दिल्ली कैसे बनी देश की राजधानी ?
1857 के विद्रोह के बाद तबाह हो गई थी दिल्ली, फिर दोबारा कब और कैसे बसा शहर, पढ़िए पूरी कहानी
कभी मुशायरों और शायरों के लिए मशहूर थी दिल्ली . 1857 के विद्रोह के बाद यहां लाशों का ढेर लग गया था. शहर में सरेआम कत्लेआम, आगजनी हुई और कई इमारतें ढहा दी गईं. फिर दोबारा इसे बसाने में कई दशक लगे.
दिल्ली कैसे बनी देश की राजधानी …
दिल्ली का इतिहास महाभारत जितना पुराना है. उस वक्त इस शहर को इंद्रप्रस्थ के नाम से जाना जाता था. पांडव यहीं रहते थे. धीरे-धीरे इंद्रप्रस्थ के आसपास आठ और शहर बस गए: लाल कोट, सिरी, दीनपनाह, किला राय पिथौरा, फिरोज़ाबाद, जहांपनाह, तुगलकाबाद और शाहजहांनाबाद.
इसके बाद ये शहर कई राजाओं और राजवंशों के अधीन रहे. पहले मौर्य, पल्लव, मध्य भारत के गुप्त, फिर 13वीं से 15वीं सदी के दौरान तुर्क, अफगान और आखिर में 16वीं सदी में मुगल साम्राज्य के अधीन रहे. 18वीं सदी के आखिरी और 19वीं सदी के शुरुआती दौर में दिल्ली पर अंग्रेजों का राज हो गया था.
मगर 1857 में दिल्ली में ऐसा विद्रोह छिड़ गया था कि शहर पूरी तरह से तबाह हो गया. इसे दोबारा बसाने में 55 साल से ज्यादा समय लग गया. आखिर 1857 में ऐसा क्या हुआ था कि पूरी दिल्ली तबाह हो गई थी, फिर दिल्ली दोबारा कैसे बसाई गई. आज यहां विस्तार से सरल भाषा में जान लीजिए.
अग्रेंजों के खिलाफ पहला विद्रोह
1857 में ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत पर शासन करते हुए 100 साल से ज्यादा हो गए थे. मई 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ ऐसी बगावत हो गई थी कि उनका अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया. इस बगावत का श्रेय मंगल पांडे को जाता है जिन्हें 29 मार्च 1857 को अंग्रेजों ने अपने अफसरों पर हमला करने के आरोप में फांसी पर लटका दिया गया था.
मंगल पांडे को फांसी दिए जाने के कुछ दिनों बाद मेरठ में तैनात भारतीय सिपाहियों ने नए कारतूस इस्तेमाल करने से इनकार कर दिया. उनका मानना था कि ये कारतूस गाय और सूअर की चर्बी से बनाए गए हैं. इस कारण 85 सिपाहियों को अंग्रेजों ने 10-10 साल की सजा सुनाई थी. ये 9 मई 1857 की बात है.
इसके बाद मेरठ में बाकी सिपाहियों के बीच हड़कंप मच गया था. भारतीय सिपाहियों ने अंग्रेजों के खिलाफ युद्द का एलान कर दिया. कई अंग्रेजी अफसरों को मार गिराया, उनके हथियार अपने कब्जे ले लिए और उनके घर व संपत्तियों को आग के हवाले कर दिया था. सिपाहियों ने अंग्रेजों को देश से बाहर निकालने की ठान ली.
भारतीय सिपाहियों के सामने एक सवाल था कि अगर अंग्रेज चले गए तो देश कौन चलाएगा. उन्होंने इसका भी जवाब ढूंढ लिया था. सिपाहियों ने मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर को देश की सौंपना का मन बना लिया था.
मेरठ से दिल्ली पहुंची बगावत की आग
10 मई 1857 की रात मेरठ से सिपाहियों की एक टुकड़ी घोड़ों पर सवार होकर दिल्ली पहुंच गई. इसके बाद दिल्ली में भी भारतीय सिपाहियों ने अंग्रेजों के खिलाफ जंग छेड़ दी और हमला बोल दिया. विजही सिपाहियों ने लाल किले का घेराब कर लिया और मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर को अपना नेता घोषित कर दिया. बादशाह पहले तो तैयार नहीं थे, मगर आखिरकार सिपाहियों की बात माननी पड़ी. अंग्रेजों से पहले मुगलों का ही दिल्ली पर शासन था.
बहादुर शाह के समर्थन के बाद तस्वीर एकदम बदल गई. एक के बाद एक सभी रेजिमेंट में सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया. कुछ ही दिनों में अंग्रेजों को शहर छोड़कर भागना पड़ा. दिल्ली पर फिर मुगल राज हो गया.
अंग्रेजों ने नहीं मानीं हार, पूरी ताकत से फिर किया पलटवार
हालांकि अंग्रेजों ने हार नहीं मानीं. उन्होंने अपनी पूरी ताकत लगातकर इस विद्रोह को कुचलने का फैसला कर लिया. अंग्रेजों ने इंग्लैंड से अपने सैकड़ों फौजियों को बुलाया, विद्रोह करने वालों के खिलाफ नए कानून बनाए और विद्रोहियों के कब्जे वाली जगह पर हमला बोल दिया. पांच महीने के भीतर बाजी पूरी पलट गई. 20-21 सितंबर 1857 को दिल्ली पर फिर अंग्रेजों का कब्जा हो गया. हालांकि इसके बाद भी अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह जारी रहा.
अंग्रेजों ने अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर को आजीवन कारावास की सजा सुनाई और उनके बेटों को उनकी आंखों के सामने ही गोली मार दी गई. बाकी विद्रोह करने वाले सिपाहियों के खिलाफ भी सख्त एक्शन लिया गया. इस विद्रोह के बाद दिल्ली पूरी तरह से तबाह हो गई थी. दिल्ली लाशों से पटा हुआ शहर बन गया था.
विद्रोह के बाद यहां लाशों का ढेर
दिल्ली पर फिर कब्जा करने के बाद अंग्रेजी सैनिकों को बेरहम गुस्सा आ गया. करीब एक महीने तक उन्होंने बूढ़े, जवान, बच्चे, औरतें, बीमार, घायल सभी को तलवार से मार डाला या गोली से उड़ा दिया. शहर के लोगों को आदेश दिया गया कि वो दिल्ली छोड़कर चले जाएं. कुछ लोग बिना किसी परेशानी के निकल पाए, मगर सभी इतने भाग्यशाली नहीं थे. अंग्रेजों को जिस पर भी शक होता, उसे गोली मार दी जाती या फांसी पर लटका दिया जाता.
24 सितंबर 1857 की सुबह दिल्ली की सड़कों से गुजरते हुए फील्ड मार्शल लॉर्ड रॉबर्ट्स ने अंग्रेजी सेना के कत्लेआम का भयानक दृश्य देख हिल गए थे. लॉर्ड रॉबर्ट्स ने इस दृश्य के बारे में एक किताब में लिखा है, “हमने जो दृश्य देखे वो बहुत ही भयानक थे. कहीं एक कुत्ता खुले में पड़े किसी के हाथ-पैर कुतर रहा था, वहीं दूसरी तरफ एक गिद्ध हमें आता देख अपना भोजन छोड़कर दूर भागने की कोशिश कर रहा था, मगर वो इतना भरपेट खा चुका था कि उड़ नहीं पा रहा था. कई जगहों पर लाशों की हालत बिल्कुल जिंदा इंसानों जैसी थी. कुछ लाशें अपने हाथों को ऊपर उठाए पड़ी थीं, मानो किसी को बुला रही हों. वाकई में पूरा दृश्य बेहद डरावना था, शब्द कम है.”
फिर दोबारा कैसे बसाया गया दिल्ली
इसके बाद दिल्ली साल 1911 में उबर पाया, जब ब्रिटिश साम्राज्य के सम्राट जॉर्ज पंचम ने भारत की राजधानी को कलकत्ता से बदलकर दिल्ली बनाने की घोषणा की. दिल्ली को राजधानी बनाने की घोषणा के बाद शानदार तरीके से एक नए शहर को बनाने की तैयारियां शुरू हुईं. दिल्ली फिर से सभी सरकारी कामों का केंद्र बन गया. इस तरह एक खास शहर नई दिल्ली का जन्म हुआ. नई दिल्ली का ज्यादातर हिस्सा 1920 से 1930 के दशक के बीच बनाया गया था.
रायसीना की पहाड़ियों के आसपास के इलाके में बने इस नए शहर में राष्ट्रपति भवन (वायसराय हाउस), सचिवालय और एक कौंसिल चैंबर शामिल था जो बाद में भारत की संसद भी रहा. साथ ही 42 मीटर ऊंचा इंडिया गेट, कनॉट प्लेस, पार्क, नई सड़कें और अन्य इमारतें भी बनाई गईं. 1947 में आजादी के बाद नई दिल्ली को आधिकारिक तौर पर भारत की राजधानी घोषित किया गया.
1956 में इसे केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया. देश के उत्तरी भाग में स्थित दिल्ली चारों तरफ हरियाणा से घिरा हुआ है, सिवाय पूर्व के जहां इसकी सीमा उत्तर प्रदेश से लगती है. धीरे-धीरे दिल्ली उत्तरी भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक केंद्र है. 1991 में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र अधिनियम के लागू होने के बाद दिल्ली के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया, क्योंकि इसे विधानसभा मिल गई थी.
राजधानी दिल्ली में क्या है खास
आजादी के बाद दिल्ली नए देश की राजधानी बन गई. आजादी के बाद, दिल्ली का महत्व कई गुना बढ़ गया है और अब यह देश की राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक राजधानी बन गई है. दिल्ली के प्राचीन इतिहास का प्रमाण कुछ पुरानी इमारतों के अवशेषों में मिलते हैं. जैसे कुतुब मीनार, तुगलकाबाद, हुमायूं का मकबरा, निज़ामुद्दीन की दरगाह, शेरशाह का किला (पुराना किला), लाल किला और जामा मस्जिद. इसके अलावा कोटला फिरोज शाह, सफदरजंग का मकबरा, हौज खास और लोदी मकबरा भी खास है.
दिल्ली का शासक बदलता रहा, लेकिन दिल्ली हमेशा बनी रही. ऐसा ही कुछ पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, “दिल्ली के पत्थर भी हमारे कानों में बीते हुए जमाने की कहानियां सुनाते हैं. यहां की हवा में अतीत की धूल और खुशबू है. साथ ही वर्तमान की ताजी हवा भी शामिल है. हजारों सालों का इतिहास हर कदम पर हमारे आसपास है और अनगिनत पीढ़ियों का इतिहास हमारी आंखों के सामने से गुजरता है.”