क्या बच्चे चुनावी मुद्दा बनेंगे ?

क्या बच्चे चुनावी मुद्दा बनेंगे, जनसांख्यिकीय लाभांश के लिए युवा आबादी का कुशल होना जरूरी

युवा आबादी ही कथित जनसांख्यिकीय लाभांश ला सकती है। यह तभी साकार होगा, जब भारतीय बच्चे बड़े होकर शिक्षित, कुशल और स्वस्थ बनेंगे। इससे वे अनिश्चित और निर्मम प्रतिस्पर्धी दुनिया से निपटने के लिए अधिक सक्षम और तैयार होंगे। चुनाव से पहले आम नागरिकों को इन मुद्दों को उठाना चाहिए

लेकिन इस बीच हमें खुद से भी कुछ सवाल पूछने होंगे। एक आम नागरिक के रूप में थोड़ा ठहरकर हमें एक मूलभूत सवाल पूछना चाहिए कि हम किस पर उम्मीद कर सकते हैं। एक आम भारतीय नागरिक और अभिभावक होने के नाते मेरा जवाब होगा कि जो बच्चों का बेहतर भविष्य सुनिश्चित करे। मैं बिल्कुल सामान्य बच्चों की बात कर रही हूं, जिनके माता-पिता के पास न तो ज्यादा पैसा है और न ही प्रभावशाली लोगों से संपर्क।  यह क्यों प्रासंगिक है? इसका संक्षिप्त जवाब यह है कि बच्चों पर ध्यान दिए बिना भारत के सपनों और आकांक्षाओं को जल्द पूरा करना संभव नहीं है। अमीरों के बच्चे तो हमेशा अपना रास्ता ढूंढ लेते हैं और वे ऐसा ही करेंगे, चाहे सत्ता में कोई भी आए। उनके पास कई देशों में अनेक विकल्प मौजूद हैं। मेरी चिंता उन बाकी बच्चों के प्रति है, जिनके पास अपने सपने पूरे करने के लिए संसाधनों का अभाव है। भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन और पेंसिल्वेनिया स्टेट यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के शिक्षक रोहित लांबा ने हाल ही में आई अपनी पुस्तक ब्रेकिंग द मोल्ड रीइमेजिनिंग इंडियाज इकनॉमिक फ्यूचर में लिखा है कि अपने प्रभावशाली आर्थिक विकास के बावजूद भारत को बचपन की चुनौतियों से जूझना पड़ रहा है। हालांकि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप इन लेखकों के बारे में क्या सोचते हैं। आप उनके वैश्विक दृष्टिकोण से भी असहमत हो सकते हैं, लेकिन भारत के भविष्य को लेकर उन्होंने जो प्रासंगिक बातें कही हैं, वे महत्वपूर्ण हैं।

राजन और लांबा ने ‘द चाइल्डहुड चैलेंज’ शीर्षक वाले अध्याय में लिखा है कि भारत की चुनौतियां मां और शिशु के पोषण के साथ प्रारंभ में ही शुरू हो जाती हैं। हमारे देश में कई बच्चे कम वजन के पैदा होते हैं और अपने जीवन के शुरुआती वर्षों में कुपोषित बने रहते हैं। प्राथमिक स्कूलों में बच्चों के नामांकन की समस्या काफी हद तक दूर हो चुकी है, लेकिन सीखने के मामले में उनकी स्थिति बेहद खराब है। खराब प्रारंभिक स्वास्थ्य और सीखने की स्थिति का संयोजन हमारे बच्चों के संज्ञानात्मक और शारीरिक विकास को बाधित करता है। यह सीमित करता है कि वे अपने बाद के जीवन में कितना हासिल कर पाते हैं। इन लेखकों का कहना है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मानक से दो पायदान नीचे के बच्चे को बौना माना जाता है, जो अपनी उम्र की तुलना में छोटे कद के होते हैं। वर्ष 2020 में तीन दशकों के मजबूत आर्थिक विकास के बावजूद पांच साल से कम उम्र के हमारे 35 प्रतिशत बच्चे नाटे कद के थे।    

एक भारतीय होने के नाते जेहन में यह सवाल कौंधता है कि कुछ पड़ोसी और तंजानिया, लाइबेरिया व सेनेगल जैसे उप-सहारा क्षेत्र के गरीब अफ्रीकी देश कैसे हमसे बेहतर कर रहे हैं। लेखक बताते हैं कि भारत में कई प्रभावशाली नीति विशेषज्ञ तर्क देते हैं कि आनुवंशिकी भारतीय बच्चों को एक अलग वृद्धि देती है यानी उम्र के हिसाब से ऊंचाई का एक अलग पैटर्न है। लेकिन राजन और लांबा हैरान करने वाले तथ्य की ओर इशारा करते हैं। उनका कहना है कि श्रीलंका के लोगों के जीन तो संभवत: समान हैं, फिर भी उनके नाटेपन का स्तर भारतीयों की तुलना में कम है।

वहीं, अध्ययनों में पाया गया है कि अमेरिका और ब्रिटेन में रहने वाले दक्षिण एशियाई बच्चे एक पीढ़ी के अंदर ही अपने साथियों की औसत ऊंचाई तक पहुंच जाते हैं। इसलिए लेखकों का मानना है कि आनुवंशिकी की बात पूरी तरह सही नहीं है। उनका कहना है कि हमें वास्तव में इस बात की समीक्षा करने की जरूरत है कि विभिन्न सामाजिक और आर्थिक समूहों में गर्भवती महिलाएं और बच्चे क्या खा रहे हैं? निर्विवाद तथ्य है कि बचपन में निरंतर कुपोषण के चलते वयस्क व्यक्ति की बौद्धिक और कार्यक्षमता का स्तर कम हो सकता है। साथ ही बीमारियों और हृदय रोग का खतरा रहता है।

निश्चित रूप से भारत में अति निर्धनता घटी है। हाल के वर्षों में मोदी सरकार द्वारा 80 करोड़ लोगों को निःशुल्क खाद्यान्न उपलब्ध कराने की योजना ने देश में भुखमरी को रोक दिया है। इसके बावजूद कुपोषित बच्चों की इतनी बड़ी संख्या का क्या कारण हो सकता है? इसका कारण गर्भवती व स्तनपान कराने वाली महिलाओं और शिशुओं के खाने के पैटर्न और उनकी आदतों पर पर्याप्त ध्यान नहीं देना है। भारत में काफी संख्या में बच्चे और महिलाएं खून की कमी से ग्रस्त हैं। इसमें मध्यम वर्ग के लोग भी शामिल हैं। इसलिए हमें वोट मांगने आने वाले राजनीतिक दलों से इन मुद्दों पर बात करनी चाहिए।

वर्ष 2023 में आई ‘द एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (एएसईआर)’ के आंकड़ों से  शैक्षिक गुणवत्ता की वास्तविकता सामने आती है। यह रिपोर्ट ग्रामीण भारत पर केंद्रित है। 14 से 18 वर्ष की आयुवर्ग के आधे से ज्यादा बच्चों को तीन अंकों की संख्या को एक अंक से विभाजित करने में कठिनाई आ रही थी। इस आयु वर्ग के 43.3 फीसदी बच्चे ही ठीक से सवाल हल कर पाए। यह कौशल आमतौर पर तीसरी और चौथी कक्षा में अपेक्षित होता है। आधे से कुछ ज्यादा (57.3 फीसदी) बच्चे ही अंग्रेजी के वाक्य पढ़ सकते हैं।

यह तस्वीर राष्ट्रीय स्तर पर है। राज्यों और जिलों के बीच भारी असमानताएं दिखती हैं। कई लोग तर्क देते हैं कि ये सामान्य और गैर-राजनीतिक मुद्दे हैं। लेकिन भारतीय बच्चों के भविष्य और जनसांख्यिकीय लाभांश से ज्यादा महत्वपूर्ण और क्या हो सकता है? युवा आबादी ही कथित जनसांख्यिकीय लाभांश ला सकती है। यह तभी साकार होगा, जब भारतीय बच्चे बड़े होकर शिक्षित, कुशल और स्वस्थ बनेंगे। इससे वे अनिश्चित और निर्मम प्रतिस्पर्धी दुनिया से निपटने के लिए तैयार होंगे। चुनाव से पहले आम नागरिकों को इन मुद्दों को उठाना चाहिए। वोट मांगने वालों को भी इसे सुनना चाहिए और बताना चाहिए कि उनकी क्या कार्य योजना है और उसकी समय सीमा क्या होगी।

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