भारत की अदालतों में 5 करोड़ से ज्यादा मामले लंबित ? भारत के सुप्रीम कोर्ट का इतिहास …

 जजों की कमी या ट्रायल में दिक्कत…,
भारत की अदालत में क्यों पेंडिंग है 5 करोड़ केस?
देश की अदालतों में लंबित मामलों का आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है. हाल ही में शीतकालीन सत्र के दौरान कानून मंत्री अर्जुनराम मेघवाल ने लंबित मामलों के जो आंकड़े बताए वो चौंकाने वाले हैं.

संसद में एक सवाल के जवाब में मेघवाल ने बताया कि 1 दिसंबर तक अदालतों में 5,08,85,856 मामले लंबित हैं. इनमें से 61 लाख से ज्यादा मामले उच्च न्यायालयों के स्तर पर हैं. वहीं जिला और अधीनस्थ अदालतों में लंबित मामलों की संख्या 4.46 करोड़ से ज्यादा है.

मानसून सत्र के बाद बड़ी लंबित मामलों की संख्या?
इससे पहले कानून मंत्री अर्जुनराम मेघवाल ने मानसून सत्र के दौरान भी एक सवाल के जवाब में लंबित मामलों की संख्या बताई थी. जिसमें उन्होंने लंबित मामलों की संख्या 5.2 करोड़ बताते हुए कहा था, “इंटीग्रेटेड केस मैनेजमेंट सिस्टम (आईसीएमआईएस) से प्राप्त आंकड़ों के मुताबिक 1 जुलाई तक सुप्रीम कोर्ट में 69,766 मामले लंबित हैं.

नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड (एनजेडीजी) पर मौजूद जानकारी के मुताबिक 14 जुलाई तक हाई कोर्ट में 60,62,953 और जिला और अधीनस्थ अदालतों में 4,41,35,357 मामले लंबित हैं.”

वहीं संसद के शीतकालीन सत्र में लंबित मामलों की संख्या 5,08,85,856 बताई गई है. जाहिर है लंबित मामलों में लगातार इजाफा होता जा रहा है. वहीं पिछले सत्र के दौरान सुप्रीम कोर्ट में जहां लंबित मामलों की संख्या 69,766 बताई गई थी अब इसमें में इजाफा हो गया है और ये संख्या 80 हजार पहुंच गई है.

जजों और न्यायिक अफसरों की कमी बढ़ा रही लंबित मामलों की संख्या?
अदालतों में जजों की कमी लंबित मामलों की बढ़ती संख्या में एक बड़ी वजह है. सरकार द्वारा दिए जवाब के अनुसार, भारतीय न्यायालयों में जजों की कुल स्वीकृत संख्या 26,568 जजों की है, जिनमें से सुप्रीम कोर्ट में जजों की स्वीकृत संख्या 34 तो वहीं हाई कोर्ट में जजों की स्वीकृत संख्या 1,114 है.

इसके अलावा जिला एवं अधीनस्थ अदालतों में जजों की स्वीकृत संख्या 25,420 है. हालांकि कुल जजों की संख्या में से 324 पद अभी खाली हैं और उन पर जजों की नियुक्ति नहीं हुई है.

वहीं राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड  (NJDG)  के आंकड़ों पर नजर डालें तो इस रिपोर्ट के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट में फिलहाल 80, 344 मामले लंबित हैं. जिनमें से 78 प्रतिशत मामले दीवानी यानी सिविल हैं तो वहीं 22 प्रतिशत मामले आपराधिक.

आपको ये जानकर हैरानी होगी कि उच्चतम न्यायालय में लंबित मामलों में 4 हजार से ज्यादा मामले ऐसे हैं जो एक दशक से ज्यादा समय से लंबित पड़े हैं.

इन आंकड़ों पर गौर करें तो 37, 777 ऐसे मामले हैं जिनका निपटारा इस साल की शुरुआत से पहले ही कर लिया गया था. वहीं लंबित मामलों में 62,859 मामले सिविल हैं, जिनमें से 17,897 मामले एक साल पहले ही सुप्रीम कोर्ट पहुंचे हैं. इसके अलावा 17,485 मामले आपराधिक हैं, जिनमें से 7,222 केस एक साल से भी कम समय पहले सुप्रीम कोर्ट के पास पहुंचे हैं.

राज्यसभा में विधि द्वारा दिए गए जवाब के अनुसार भारत में प्रति 10 लाख जनसंख्या पर 21 जज ही हैं. ऐसे में जजों की कमी लंबित मामलों का एक बड़ा कारण बनकर सामने आती है. भारत में न्यायाधीश जनसंख्या अनुपात भी दूसरे देशों की तुलना में बहुत कम है.

ऐसे में अदालत में लंबित मामलों की संख्या को देखते हुए अधिक न्यायाधीशों की जरूरत है.

इसके अलावा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को आधिकारिक एवं गैर-आधिकारिक समारोहों (जैसे सम्मेलन, सेमिनार, उद्घाटन आदि) में भी जाना पड़ता है, जिसमें उनका बहुत समय बर्बाद हो जाता है और इसका असर मामलों की सुनवाई में भी पड़ता है.

लंबित मामलों के बढ़ने के कारण
जजों की कमी के अलावा देश की अदालतों में चल रहे केसों के लंबित होने का कारण अदालत के कर्मचारियों और कोर्ट के इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी, साक्ष्यों का न जुटाया जाना, जांच एजेंसियों, गवाहों और वादियों जैसे हितधारकों के सहयोग में कमी भी शामिल है.

मामलों के निपटान में देरी की एक वजह अलग-अलग तरह के मामलों के निपटान के लिए संबंधित अदालतों की तरफ से निर्धारित समय सीमा की कमी, बार-बार मामले में सुनवाई का टलना और सुनवाई के लिए मामलों की निगरानी, लंबित मामलों को ट्रैक करने की व्यवस्था की कमी भी किसी भी केस के परिणाम तक पहुंचने में बहुत समय लगा देती है. 

देश की सरकार के अनुसार, अदालतों में मामले के निपटान के लिए पुलिस, वकील, जांच एजेंसियां और गवाह किसी भी मामले में अहम किरदार निभाते हैं, लेकिन इन्हीं लोगों द्वारा यदि कई कार्यों में देरी की जाती है जो परिणामों तक पहुंचने में समय लगा देती है.

क्या बन रहा चुनौती
वर्तमान में अदालतों में वकीलों की गैरहाजिरी की वजह से मामलों की सुनवाई नहीं हो पाती है. कानून मंत्री के अनुसार, “अदालतों में लंबित मामलों का निपटारा न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र में है. अदालतों में मामलों के निपटारे में सरकार की कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं है.”

वहीं नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड की रिपोर्ट में हाल ही में ये सामने आया था कि देश में लंबित मामलों में 61,57,268 ऐसे हैं जिनमें वकील पेश नहीं हो रहे हैं और 8,82,000 मामलों में केस करने वाले और विरोधी पक्षों ने ही कोर्ट आना छोड़ दिया है.

रिपोर्ट के अनुसार 66,58,131 मामले ऐसे हैं जिनमें आरोपी या गवाहों की पेशी नहीं होती है. इस वजह से भी मामले की सुनाई नहीं हो पाती है. ऐसे कुल 36 लाख से अधिक मामले हैं जिनमें आरोपी जमानत लेकर फरार हो गए हैं.

क्या है उपाय?
जानकारों के अनुसार, इन चुनौतियों का सामना करने के लिए कई समाधान पेश किए गए हैं. सबसे पहले अदालतों की संख्या बढ़ाना जरूरी है. ज्यादा न्यायाधीशों की नियुक्ति करना भी एक तरीका है. संरचनात्मक संशोधन और नए सिस्टम की जरूरत है.

इसके अलावा कई अदालतों में अभी भी आधुनिकीकरण और डिजिटलीकरण की कमी है, जिससे काम की रफ्तार भी काफी धीमी चल रही है.

मिड डे मील की खबर के अनुसार जानकारों की मानें तो कई बार न्यायाधीश पूर्व सूचना के बावजूद न्यायालयों में नहीं बैठते. नतीजतन पूरे बोर्ड को छुट्टी दे दी जाती है. ऐसे में वकीलों और वादियों सहित शामिल सभी पक्षों के लिए समय का बड़ा नुकसान होता है.

वहीं कोर्ट में रिक्तियों को लंबे समय से नहीं भरा गया है. इसके अलावा देश भर में कानूनी शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार की भी जरूरत है. न्यायालयों के कामकाज को बुनियादी ढांचा प्रदान करना और गुणवत्तापूर्ण बनाना भी जरूरी है.

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भारत के सुप्रीम कोर्ट का इतिहास, लंबित मामलों की बढ़ती संख्या और इसका अधिकार क्षेत्र क्या है?
सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया की स्थापना 1950 में गणतंत्र दिवस के ठीक दो दिन बाद की गई थी, जिसके बाद से ही सर्वोच्च अदालत देश के बड़े से बड़े और प्रमुख मामलों की सुनवाई करती आ रही है.

देश का बड़े और प्रमुख मामलों में फैसला सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुनाया जाता है. 73 साल पुराना भारत का सर्वोच्च न्यायालय देश की सबसे ताकतवर अदालत है. जो अधिनियमों, संसदीय कानूनों और संविधान में संशोधन को भी रद्द करने की शक्ति अपने पास रखती है.

इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट के पास स्वतंत्र रूप से मामलों को शुरू करने, मामलों में मदद करने के लिए सहयोगियों को नियुक्त करने और पैचीदा मामलों में निर्णय लेने में सहायता के लिए विशेष पैनल का गठन करने की भी शक्ति है.

देश की सर्वोच्च अदालत में 34 जज बैठते हैं जो हर साल लगभग 1 हजार मामलों में फैसला सुनाते हैं, फिर भी अदालत में फिलहाल लगभग 80 हजार से ज्यादा मामले लंबित हैं. आज हम इस आर्टिकल में जानेंगे सुप्रीम कोर्ट का संपूर्ण इतिहास और क्या है अदालत में इतने मामलों के लंबित रहने का कारण.

क्या है सुप्रीम कोर्ट का इतिहास?
ब्रिटिश राज में 1 अक्टूबर 1937 को फेडरल ऑफ इंडिया के तौर पर भारत के सर्वोच्च न्यायालय की नींव रखी गई थी. इस दौरान भारत के सर्वोच्च न्यायालय बॉम्बे, मद्रास और कलकत्ता में थे. इसके बाद 1947 में देश को अंग्रेजों से आजादी मिली और 26 जनवरी 1950 को देश के संविधान की स्थापना हुई, साथ ही यही वो दिन था जब देश में सुप्रीम कोर्ट की स्थापना का भी ऐलान किया गया था.

इसके ठीक दो दिन बाद यानी 28 जनवरी 1950 को संविधान के अनुच्छेद 124 के तहत देश में सुप्रीम कोर्ट अस्तित्व में आया. पहली अदालत संसद भवन के क्वींस कोर्ट में सुबह पौने दस बजे लगी थी.

हालांकि संसद भवन ही सुप्रीम कोर्ट का स्थान नहीं था, लिहाजा दिल्ली के तिलक नगर में इसकी नई इमारत बनाई गई, जिसका डिजाइन केन्द्रीय लोक निर्माण विभाग के पहले केंद्रीय अध्यक्ष गणेश भीकाजी देवलालीकर ने इंडो ब्रिटिश स्थापत्य शैली में बनाया था. 22 एकड़ में बने इस परिसर में सुप्रीम कोर्ट साल 1958 में आया था. जो अब भी यहीं से संचालित होता है.

देश के पहले मुख्य न्यायाधीश हरिलाल जेकिसुनदास कनिया थे. जिनका कार्यकाल 1950 से 6 नवंबर 1951 तक चला. जिसके बाद अब तक भारत में 50 मुख्य न्यायाधीश अपनी सेवा दे चुके हैं.

वहीं सुप्रीम कोर्ट में जज की बात करें तो अनुच्छेद 124 के तहत सर्वोच्च न्यायालय को अपने सदस्यों की संख्या बढ़ाने का अधिकार है. साल-दर-साल कार्य के बढ़ते बोझ और अनसुने मुकदमों की बढ़ती संख्या के साथ भारतीय संसद में न्यायाधीशों की संख्या जो 1950 में 8 थी उसे 1956 में बढ़ाकर 11 कर दिया गया

इसके बाद 1960 में इसे 14, 1978 में 18, 1986 में 26, 2009 में 31 और साल 2019 में 34 कर दिया गया. हालांकि लंबित मामलों को देखते हुए अब भी सुप्रीम कोर्ट में जजों की कमी महसूस की जाती है.

सुप्रीम कोर्ट के पास हैं कौन से अधिकार?
सुप्रीम कोर्ट के अधिकार क्षेत्र की बात करें तो देश की सर्वोच्च न्यायालय के पास मूल, अपीलीय और सलाहकारी अधिकार क्षेत्र हैं. इसे आम भाषा में समझें तो सर्वोच्च न्यायालय एक संवैधानिक न्यायालय के साथ-साथ अपील न्यायालय के रूप में भी कार्य करता है.

सुप्रीम कोर्ट अलग-अलग बैंचेस के रूप में मामले की सुनवाई करता है. जो मुख्य न्यायाधीश के निर्देशों पर रजिस्टर किए जाते हैं. किसी भी संवैधानिक मामलों की सुनवाई के लिए पांच, सात या 9 जजों की बैंच सुनवाई करती है.

सुप्रीम कोर्ट देश में सरकार द्वारा लागू किए गए अधिनियमों और संसदीय कानूनों को भी रद्द कर सकता है. ऐसे में इस अदालत को कई लोग देश की सर्वोच्च शक्ति के रूप में भी जानते हैं. 

34 जज और 80 हजार से ज्यादा लंबित मामले
राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड  (NJDG)  के आंकड़ों के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट में फिलहाल 80, 344 मामले लंबित हैं. जिनमें से 78 प्रतिशत मामले दीवानी यानी सिविल हैं तो वहीं 22 प्रतिशत मामले आपराधिक. ये जानकर हैरानी होगी कि सुप्रीम कोर्ट में लंबित मामलों में 4 हजार से ज्यादा मामले ऐसे हैं जो एक दशक से ज्यादा समय से लंबित हैं.

आंकड़ों पर गौर करें तो 37, 777 ऐसे मामले हैं जिनका निपटारा इस साल की शुरुआत से पहले ही कर लिया गया था. हालांकि लंबित मामलों में 62,859 मामले सिविल हैं, जिनमें से 17,897 मामले एक साल पहले ही सुप्रीम कोर्ट पहुंचे हैं. वहीं 17,485 मामले आपराधिक हैं, जिनमें से 7,222 केस एक साल से भी कम समय पहले सुप्रीम कोर्ट के पास पहुंचे हैं.

सर्वोच्च अदालत में क्यों बढ़ रही लंबित मामलों की संख्या?
राज्यसभा में विधि द्वारा दिए गए जवाब के अनुसार भारत में प्रति दस लाख जनसंख्या पर 21 जज ही हैं. ऐसे में जजों की कमी लंबित मामलों का एक बड़ा कारण है. भारत में न्यायाधीश जनसंख्या अनुपात भी अन्य देशों की तुलना में बहुत कम है. ऐसे में अदालत में लंबित मामलों की संख्या को देखते हुए अधिक न्यायाधीशों की आवश्यकता है.

इसके अलावा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को आधिकारिक एवं गैर-आधिकारिक समारोहों (जैसे सम्मेलन, सेमिनार, उद्घाटन आदि) में भी जाना पड़ता है, जिसमें उनका बहुत समय बर्बाद हो जाता है और इसका असर मामलों की सुनवाई में भी पड़ता है.

साथ ही कोर्ट रूम की कमी भी लंबित मामलों का एक बड़ा कारण है. दरअसल सर्वोच्च न्यायालय में फिलहाल 17 कोर्ट रूम हैं. ऐसे में सभी पीठों और कई मामलों की सुनवाई एक साथ होना संभव नहीं हो पाता, ये भी लंबित मामलों के एक कारण के रूप में उभरकर सामने आता है.

लंबित मामलों के बारे में बात करते हुए बीबीसी से हुई बातचीत में हार्वर्ड लॉ स्कूल के फेलो निक रॉबिन्सन ने बताया कि अदालत प्रणाली में महत्वपूर्ण मामलों की तुलना में सामान्य मामलों को ज्यादा प्राथमिकता दी जाती है, जो अदालत की आलोचना को आमंत्रित करता है.

आलोचना के बारे में बताते हुए उन्होंने बताया कि अदालत की आलोचना ये होती है कि अदालत राजनीतिक रूप से संवेदनशील मुद्दों से बचने के लिए अपने बैकलॉग को ढाल के रूप में इस्तेमाल करती है और इस तरह की आलोचना अदालत को अपने मूल उद्देश्यों से दूर करने का काम कर रही है.

वहीं इस मुद्दे पर ‘कोर्ट ऑन ट्रायल: ए डेटा-ड्रिवन अकाउंट ऑफ़ द सुप्रीम कोर्ट ऑफ़ इंडिया’ किताब में लिखा गया है कि लंबित मामलों का एक मुख्य कारण अदालतों द्वारा प्रमुख या जरूरी मामलों की सुनवाई को छोड़कर छोटे मामलों की सुनवाई करना भी है.

अपर्णा चंद्रा, सीतल कलंत्री और विलियम एचजे हबर्ड द्वारा लिखी गई इस किताब में एक बड़े पत्रकार की गिरफ्तारी से जुड़े मामले का हवाला देते हुए बताया गया कि कैसे अदालत ने कश्मीर से जुड़े मामले से ज्यादा इस मामले को अहमियत दी थी.  

 

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