लोकतंत्र में खुले संवाद का बहुत महत्व होता है !
लोकतंत्र में खुले संवाद का बहुत महत्व होता है
मुझे लगता है कि हर कोई- यहां तक कि उनके सबसे धुर आलोचक भी- यह स्वीकार करेंगे कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक उत्कृष्ट वक्ता हैं। शब्दों, वाक्यांशों, उपयुक्त उद्धरणों, विचारोत्तेजक शब्दावली- जो अक्सर स्थानीय मुहावरे से समृद्ध होती है- ये सब जैसे उन्हें मिले जन्मजात उपहार हैं।
कुछ लोग यह जरूर कहते हैं कि वे टेलीप्रॉम्प्टर का उपयोग करते हैं। लेकिन अगर वे कुछ अवसरों पर ऐसा करते भी हैं, तो भी एक दिन में वे जितने भाषण देते हैं, वो इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि एक वक्ता के रूप में उनकी प्रतिभा टेलीप्रॉम्प्टर से कहीं आगे की है।
उनसे पूर्व भाजपा में सितारा-वक्ता अटल बिहारी वाजपेयी हुआ करते थे, जो हास्य-व्यंग्य, विडम्बनाओं, तथ्यों और मुहावरों के सधे हुए प्रयोग से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देते थे। मुझे याद है कि जब वे वर्ष 2002 में प्रधानमंत्री के रूप में साइप्रस आए थे (तब मैं वहां पर उच्चायुक्त था) तो उनका पहला कार्यक्रम भारतीय प्रवासियों के लिए एक भाषण का था।
कार्यक्रम में आईटी क्षेत्र के हजारों युवा पेशेवर शामिल होने जा रहे थे। लेकिन वाजपेयी का स्वास्थ्य बहुत खराब था। यहां तक कि उन्हें विमान से नीचे लाने के लिए भी हाइड्रोलिक लिफ्ट का इस्तेमाल करना पड़ा, क्योंकि उनके घुटनों में खासा दर्द था।
जब हम उनके सुइट में पहुंचे तो मैंने उन्हें याद दिलाया कि होटल के कन्वेंशन हॉल में प्रवासी भारतीय उनका इंतजार कर रहे थे। मुझे अभी तक याद है कि उन्होंने मुझसे पूछा था, ‘क्या मुझे वहां कुछ बोलना भी पड़ेगा?’ मैंने जवाब दिया, ‘वे आपको सुनने के लिए ही घंटों से इंतजार कर रहे हैं।’
वाजपेयी स्पष्ट रूप से थके हुए थे, लेकिन जैसे ही हम कार्यक्रम स्थल के पास पहुंचे, हमें ‘अटल बिहारी जिंदाबाद’ के जोशीले नारे सुनाई दिए। इसके बाद अटल जी उत्साहित नजर आने लगे। उनका जोरदार स्वागत हुआ। थकान के बावजूद वे 40 मिनटों तक बोले और श्रोताओं को सम्मोहित कर दिया। भाषण के दौरान कई बार हंसी के ठहाके भी लगे। यह मामूली बात नहीं थी।
नरेंद्र मोदी के पास भी ऐसी ही वाक् शक्ति है। यही कारण है कि मुझे आश्चर्य है अपने प्रधानमंत्रित्व-काल के दस वर्षों में उन्होंने कभी कोई खुली प्रेसवार्ता क्यों नहीं की। उसकी तुलना में स्वतंत्र वार्ताकारों से संवाद एक कृत्रिम बातचीत जैसा अधिक प्रतीत होता है, जो एक लोकतंत्र में मीडिया के सामान्य और सहज सवालों से बहुत अलग होता है।
मैंने प्रधानमंत्री के अधिकांश साक्षात्कार प्रिंट और टीवी दोनों में देखे हैं। वे अच्छा बोलते हैं। लेकिन जो पत्रकार उनका साक्षात्कार ले रहे होते हैं, वे भले ही उनसे ‘कठिन’ सवाल पूछते दिखते हों, लेकिन वे उनके प्रति अतिशय सौजन्यपूर्ण होते हैं। इस तरह के साक्षात्कारों में प्रधानमंत्री के समक्ष कोई असहज कर देने वाली या कटु स्थिति उत्पन्न नहीं होती।
सच कहूं तो मेरा मानना है कि यह प्रधानमंत्री की छवि के लिए अच्छा नहीं है। उन्हें सार्वजनिक और वास्तविक रूप से लोकतांत्रिक सवाल-जवाबों के लिए कहीं अधिक खुला होना चाहिए, खासतौर पर इसलिए क्योंकि उनके पास तथ्यों की महारत, हाजिरजवाबी की कला और निश्चित रूप से सधी हुई वाक्पटुता है। एकालाप से संवाद की विश्वसनीयता कम हो जाती है।
हमारे देश के सभी पूर्व प्रधानमंत्रियों ने- अन्य लोकतांत्रिक देशों के कार्यकारी प्रमुखों की तरह- खुली मीडिया बहसों में अपने आलोचकों का डटकर सामना किया है। दरअसल, अटलजी ने तो एक बार एक बेहद लोकप्रिय पत्रकार को इसलिए एक मीठी-सी डांट लगा दी थी क्योंकि उन्होंने उनसे कठिन सवाल नहीं पूछा था। उन्होंने कहा था कि यह स्वतंत्र और निर्भीक प्रेस के आवश्यक सिद्धांत का उल्लंघन है।
प्रधानमंत्री के कुछ हालिया सार्वजनिक भाषण भी उनके द्वारा अपने बारे में संजोई गई छवि के अनुरूप नहीं रहे हैं। ये सच है कि उन पर भी अक्सर विपक्षी नेताओं द्वारा निशाना साधा जाता है। एक बार फिर अटलजी की याद आती है।
जिस किसी ने भी उनके भाषणों को सुना है, उसके लिए उनके एक भी ऐसे कथन को याद कर पाना मुश्किल होगा, जिसमें कि राजनीतिक शुचिता न हो। 1998 में जब वे मात्र एक वोट से जनादेश हार गए थे, तब संसद में दिया उनका भाषण तो सभी राजनेताओं के लिए सुनना अनिवार्य होना चाहिए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)