कब सुधरेंगी हमारी गलतियां ?
मंथन: कब सुधरेंगी हमारी गलतियां, गणतंत्र के भविष्य के लिए जरूरी है इनका ठीक होना
इस बार का चुनाव बहुत ही कठिन रहा और पूरी प्रक्रिया बहुत लंबी। इसके परिणाम कुछ ही दिनों में आ जाएंगे। जो भी पार्टी या गठबंधन अगली सरकार बनाएगा, उसे उन गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा, जिन्हें चुनाव अभियान ने पीछे धकेल दिया है। भारत के सामने आज गलतियों की एक लंबी लिस्ट है, जिसे अच्छी तरह सुधारा नहीं गया तो एक गणतंत्र के रूप में हमारा भविष्य कमजोर हो सकता है।
गांधी परिवार से पीछे न रह जाएं, इस वजह से कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने गुलबर्गा की अपनी पुरानी सीट अपने दामाद को दे दी, जबकि उनका एक बेटा पहले से ही कर्नाटक में कैबिनेट मंत्री है। इसी तरह राष्ट्रीय जनता दल बिहार में, सपा उत्तर प्रदेश में और डीएमके तमिलनाडु में ऐसी पार्टियां हैं, जो एक ही परिवार के नियंत्रण में रही हैं। यह सोचने पर मजबूर करता है कि जिस ब्रिटेन की राजनीतिक प्रणाली को हमने अपनाया, उससे हम कितने अलग हैं।
प्रधानमंत्री ऋषि सुनक के सामने कोई धर्म-पंथ नहीं है। मुख्य विपक्षी लेबर पार्टी के नेता केर स्टार्मर किसी राजनीतिक परिवार से नहीं आते हैं। वे दोनों आज जिस मुकाम पर हैं, वहां अपनी मेहनत और पार्टी के सहयोगियों के समर्थन से हैं। जब भी वे समर्थकों का विश्वास खो देंगे, बिना किसी हंगामे के अपना पद छोड़ देंगे और उनकी जगह पर ऐसे व्यक्ति को चुना जाएगा, जो किसी राजनीतिक वंशावली से नहीं होगा।
भारतीय लोकतंत्र की विश्वसनीयता इस बात से भी और कम हुई है कि नागरिकों को बिना मुकदमे के जेल में डाला जा सकता है और वर्षों तक जेल में रखा जा सकता है। कानूनों का उपयोग राजनीतिक विरोधियों ही नहीं, बल्कि किसी भी तरह की असहमति जताने वालों को डराने और चुप कराने के लिए किया जाता है। इस तरह के दुरुपयोग में अदालतें भी शामिल हैं।
संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि हमारी राजनीतिक कमियां दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने के दावों के आडंबरों के पीछे छिपी हैं। दूसरा दावा विश्व की सबसे तेज गति से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था का है। हालांकि आर्थिक उदारीकरण की वजह से गरीबी में तो कमी आई है, लेकिन इससे असमानता भी बड़े पैमाने पर बढ़ी है। रोजगार में बढ़ोतरी नहीं हुई। शिक्षित वर्गों में सबसे ज्यादा बेरोजगारी है और श्रमबल में महिलाओं की भागीदारी बहुत कम है।
भारत की अर्थव्यवस्था मिश्रित है और इसके पर्यावरणीय रिकॉर्ड विनाशकारी रहे हैं। आर्थिक तौर पर भारत के सबसे ‘समृद्ध शहर’ बेंगलुरु में जल संकट और भारत के ‘वैश्विक उत्थान’ वाले शहर नई दिल्ली में वायु प्रदूषण की उच्च दर इस बात का प्रतीक है कि हमने संसाधनों का कितना दुरुपयोग किया है। जैसा कि मैंने पहले लिखा है, हमारे लिए एक बड़ा मुद्दा पर्यावरण संकट है। जहरीली हवा, गिरता जल स्तर, दूषित मिट्टी और विलुप्त होती जैव विविधता की वजह से करोड़ों भारतीयों की आजीविका और सेहत खतरे में पड़ गई है और ये भविष्य के बारे में गंभीर सवाल उठा रहे हैं कि क्या हमारे औद्योगिक और आर्थिक संसाधन टिकाऊ हैं?
कई दशकों तक सत्ता में रही कांग्रेस पार्टी की जिम्मेदारी इसमें सबसे अधिक बनती है। उसका कहना है कि 2014 में जब नरेंद्र मोदी ने सत्ता संभाली, उसके बाद से स्थिति और खराब होती गई। हम जिसे सांप्रदायिक समस्या कहते हैं, वह भी कोई नई नहीं है। पाकिस्तान बनने के बाद जो मुसलमान भारत में रह गए, उन्हें पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने यह कहते हुए आश्वस्त किया था कि पाकिस्तान में जो भी अधिकार दिए गए हैं, वही समान नागरिक अधिकार यहां भी दिए जाएंगे। लेकिन उन्हें अक्सर संदेह की दृष्टि से देखा गया। धर्मों के बीच की यह खाई राजीव गांधी के शासनकाल में बढ़ती गई, क्योंकि उन्होंने हिंदू और मुस्लिम, दोनों के बीच कट्टरता को बढ़ावा दिया।
2014 के बाद से भारत के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय में असुरक्षा की भावना कई गुना बढ़ गई, क्योंकि स्वतंत्र राष्ट्र के इतिहास में पहली बार केंद्र में सत्तारूढ़ दल ने अपनी हिंदू बहुसंख्यकवादी महत्वाकांक्षा को स्पष्ट कर दिया था। राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन में धर्म का बोलबाला बढ़ गया, जब प्रधानमंत्री ने खुद को ईश्वर द्वारा धरती पर भेजे गए उस हिंदू राजा की तरह दिखाया, जो हिंदुओं की सभी परेशानियों को दूर कर देगा। इसके परिणामस्वरूप भारतीय मुसलमानों ने खुद को इतना डरा हुआ कभी महसूस नहीं किया, जितना अब कर रहे हैं। ये भविष्य के लिए क्या संकेत दे रहे हैं, कहना मुश्किल है।
एक अंतिम समस्या, जो मैं उठाना चाहता हूं, वह है राज्य और केंद्र सरकार के बीच संबंध। भाजपा समर्थक 1959 में जवाहरलाल नेहरू द्वारा केरल की वामपंथी सरकार को बर्खास्त करने और इंदिरा गांधी के बार-बार अनुच्छेद 356 का उपयोग करने पर चर्चा तो करना पसंद करते हैं, लेकिन दूसरे दलों के शासन वाले राज्यों के प्रति उनका रवैया अच्छा नहीं रहा है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह के शासनकाल में उन राज्यों की ओर कम ध्यान दिया गया, जहां भाजपा का शासन नहीं है। चुने हुए मुख्यमंत्रियों का मजाक उड़ाया गया। जान-बूझकर ऐसे राज्यपालों को नियुक्त किया गया है, जिन्होंने द्वेष की भावना से ग्रस्त होकर हर मोड़ पर राज्य सरकार के काम में बाधा पहुंचाई है। यहां तक कि गणतंत्र दिवस परेड जैसे महत्वपूर्ण आयोजनों से अन्य दलों द्वारा शासित राज्यों की झांकियों को हटाकर यह स्पष्ट कर दिया कि वे तब तक चैन से नहीं बैठेंगे, जब तक कि भारत के प्रत्येक राज्य में भाजपा का शासन नहीं हो जाता। उनके इस व्यवहार से अधिनायकवाद और निरंकुशता की बू आती है।
हमने अभी देखा है कि आम चुनाव में करोड़ों भारतीयों ने अपने मताधिकार का उपयोग किया। हालांकि यह कहना सही है कि ये वोट गैर प्रतिनिधित्व वाली पार्टी, समझौता किए गए संस्थानों, अलोकतांत्रिक कानून, गिरती अर्थव्यवस्था, असुरक्षित अल्पसंख्यक और संघीय ढांचे के बढ़ते तनाव के संदर्भ में दिए गए थे। आने वाले समय में जो भी सरकार सत्ता में आएगी, उसके लिए सबसे पहला काम इन सभी गलतियों को सुधारना होगा।