साथ सद्भाव में रहती है और जिसमें वन्यजीव और अन्य जीवित प्रजातियां संरक्षित हैं।

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