यूपी के नतीजों से भाजपा को दो स्पष्ट संदेश मिले हैं

यूपी के नतीजों से भाजपा को दो स्पष्ट संदेश मिले हैं

भारत की आजादी के बाद से तीसरा कार्यकाल पाने वाले दूसरे प्रधानमंत्री बनने वाले नरेंद्र मोदी अब इतिहास की किताबों में दर्ज हो जाएंगे। पहले पं. जवाहरलाल नेहरू थे। और इसके बावजूद, यह चुनावी जनादेश की असली कहानी नहीं है। भारत की जनता द्वारा उनकी- या किसी भी राजनेता की- असीमित शक्ति को सीमित करने के लिए खींची गई सीमारेखाएं- यह 2024 के जनादेश की सबसे सम्मोहक हेडलाइन है।

इन नतीजों ने कुछ ही घंटों में राजनीतिक भाषा बदल दी है। नतीजों के दिन भाजपा कार्यकर्ताओं को दिए गए भाषण में मोदी ने अगली सरकार को भाजपा नहीं एनडीए सरकार बताया। एनडीए गठबंधन की बैठक के बाद की तस्वीरों में फ्रेम में तीन लोग थे- चंद्रबाबू नायडू, नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी। यह पिछले दस सालों से बहुत अलग दृश्य-भाषा थी, जिसमें सावधानीपूर्वक गढ़े गए पर्सनैलिटी-कल्ट के चलते किसी अन्य को चित्र में आने की अनुमति नहीं दी गई थी।

भाजपा समर्थकों का तर्क है कि पार्टी ने 2024 में उतनी ही सीटें जीती हैं, जितनी कांग्रेस ने 1991 में जीती थीं। लेकिन मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा की असली कमजोरी यह है कि उसे अपने ही गढ़ यूपी में झटका लगा है। जब मैंने कन्याकुमारी से कश्मीर तक सड़क मार्ग से यात्रा की थी, तो उसमें देखे गए दृश्यों से यह स्पष्ट हो गया था कि चुनाव-अभियान में राम मंदिर मुख्य मुद्दा नहीं था।

अयोध्या/फैजाबाद की सीट पर भाजपा का हारना यह बताता है कि विपक्ष ने यूपी में चुनाव को कितना स्थानीय बना दिया था, जिससे भाजपा के दो बड़े ब्रांड मोदी और योगी एक साथ कमजोर हो गए। यूपी में जो कुछ हुआ, उसे समझाने के लिए कई अन्य फैक्टर हैं- जैसे कि टिकटों का अविवेकपूर्ण वितरण, बाहरी लोगों को पार्टी में लाना आदि। लेकिन तथ्य यह है कि अगर मायावती ने ऐसे उम्मीदवार नहीं उतारे होते, जो भाजपा विरोधी वोटों को विभाजित करने में मदद करते, तो भाजपा को 10-15 सीटें और गंवानी पड़ सकती थीं। अकेले यूपी में उसकी संख्या गिरकर 19 सीटों तक आ सकती थी।

यूपी में अपनी यात्रा के दौरान, बरगद के पेड़ की छाया में बैठे एक गांव के किसान से मिलना मुझे याद आता है, जिसने मुझे बताया कि प्रधानमंत्री के भाषणों में काम की बातें नहीं हैं। जब बच्चे हमारे आस-पास धूप में खेल रहे थे- वे बच्चे जो डॉक्टर, सैनिक और पुलिसकर्मी बनने के सपने देख रहे थे- किसान ने मुझसे कहा, हमसे धर्म के बारे में बात मत करो। हमसे नौकरियों, स्कूलों, बिजली और पानी के बारे में बात करो।

यूपी के नतीजों से भाजपा को दो संदेश स्पष्ट रूप से ग्रहण करने चाहिए। एक तो यह कि राजनीति में धर्म का इस्तेमाल करने की अपनी सीमाएं होती हैं। एक सीमा के बाद, यह आपके कट्टर प्रशंसकों को भी निराश करने लगती है। और दो, भारतीय मतदाता समय-समय पर राजनेताओं को याद दिलाता रहेगा कि उनकी ताकत जनता में निहित है।

राजस्थान, हरियाणा और यूपी जैसे हिंदी भाषी राज्यों में आजीविका और बेरोजगारी सभी अन्य मुद्दों से ऊपर हैं। पूर्वी यूपी में विपक्ष की एक रैली में मेरी मुलाकात एक युवक से हुई, जिसने कहा- अगर मोदी 70 से अधिक की उम्र में भारत से एक और मौका मांग सकते हैं, तो क्या मुझे बीस साल की उम्र में नौकरी मांगने का हक नहीं है?

एक अन्य युवक ने बेहद अलोकप्रिय अग्निवीर योजना की ओर इशारा करते हुए कहा, कोई भी लड़की ऐसे व्यक्ति से शादी नहीं करना चाहती, जिसकी नौकरी केवल चार साल तक चलती हो। खबरें बताती हैं कि नीतीश कुमार पहले ही अग्निवीर योजना की समीक्षा की मांग कर चुके हैं। और यह हमें इस बात पर ले आता है कि मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल में क्या मौलिक रूप से बदलेगा।

नीति-निर्माण में एकतरफावाद नहीं चलेगा। मोदी को एक राष्ट्र, एक चुनाव लागू करने की किसी भी योजना को दफनाना होगा। उनके क्षेत्रीय सहयोगी- जो किंगमेकर के रूप में उभरे हैं- वे इस योजना में संघीय ताकतों को कमजोर करने का प्रयास देखेंगे और ऐसा कभी नहीं होने देंगे।

यूसीसी की योजनाएं भी इसी तरह दूर की कौड़ी लगने लगी हैं। हमें नहीं भूलना चाहिए कि चंद्रबाबू नायडू ने मुस्लिम अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण की वकालत की है। बेशक भारत का संविधान धर्म-आधारित आरक्षण की अनुमति नहीं देता है, पर यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि वर्तमान भाजपा और चंद्रबाबू नायडू की राजनीति में कितना अंतर है। क्या हम भूल गए कि कांग्रेस पर मोदी के हमले का एक मुख्य बिंदु यह आरोप था कि वे ओबीसी कोटा कम करके इसे मुसलमानों को देना चाहते हैं?

इधर विपक्ष के पास भी जश्न मनाने के कारण भले हों, लेकिन वह अपनी उपलब्धियों से संतुष्ट नहीं हो सकता। इंडिया गठबंधन के लिए मुख्य प्रश्न यह है कि आने वाले सालों में कैसे एकजुट और मजबूत बने रहा जाए। पहले से ही ऐसी अफवाहें हैं कि भाजपा उद्धव ठाकरे को वापस लाना चाहती है।

(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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