क्या कोई समान या सेक्युलर नागरिक संहिता हो सकती है?
क्या कोई समान या सेक्युलर नागरिक संहिता हो सकती है?
ध्यान रहे कि भारत की सबसे बड़ी विवाह और उत्तराधिकार संहिता हिंदू सिविल कोड है, जिसके दायरे में हमारी तीन चौथाई आबादी आती है। स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री की निगाह में इस्लामिक और ईसाई संहिताओं के साथ-साथ हिंदू सिविल कोड भी साम्प्रदायिक संहिता ही है।
दूसरा प्रश्न यह है कि क्या भारत जैसे बहुधार्मिक देश में कोई ‘सेक्युलर’ सिविल कोड सम्भव है? इसी सवाल को इस तरह से भी पूछा जा सकता है कि क्या दुनिया में कोई भी सिविल कोड सेक्युलर हो सकता है?
चूंकि देश के सबसे बड़े सिविल कोड के नाम में हिंदू शब्द लगा है, इसलिए यह भ्रम हो सकता है कि उसका दायरा हिंदू समाज तक सीमित होना चाहिए। जबकि यह सिविल कोड सिख, बौद्ध और जैन समाजों को भी अपने में सम्मिलित करता है। इस लिहाज से यह भी एक बहुधार्मिक सिविल कोड है।
जब डॉ. आम्बेडकर ने इस सिविल कोड की पेशकश की थी, तब सरदार हुकुम सिंह ने उनसे पूछा था कि वे सिखों को हिंदू दायरे में क्यों समेटे दे रहे हैं? बाबासाहेब ने इसका जो जवाब दिया था, वह इतिहास में दर्ज है। उन्होंने अपनी व्याख्या को सिखों तक ही सीमित न रखते हुए उसका विस्तार बौद्धों और जैनों तक कर दिया था।
उनका कहना था कि सिख गुरुओं की तरह भगवान बुद्ध और जैन तीर्थंकरों ने ब्राह्मणों से जो भी बहस की हो, पर उन्होंने हिंदू दायरे से अलग विवाह-कानून की वकालत कभी नहीं की। देखा जाए तो यह कानून आम्बेडकर और नेहरू की आधुनिकतावादी और कथित ‘सेक्युलर’ मंशाओं के परे हिंदू पहचान का काफी विस्तार कर देता है।
विद्वानों का मानना है कि इस कारण हिंदुओं की दो श्रेणियां बन गई हैं। एक वे जो हिंदू परिवारों में पैदा हुए यानी जन्मना हिंदू। दूसरे वे जो सिख, बौद्ध और जैन होने के बावजूद हिंदू विवाह कानून से विनियमित होते हैं यानी जो ‘लीगली’ हिंदू हैं।
हिंदुत्ववादी पैरोकारों को तो खुश होना चाहिए कि सेक्युलरवाद और आधुनिकता में निष्ठा रखने वाले (साथ ही हिंदुत्ववादी राजनीति का विरोध करने वाले) नेताओं द्वारा बनाया कानून अंतत: सावरकर द्वारा किए हिंदुत्व के सूत्रीकरण की पुष्टि करने वाला साबित हुआ।
सावरकर ने यही दावा तो किया था कि भारत को अपनी पुण्यभूमि मानने वाले (यानी जिनके धर्म भारत में ही जन्मे) सभी सांस्कृतिक व राजनीतिक रूप से हिंदू हैं। भले ही यह कानून इन चारों धर्मों के अनुयायियों को सांस्कृतिक रूप से एक न बनाता हो, लेकिन उसने इन्हें कानूनी रूप से तो सावरकर की वैचारिक डिजाइन के मुताबिक बना ही दिया है।
अगर इस्लामिक सिविल कोड के कुछ प्रावधानों पर आपत्ति है तो उनका निराकरण संसद में विधायी प्रस्ताव लाकर किया जा सकता है। मसलन, जिस तरह तीन तलाक के खिलाफ कानून बनाया गया है, उसी तरह मुसलमान पुरुषों द्वारा एकाधिक शादियां करने के अधिकार को खारिज करने की योजना पर भी अमल किया जा सकता है।
इसके लिए किसी ‘समान’ नागरिक संहिता बनाने का बीड़ा उठाने की जरूरत नहीं है। जो विवाह-कानून इस समय देश में चल रहे हैं, उनका बारीक अध्ययन करवाकर उनकी खामियां चिह्नित की जा सकती हैं और उनका निराकरण करके उन कानूनों को और बेहतर बनाया जा सकता है। हिंदुत्ववादियों को ईसाई सिविल कोड पर कोई आपत्ति शायद नहीं है।
लेकिन भारत जैसे बहुधार्मिक देश में बनाया गया कोई सिविल कोड न तो ‘समान’ हो सकता है, और न ही ‘सेक्युलर’। यूरोप के आधुनिक लोकतंत्रों में भी जो विवाह संहिताएं हैं, वे मुख्यत: ईसाई धर्म की संहिताओं के मुताबिक ही हैं। एकनिष्ठ विवाह (एक स्त्री-पुरुष की एक ही शादी) का सिद्धांत मुख्य रूप से ईसाई धर्मशास्त्र से निकाला गया नियम है।
लेकिन इसे गैर धार्मिक अर्थों में सेक्युलर नियम के तौर पर नहीं देखा जा सकता। पश्चिम के विवाह कानून ‘समान’ प्रतीत होते हैं क्योंकि वे समाज सारे के सारे समरूप ईसाई समाज हैं। भारत की बहुधार्मिकता उसकी खामी न होकर खूबी है।
इसलिए इस देश में एक बहुधार्मिक विवाह कानून (जैसे हिंदू सिविल कोड) और कुछ अलग-अलग मजहबों की नुमाइंदगी करने वाले सिविल कोडों का सह-अस्तित्व रह सकता है। क्या नेहरू और इंदिरा गांधी जैसे नेताओं ने इस मसले पर गौर नहीं किया होगा? उनके पास तो आज की सरकार से अधिक बहुमत और राजनीतिक प्रतिष्ठा थी। संविधान के निर्देश के बावजूद आज तक समान नागरिक संहिता क्यों नहीं बन पाई?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)