बहनजी के फैसले के पीछे, कुछ तो मजबूरियां रही होंगी…
सियासी सोच: बहनजी के फैसले के पीछे, कुछ तो मजबूरियां रही होंगी…
बहुजन समाज पार्टी (बसपा) सुप्रीमो मायावती ने अपने राजनीतिक उत्तराधिकारी और भतीजे आकाश आनंद को धूमधाम से राजनीति में लाने के बमुश्किल पांच महीने बाद ही पद से बर्खास्त कर दिया। आकाश आनंद की बर्खास्तगी का यह कठोर कदम उनकी पार्टी और समर्थकों के लिए बड़ा झटका है।
उल्लेखनीय है कि सीतापुर में चुनावी रैली के दौरान दिए गए आनंद के भड़काऊ भाषण के तत्काल बाद यह विवादास्पद निर्णय लिया गया है। बताया जाता है कि उस रैली में उन्होंने भाजपा सरकार के खिलाफ आपत्तिजनक बयानबाजी की थी, जो बुआ मायावती को भी ठीक नहीं लगी। बसपा के इस युवा नेता के साथ चार अन्य लोगों-बसपा उम्मीदवार महेंद्र यादव, श्याम अवस्थी, अक्षय कालरा और रैली आयोजक विकास राजवंशी पर आदर्श चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन का आरोप लगाया गया है।
बताया जा रहा है कि सत्तारूढ़ दल के खिलाफ की गई आक्रामक टिप्पणियों को लेकर मायावती अपने भतीजे से नाराज हैं। कहा जा रहा है कि उन्हें निजी तौर पर चेताया गया था कि अगर बसपा ने ऐसी आपत्तिजनक भाषा का इस्तेमाल करना बंद नहीं किया, तो इसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे।
गौरतलब है कि बसपा सुप्रीमो मायावती भी राजनीतिक जीवन के शुरुआती वर्षों में काफी तेज-तर्रार थीं और अपने विरोधियों के खिलाफ तीखे भाषण देती थीं, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में उन्होंने भाजपा के वरिष्ठ नेताओं के खिलाफ बोलने में काफी सावधानी बरती है।
ऐसी अफवाहें भी हैं कि बहनजी ने विधानसभा और लोकसभा चुनाव में भाजपा को फायदा पहुंचाने के लिए उनके साथ गुप्त समझौता किया है। हालांकि भाजपा के साथ उनका कोई औपचारिक गठबंधन नहीं है और वह अपने भाषणों और ट्वीट में सरकार की सांकेतिक रूप से आलोचना भी करती रही हैं। अन्य विपक्षी दल उन पर आरोप लगाते हैं कि वह भाजपा विरोधी वोटों को बांटने के लिए विधानसभा व लोकसभा चुनाव में अपने उम्मीदवार खड़े करती हैं। बदले में उन्हें पिछले कई दशकों से चले आ रहे भ्रष्टाचार के मामलों में राहत मिली हुई है।
फिर भी ऐसे महत्वपूर्ण समय में अपने भतीजे को पद से हटाने के पीछे सरकारी दबाव के अलावा अन्य कारण भी हो सकते हैं। जब बीमार कांशीराम ने बसपा की बागडोर उन्हें सौंपी थी, उस समय भी उन्होंने किसी अन्य पार्टी नेता के साथ सत्ता साझा करने से इन्कार कर दिया था और पार्टी नेताओं से सिर्फ वफादारी ही नहीं, बल्कि पूर्ण समर्पण की मांग की थी। वैसे भी आजकल ज्यादातर पार्टियों में एक सर्वोच्च नेता का वर्चस्व बढ़ रहा है और बसपा में तो बहनजी एक अनोखे पद पर आसीन हैं ही।
दिलचस्प तथ्य यह है कि पांच साल पहले जब नरेंद्र मोदी और भाजपा ने दूसरी बार प्रचंड बहुमत से जीत हासिल की थी, तो उसके एक हफ्ते बाद ही मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद को बसपा का राष्ट्रीय संयोजक बना दिया था। कुछ वर्षों बाद बसपा सुप्रीमो ने सार्वजनिक रूप से आनंद की तारीफ करते हुए कहा था कि उन्हें पार्टी में बड़ी भूमिका निभाने के लिए तैयार किया जा रहा है। वर्ष 2022 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान मायावती ने लंबे समय से अपने कानूनी सलाहकार और विश्वासपात्र रहे सतीशचंद्र मिश्र पर वरीयता देते हुए आनंद को अपने बाद पार्टी का दूसरा स्टार प्रचारक बनाया था।
इसलिए कुछ महीने पहले जब मायावती ने आकाश आनंद को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी बनाने की घोषणा की, तो ऐसा लगा कि बसपा ने अब अपने भविष्य की रूप-रेखा तैयार कर ली है, जो एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा था। इससे भी बड़ी बात यह कि आकाश आनंद को चंद्रशेखर आजाद जैसे युवा नेता की काट माना जा रहा था, जो उत्तर प्रदेश में बसपा के गढ़ में सेंध लगाना चाह रहे हैं। लेकिन भतीजे को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित करते वक्त भी बहनजी ने स्पष्ट संदेश दिया था कि उत्तर प्रदेश एवं पड़ोसी राज्य उत्तराखंड में पार्टी से जुड़े सभी मामले वह स्वयं देखेंगी, जबकि आनंद देश के अन्य राज्यों का कामकाज संभालेंगे।
लेकिन 2024 के संसदीय चुनाव प्रचार की गर्मी जैसे ही बढ़ने लगी, वह उत्साही युवा यह भूल गया कि उसकी अहंकारी बुआ ने उसके लिए एक सीमा निर्धारित कर दी है। बताया जाता है कि आनंद ने अपने उग्र चुनावी भाषणों से युवा दलितों के बीच खुद को फायरब्रांड नेता के रूप में पेश करने के लिए भाजपा सरकार को उखाड़ फेंकने की बात की। आनंद की चुनाव प्रचार की यह उग्र बयानबाजी उनकी डरी-सहमी बुआ से बिल्कुल अलग थी, जो उसकी बर्खास्तगी का कारण बनी।
अब इसमें कोई संदेह नहीं रह गया है कि अपने उभरते हुए दलित युवा नेता और कुशल वक्ता को सार्वजनिक रूप से अपमानित करते हुए पद से हटाकर बहुजन समाज पार्टी, जो कभी दलित राजनीति की ताकत मानी जाती थी, ने अपने राजनीतिक ताबूत में अंतिम कील ठोकने का काम किया है, और अपने पुराने खोखले आवरण में सिमट गई है। मायावती ने अपने राजनीतिक उत्तराधिकारी को भाजपा सरकार पर हमले के बाद यह कहकर हटा दिया कि वह अभी परिपक्व नहीं है। इससे एक स्वतंत्र नेता के रूप में आनंद की प्रतिष्ठा धूमिल होगी। बसपा का जनाधार पहले ही काफी घट चुका है। ऐसे में, इससे दलित उपजाति जाटव का भी उससे मोहभंग होगा। इससे भाजपा और इंडिया गठबंधन, दोनों को लाभ हो सकता है। इसके अलावा दलित मतदाताओं की मतदान करने में भी रुचि घटेगी।