प्लेबॉय, जिद्दी आशिक, फरेबी, चीटर, स्टॉकर ?

प्लेबॉय, जिद्दी आशिक, फरेबी, चीटर, स्टॉकर
क्या हमारे लड़के ऐसे हैं, जैसा टीवी और सिनेमा का पर्दा उन्हें दिखाता है

एक अमेरिकन एक्टर हैं जस्टिन बेल्डोनी। अपने एक टेड टॉक में वो कहते हैं, मैं एक एक्टर हूं और बतौर एक्टर मेरा काम है, मेरे पास आई स्क्रिप्ट्स को पढ़ना और उन लाइनों को दोहराना, जो किसी और ने लिखी हैं।

कहानियां लिखने और बनाने वाले एक कैरेक्टर क्रिएट करते हैं और मैं उस कैरेक्टर को पर्दे पर जीता हूं।

जस्टिन कहते हैं कि उन्होंने टेलीविजन के पर्दे पर बहुत सारे ‘ग्रेट मेल रोल मॉडल्स’ की भूमिका निभाई है। लेकिन जिस तरह वे ‘ग्रेट मेल रोल मॉडल्स’ शब्द कहते हैं, उसमें एक व्यंग्य और तंज होता है। फिर वो अपने निभाए चरित्रों के नाम गिनाना और खासियत बताना शुरू करते हैं-

  • मेल एस्कॉर्ट।
  • फोटोग्राफर डेट रेपिस्ट।
  • अवॉर्ड विनिंग शो का शर्टलेस हीरो, जो डेट पर जाता है और लड़की के साथ रेप करता है।
  • एक मेडिकल स्टूडेंट, जो कैंपस में शर्ट उतारकर बॉडी दिखाता घूमता है।
  • स्टेरॉइड्स यूज करने वाला बॉयफ्रेंड।
  • लड़कियां घुमाने और उन्हें चीट करने वाला फरेबी आशिक।
  • प्लेबॉय, जिसे सिर्फ वर्जिन लड़कियां पसंद हैं।

जस्टिन कहते हैं कि ये सारे वो मेल कैरेक्टर्स हैं, जो हम टीवी और सिनेमा के पर्दे पर देख रहे हैं, जिसे हमारे लड़के देख रहे हैं। ये सब सुनाने के बाद फिर जस्टिन पूछते हैं, लेकिन ये सारे आदमी कौन हैं? ये कहां से आते हैं? कहां रहते हैं?

जस्टिन कहते हैं कि जब भी मेरे पास ऐसे रोल, ऐसी स्क्रिप्ट आती है तो मेरे मन में पहला सवाल यही उठता है कि ये पुरुष कौन हैं। इतने करिश्माई, इतने ताकतवर, इतने अहंकारी, इतने माचो मैन। क्योंकि मैं तो अपनी निजी जिंदगी में इनमें से कोई नहीं हूं। मैं ऐसा नहीं हूं। मेरे आसपास के पुरुष भी ऐसे नहीं हैं। फिर यह कौन है, जो पर्दे पर ऐसे दिखाई दे रहा है।

जस्टिन कहते हैं कि मैं पर्दे पर वो पुरुष होने की, दिखने की कोशिश कर रहा हूं, जो मैं असल में नहीं हूं। मैं ताकतवर होने का दिखावा करता हूं, जबकि मैं भीतर से कमजोर महसूस कर रहा होता हूं। मैं आत्मविश्वास से लबालबाने की एक्टिंग करता हूं, जबकि मुझे भीतर से अकेला और असुरक्षित महसूस हो रहा होता है। मैं खुद को टफ दिखाता हूं, जबकि मुझे भीतर से दर्द महसूस हो रहा होता है। ज्यादातर वक्त मैं सिर्फ दिखावा कर रहा होता हूं, लेकिन अब मैं परफॉर्म करते-करते थक गया हूं।

सच में मैं पर्याप्त मर्द होने की एक्टिंग करते-करते थक गया हूं। अपनी मर्दानगी को साबित करने की एक्टिंग करते-करते क्योंकि ये मेरा सच है ही नहीं। ये मैं नहीं हूं।

सिनेमाई पर्दे पर पुरुषों की जिस तरह की छवि पेश की जा रही है, उससे बहुत सारे पुरुष आइडेंटीफाई नहीं करते। वो ऐसे हैं ही नहीं, लेकिन होना चाहते हैं। लड़के हीरो की नकल करके हीरो की तरह लड़कियों का पीछा करना चाहते हैं। छोटे बच्चे कार्टून फिल्मों में भी देख रहे होते हैं कि लड़का एग्रेसिव और लड़की शांत, सीधी, प्रिंसेज टाइप है।

अमेरिका में माउंट सेंट मेरी यूनिवर्सिटी और केरिंग फाउंडेशन ने मिलकर साल 2020 में एक स्टडी की। उन्होंने अमेरिकन टेलीविजन के 25 मोस्ट पॉपुलर सीरियल्स के 3000 से ज्यादा मेल कैरेक्टर्स को उठाया और उनकी एनालिसिस की। ये वो सीरियल थे, जो 7 साल से लेकर 13 साल तक के लड़कों के बीच सबसे ज्यादा पॉपुलर थे।

इस स्टडी में उन्होंने जो पाया, वो चौंकाने वाला नहीं बल्कि फिक्रमंद करने वाला है।

रिपोर्ट कहती है कि टीवी पर दिखाए जा रहे सारे पॉपुलर मेल कैरेक्टर्स मेल स्टीरियोटाइप को बढ़ावा दे रहे हैं। वे सारे मेल कैरेक्टर्स तकरीबन एक जैसे हैं। एग्रेसिव हैं, किसी की केयर नहीं करते, पैरेंट्स की बात नहीं सुनते। सिगरेट, ड्रग्स, शराब जैसी चीजों में इन्वॉल्व होते हैं। स्कूल में, फुटबॉल टीम में, घर में, पब्लिक में वॉयलेंट एक्टिविटीज में जाते हैं। वे प्लेबॉय टाइप हैं, जो बहुत सारी लड़कियों के साथ चीट करते हैं और सबसे खूबसूरत लड़कियां इन पर मरती हैं।

3000 मेल कैरेक्टर्स पर की गई स्टडी की रिपोर्ट यह कह रही है। है न, डराने वाली बात

टेलीविजन और सिनेमा का पर्दा हमारे लड़कों को इस तरह पोट्रे कर रहा है। और कच्ची उम्र से लेकर टीनएज और फिर एडल्ट होने तक लड़के यही सब देखकर बड़े हो रहे हैं, इसी से सीख रहे हैं। टीवी और सिनेमा हमारे लड़कों को ये मैसेज दे रहा है कि लड़के ऐसे ही होते हैं। यही आइडियल मैनहुड है। ऐसे ही लड़कों पर लड़कियां मरती हैं।

1990 में नओमी वुल्फ की एक किताब आई थी- ‘द ब्यूटी मिथ।’ इस किताब को पढ़कर पहली बार समझ में आया कि पॉपुलर कल्चर, विज्ञापन, टीवी, सिनेमा और मीडिया कैसे महिलाओं का वस्तुकरण कर रहे हैं। कैसे उनकी एक ऐसी सेक्शुअल इमेज हर जगह पेश की जा रही है, जो वास्तविकता से कोसों दूर है।

उसके बाद से लेकर अब तक इस विषय पर सैकड़ों स्टडी, रिसर्च हो चुकी हैं, किताबें लिखी जा चुकी हैं कि सिनेमा और पॉपुलर कल्चर जिस तरह औरतों को पेश करता है, वह रीअल जिंदगी में जेंडर पूर्वाग्रहों से लेकर हिंसा तक को बढ़ावा दे रहा होता है।

लेकिन हमने यह स्टडी कभी नहीं की कि पॉपुलर मीडिया कैसे लड़कों की भी एक खास तरह की टॉक्सिक इमेज ही पेश करता है। सिर्फ एडल्ट कंटेंट में ही नहीं, बल्कि छोटे बच्चों और टीनएजर्स के लिए बनाए जा रहे कंटेंट में भी।

माउंट सेंट मेरी यूनिवर्सिटी और केरिंग फाउंडेशन की वर्ष 2020 की स्टडी लड़कों पर की गई इस तरह की पहली स्टडी है। हमने इस बारे में कभी सोचा ही नहीं कि लड़कियों की सेक्सी इमेज की तरह टीवी और सिनेमा लड़कों की भी एक खास तरह की टॉक्सिक इमेज को बढ़ावा दे रहा है। हमने कभी यह सवाल ही नहीं उठाया है कि रुपहले पर्दे की कहानियां हमारे लड़कों और पुरुषों को कैसे रीप्रेजेंट कर रही हैं और यह कितना खतरनाक है।

लड़के अगर वॉयलेंट और एग्रेसिव हो रहे हैं, वे अनकेयरिंग हैं तो इसलिए नहीं कि उनके डीएनए में ये चीजें इनबिल्ट हैं।

इसलिए क्योंकि हम उन्हें ऐसा बना रहे हैं। हम उन्हें यही सिखा रहे हैं। यही इकलौता रोल मॉडल हमने उनके सामने पेश किया है।

अपने लड़कों को हम ये क्यों नहीं सिखा सकते कि लड़के बहुत केयरिंग होते हैं। लड़के सबका ध्यान रखते हैं। लड़के इगो के लिए दूसरों से लड़ाई नहीं करते। लड़के सिगरेट, शराब, ड्रग्स नहीं लेते। लड़के अपने पैरेंट्स की परवाह करते हैं। लड़के लड़कियों की रिस्पेक्ट करते हैं।

सबसे बुनियादी बात समझने की ये है कि चाहे लड़का हो या लड़की, कोई भी कमजोर, गुलाम, टॉक्सिक या एग्रेसिव पैदा नहीं होता। परिवार, समाज, संस्कृति और पितृसत्ता मिलकर उसे गढ़ते हैं। और दुख की बात ये है कि पितृसत्ता ने जितना नुकसान लड़कियों को पहुंचाया है, उससे कम लड़कों को नहीं पहुंचाया। फिर भी लड़कों को लगता है कि पैट्रीआर्की उनके हक में है।

हमारे देश में आज जो लड़के बड़े हो रहे हैं, वो कच्ची मिट्‌टी की तरह हैं। वो कैसे इंसान बनेंगे, कैसे पुरुष बनेंगे, ये हम पर निर्भर है कि हम उन्हें कैसा बनाएंगे। हम कौन सा रोल मॉडल उनके सामने पेश करेंगे।

लेकिन सवाल ये है कि क्या हम अपनी यह जिम्मेदारी ढंग से निभा रहे हैं?

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