कूड़े के ढेर में बदलती पृथ्वी ?
‘इस्तेमाल करो और फेंको’ की प्रवृत्ति, कूड़े के ढेर में बदलती पृथ्वी
मौजूदा दौर उपभोक्तवाद का है, जहाँ आप हम और सभी बेतहाशा और बेतरतीब तरीके से दैनिक उपयोग का सामान इस्तेमाल करते जा रहे हैं, टी-शर्ट से लेकर टूथब्रश तक, जिसमें अधिकांश बहुत कम समय उपयोग में लाये जाने के बाद सीधे कूड़ेदान में जा गिरते हैं. समय के साथ उपभोग करने की प्रवृति इस कदर हावी हुई कि हमारे दैनिक उपयोग की वस्तुओं में अच्छा खासा हिस्सा ‘एक बार इस्तेमाल किये जाने वाली’ वस्तुओं का होता है, जिसका हिस्सा समय के साथ-साथ बढ़ता जा रहा है. उपभोग करने की प्रवृति के पीछे की मानसिकता कहती है कि हम जितना ज्यादा सामान का उपभोग करेंगे या जो हमारे अधिकार में होगा, हम उतना ही सुखी रहेंगे यानी आधुनिकता के दौर में अधिक से अधिक वस्तु या प्रकार की वस्तु का उपभोग सुख और समृध्दि और अच्छे जीवन स्तर का द्योतक है.
आर्थिक उदारवाद और उपभोग
भारत में उपयोग करने की प्रवृति में क्रांतिकारी रूप से बदलाव का श्रेय 90 के दशक आये आर्थिक उदारवाद को जाता है, जिसका असर न सिर्फ बाज़ार पर पड़ा बल्कि शहरीकरण के माध्यम से मध्यवर्ग के आर्थिक और सामाजिक ढांचे और प्रवृति पर भी पड़ा. पिछले तीन दशक में बाज़ार ने उत्पादन और उपभोग को धीरे-धीरे अपने नियंत्रण में ले लिया जिसका नतीजा हुआ कि हमारी जरूरतें हम खुद निर्धारित नहीं कर रहे हैं, बल्कि उनको बाज़ार निर्धारित करने लगा है. इस प्रकार हम में से हर एक आदमी वस्तु के उपभोग की इकाई बनाते चले गए, जिसका सबसे ज्यादा फायदा बाज़ार को हुआ, तेजी से बढ़ते सकल घरेलू उत्पाद के रूप में आर्थिक प्रगति के नए प्रतिमान बने, तभी तो हम आज विश्व की पांचवी बड़ी अर्थव्यवस्था हैं और निकट भविष्य में हम चौथी और फिर तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की राह में है.
इसमें कोई शक नहीं है कि आर्थिक उदारवाद ने कई सारे जटिल और जड़ आर्थिक और सामाजिक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया जिसमें गरीबी, संसाधनों के असमान वितरण, सर्व-सुलभ शिक्षा, मंथर गति की आर्थिक विकास आदि प्रमुख है, पर गुजरते समय के साथ कई बड़े स्तर की समस्याएं भी ले कर आया. इन्हीं नकारात्मक प्रभावों में उपभोक्तावाद प्रमुख है और हर एक आदमी अब मात्र एक उपभोग करने की इकाई बनकर रह गया है.
इस्तेमाल करो और फेंको की संस्कृति इसी उपभोक्तावाद की उपज है जिसका व्यापक प्रभाव प्रकृति के अंधाधुन्ध दोहन और व्यापक प्रदूषण के रूप में आज हमारे सामने है. इसको लिखने के तरीको में आये बदलाव से बखूबी समझा जा सकता है. आर्थिक उदारवाद के पहले के समय की शिक्षा को याद करें तो लिखने का आधार निब वाला पेन था, जिसमें बार-बार स्याही भर के वर्षो तक इस्तेमाल में लाया जाता था. तभी बाल पॉइंट पेन ने दस्तक दी जिसमें सूखी स्याही वाले रिफिल का चलन था, यानी इस्तेमाल के बाद रिफिल फ़ेंक के बिना पेन बदले नया रिफिल काम में आने लगा.कुछ दिनों बाद ही एक नए पेन ने दस्तक दी ‘’लिखो-फेंको’,शायद इस्तेमाल करो और फेंको से भारतीय समाज का पहला सामना था.
हम सभी बन गए एक इकाई मात्र
आज स्थिति यह है कि शायद ही कोई रिफिल खरीदता है (एक आंकड़े के मुताबिक मात्र 10%). अब सब पेन खरीदते हैं, क्योंकि रिफिल और नए पेन का दाम लगभग सामान ही हो चुका है और इस्तेमाल के बाद फेंक देते हैं. एक अध्ययन के मुताबिक केवल अमेरिकन साल भर में 1.6 बिलियन पेन रिफिल करने के वजाय फेक देते हैं, वहीं वैश्विक स्तर पर यह आँकड़ा दो बिलियन से कहीं अधिक बैठता है, और नतीजा हजारों लाखों टन प्लास्टिक लैंडफिल, मिट्टी, नदी और समुद्र को जा मिलते हैं. जब बाज़ार और उपभोक्तावाद ने कुछ ही दशक ने लिखने जैसे बौद्धिक प्रवृति को इस कदर प्रभावित किया है तो इसके प्रभाव को बाकी दिनचर्या के वस्तुओं पर अंदाज़ा लगाना भी भयावह है, जिसमें कपड़ा एक प्रमुख संसाधन है जिस पर इस्तेमाल करो और फेकों का प्रभाव सबसे ज्यादा हुआ है. फैशन प्रकृति के दोहन का नया उपादान बन के सामने आया है, तभी तो वैश्विक स्तर पर यानी आठ अरब जनसंख्या के लिए सालाना 100 अरब कपडे़ बनाये और इस्तेमाल किये जा रहे हैं. यानी प्रति व्यक्ति 12 अलग-अलग कपडे़, और यह तब है जब अधिकांश जनसंख्या बड़ी मुश्किल से अपना जीवन यापन चला पा रही है.
100 अरब कपडे़ यानी वजन के हिसाब से लगभग 9 करोड़ टन कपड़ा सालाना कूड़ेदान में फ़ेंक दिए जा रहे हैं. चूँकि कपड़ा बनाने में ढेर सारा पानी और उर्जा की खपत होती है, इस लिहाज से वैश्विक उष्मन का लगभग 10% भार हमारे आलग-अलग मैचिंग कपडे़ पहनने और और दिखने की प्रवृति को जाता है. अगर मूर्खतापूर्ण फैशन सेन्स की प्रवृति इसी तरह जारी रही तो 2030 के अंत तक हम 13 करोड़ टन मुश्किल से इस्तेमाल किये गए कपड़ो से लैंडफिल भर रहे होंगे.
किफायत अब अनसुनी बात
आखिर आर्थिक उदारवाद ने ऐसा क्या किया कि सैकड़ों साल में विकसित हमारे किफायती तरीके से सामान के इस्तेमाल करने की संस्कृति अचानक से पटाक्षेप में चली गयी और उसके बदले हम अंध उपभोक्ता बन के रह गए. हम वैसे ही प्रकृति का अन्धाधुन्ध दोहन कर रहे हैं जैसे रेशम का कीड़ा शहतूत के पत्तो को अंधाधुंध खा कर पेड़ के पेड़ सफाचट कर जाता है. रोजमर्रा के इस्तेमाल के सामान के मरम्मत की समृद्ध संस्कृति पूर्व आर्थिक उदारवाद के दौर की पहचान रही है, जो किसी भी सामान का अधिकतम और किफायती उपयोग सुनिश्चित करते थे. पैर के चप्पल, जूतों से लेकर, कपड़ों, बर्तन, रेडियो, टीवी, घड़ी, छाता, कृषि के सामान यहां तक कि निब वाले पेन तक में छोटी-मोटी खराबी की मरम्मत करने वाली अर्थव्यवस्था में हिस्सेदार हुआ करते थे. मेरे बचपन की स्मृति में आज भी मोतिहारी शहर का ‘पेन हास्पिटल औए बेतिया का ‘कासिम रफूगर’ है, उन जैसे अनेक मरम्मत की अर्च्यव्यवस्था अब नेपथ्य का हिस्सा हो गए है. अब की पीढ़ी कपडे़ में खरोंच लगने पर उसे रफ्फू कराने के बारे में शायद ही सोचे.
‘इस्तेमाल करो और फेको’ संस्कृति औद्योगिक क्रांति के आर्थिक सन्दर्भ की उपज है, जहाँ मूल उद्देश्य उत्पादन और उपभोक्ता के माध्यम से आर्थिक मुनाफा में उत्तरोतर बढ़ोत्तरी करना है. अगर उत्पाद टिकाऊ और मरम्मत के लायक होगा तो बहुत लम्बे समय तक उपयोगी बना रहेगा और ऐसी वस्तुएं बाज़ार और मुनाफे के आड़े आएगी, क्योंकि ऐसी वस्तुएँ उपभोक्ता को लम्बे समय तक के लिए बाज़ार से अलग कर देगी. इसका समाधान कंपनियों ने उत्पाद में तकनीकी रूप से आमूलचूल परिवर्तन के माध्यम से इसे ना सिर्फ मरम्मत हो पाने संभवना को कम किया बल्कि उसके इस्तेमाल होने के समय सीमा को कम किया गया और नतीजा उपभोक्ता बार-बार बाज़ार में लौटने लगा.
हमारे लोभ और लालच को बढ़ावा
अब हर महीने उत्पाद के मॉडल बदलने लगे, नयी तकनीक का हवाला दे कर विज्ञापन के माध्यम से इसे उसके पहले मॉडल से बेहतर बताया जाने लगा. यहां तक कि निर्माता एक योजना के साथ अपने उत्पाद के उपयोग हो जाने की समय सीमा भी निर्धारित करने लगे ताकि एक निर्धारित समय तक उपयोग के बाद इसे आवश्यक रूप से बदलना ही पड़े. पहले जो उपभोक्ता एक ही जरुरत के लिए लम्बे समय बाद बाज़ार की ओर लौटता था अब उसी जरूरत के लिए बार-बार बाजार का रुख करने लगा और इस सब में सहायक हुआ एक तेजी से उभरता बड़ा मध्यवर्ग, जो अपनी बढ़ी हुई क्रय क्षमता से सुख-सुविधा के तमाम संसाधन जुटा लेने को आतुर है. निर्माताओं ने भरसक प्रयास किया कि मरम्मत हो पाने की संभावना ख़त्म हो जाये पर जिस उत्पाद में मरम्मत से दरकिनार नहीं किया जा सकता है वहां भी दोहरा मुनाफा के लिए मरम्मत करने का अधिकार अपनी शर्तो पर बौद्धिक संपदा संरक्षण के बहाने अपने पास ही रखा. निर्माताओ के येन-केन प्रकारेण मरम्मत की प्रवृति को ख़त्म करने के गोरखधंधे को शमशेर कटारिया बनाम होंडा सील कार के क़ानूनी केस से समझा जा सकता है कि उत्पादक समूह किस स्तर तक न सिर्फ हमें एक अदद उपभोक्ता बना रहे है,बल्कि एक ही उत्पाद को नए नए कलेवर के साथ एक खास अन्तराल के बाद बेंच कर बार-बार मुनाफा कमाकर पृथ्वी को कूड़े का अम्बार बना रहे हैं.
अब चूंकि चरम उपभोक्तावाद की हकीकत सामने आने लगी है, तो भारत सरकार भी चेती है और निर्माताओं के ऐसे गोरखधंधे पर लगाम लगाने को तत्पर हुई है, तभी तो यूरोप और अमेरिका की तर्ज पर ‘उपभोक्ता के लिए ‘’मरम्मत का अधिकार’ को सुनुश्चित करने की कवायद में जुट गयी है. हालांकि, यह तो अभी शुरुवात बस है, अभी वैश्विक और भारत के स्तर पर सतत विकास के लक्ष्य के आधार पर उत्पाद के डिजाइन से लेकर उसके उपयोग के समय सीमा जैसे मुद्दों पर नकेल कसने की जरुरत है. अगर इस दिशा में सत्ता प्रतिष्ठान संज्ञान ले तो ना सिर्फ ये उपभोक्ता के लिए किफायती होगा बल्कि पृथ्वी को कूड़े का ढेर बनने से बचा पाएंगे. टिकाऊ, मरम्मत योग्य और किफायती उत्पाद में ही सतत विकास निहित है जिसके मूल में कम से कम संसाधन में ज्यादा से ज्यादा उपयोग या उपभोग है.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह जरूरी नहीं कि … न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]