पृथ्वी अपना आकार नहीं बढ़ा सकती, हम जरूरतें कम करें !
पृथ्वी अपना आकार नहीं बढ़ा सकती, हम जरूरतें कम करें
घर में रहने के लिए हम कई नियम बनाते हैं। हम रसोई में खाना बनाते हैं, बाथरूम में नहाते हैं और शयन कक्ष में सोते हैं। हम इसमें अदला-बदली नहीं करते। पृथ्वी हमारा और बड़ा घर है। क्या हमें पृथ्वी पर रहने के लिए भी ऐसे ही नियम नहीं बनाने चाहिए? लेकिन अभी तक हमें किसी ने ऐसे नियम नहीं सिखाए। वे किसी भी स्कूल या कॉलेज के पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं हैं, न ही आर्थिक और तकनीकी प्रगति के लिए किन्हीं दिशानिर्देशों में उन्हें शामिल किया गया है।
पृथ्वी पर रहने का हमारा पहला नियम यह होना चाहिए कि अगर पारिस्थितिकी तंत्र में सीमित संसाधन हैं तो हमारा उपभोग भी सीमित ही होना चाहिए। विज्ञान, प्रौद्योगिकी, अर्थव्यवस्था और जनसंख्या में बढ़ोतरी के बावजूद, हमारे ग्रह का आकार नहीं बढ़ रहा है।
हमारे विकास के साथ पानी, मिट्टी और खनिजों की मात्रा भी नहीं बढ़ रही है और न ही प्राकृतिक संसाधन बढ़ सकते हैं। मनुष्य मौजूदा परमाणुओं के अलावा एक भी नया परमाणु और नहीं बना सकता। अगर हमारी आमदनी निश्चित हो तो हमारे खर्च भी तय होने चाहिए।
पृथ्वी पर भी हमारे समक्ष कुछ उपभोग-सीमा होनी चाहिए। लेकिन हम आए दिन इसका उल्लंघन कर रहे हैं। यदि हम केवल पिछले तीन दशकों की तुलना करें, तो जनसंख्या 2 अरब बढ़ गई है, वाहन 1 अरब बढ़ गए हैं, बिजली की खपत लगभग दोगुनी हो गई है। लेकिन पृथ्वी का आकार बिल्कुल नहीं बदला है।
हमारी जीडीपी वृद्धि की पहली आवश्यकता भी लगातार बढ़ता उत्पादन और लगातार बढ़ती खपत ही प्रतीत होती है। लेकिन पृथ्वी की सीमाओं को ध्यान में रखते हुए निरंतर बढ़ती वृद्धि असंभव है। मैं लोगों से अकसर पूछता हूं कि लगभग 100 साल पहले महात्मा गांधी ने ये क्यों कहा था कि ‘दुनिया में हर किसी की जरूरत के लिए पर्याप्त है, लेकिन हर किसी के लालच के लिए नहीं?’ इसका उत्तर आज भी किसी के पास नहीं है।
अर्थ ओवरशूट डे ऐसा पैरामीटर है, जो मनुष्य के पारिस्थितिकी-पदचिह्न की तुलना में पृथ्वी की जैविक-क्षमता को मापता है। इसके मुताबिक 2023 में, मनुष्यों के पारिस्थितिकी-पदचिह्न पृथ्वी की क्षमता से 70% अधिक हो गए थे। यानी हम 1.7 पृथ्वियों के बराबर संसाधनों का उपयोग कर रहे हैं। लेकिन पृथ्वी तो एक ही है।
हम उससे अधिक उपभोग कैसे कर सकते हैं, जो पृथ्वी हमें स्थायी रूप से प्रदान कर सकती है? अगर आप लंबे समय तक अपने शरीर को उसकी क्षमता से ज्यादा इस्तेमाल करते हैं तो वह जर्जर होने लगता है। इसी तरह से पृथ्वी के पारिस्थितिकी-तंत्र का भी विघटन हो रहा है।
हवा, पानी, मिट्टी जैसे प्राकृतिक संसाधनों का क्षरण, ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन इसी के संकेत हैं। वर्तमान में हमारा विकास पर्यावरण के ह्रास की कीमत पर हो रहा है। सभी गैर-आवश्यक वस्तुएं- जो मानव अस्तित्व के लिए अनिवार्य नहीं हैं- जैसे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, कंप्यूटर टेक्नोलॉजी और अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी तेजी से बढ़ रही हैं, लेकिन हवा, पानी और मिट्टी जैसी सभी आवश्यक वस्तुओं का भारी क्षरण हो रहा है।
हवा, पानी, मिट्टी की कीमत पर विज्ञान, प्रौद्योगिकी और अर्थव्यवस्था को बढ़ाना आधुनिकता है या मूर्खता? विवेकशील बनें। पहले अपने जीने के आधार को सुरक्षित रखें और फिर विकास की सोचें। खपत को सीमित करना ही एकमात्र विकल्प है। कोई भी विज्ञान और प्रौद्योगिकी हमें इस पर काबू पाने में मदद नहीं कर सकती।
उपभोग बढ़ाने के लिए अधिक उत्पादन करना होता है, अधिक संसाधनों का उपयोग करना होता है और अधिक पैसे खर्च करने होते हैं। लेकिन उपभोग को सीमित करने के लिए हमें उन कार्यों को करने से बचना होगा, जिन्हें आसानी से टाला जा सकता है। उपभोग को सीमित करना आसान है, क्योंकि इसके लिए किसी चीज की आवश्यकता नहीं है। यह तुरंत किया जा सकता है। अपने बच्चों और पोते-पोतियों के लिए एक रहने योग्य ग्रह छोड़कर जाएं।
आज कोई भी दावा नहीं कर सकता है कि जिस हवा में हम सांस लेते हैं वह स्वच्छ है, कोई सबसे पवित्र नदी से भी फिल्टर किए बिना पानी नहीं पी सकता है और कोई यह गारंटी नहीं दे सकता है कि हमारा भोजन रसायनों से रहित है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)