बदले नतीजों के बावजूद पुराने ढर्रे की राजनीति ?

बदले नतीजों के बावजूद पुराने ढर्रे की राजनीति

अगर 2024 के लोकसभा चुनाव नतीजों का प्रयोजन देश के राजनीतिक नेतृत्व को पहले से अधिक विनम्र बनाना था तो लगता नहीं कि ऐसा हुआ है। सरकार ऐसे काम कर रही है, जैसे उसने वास्तव में ही अपना 400 सीटों का लक्ष्य हासिल कर लिया हो।

उधर कांग्रेस ऐसे दिखा रही है, जैसे उसने बहुमत का आंकड़ा पार कर लिया हो। इसका नतीजा यह है कि ऐसे समय में फिर से टकराव उभर रहे हैं, जब देश को अति-ध्रुवीकृत राजनीति से राहत की सख्त जरूरत थी। लोकसभा अध्यक्ष के चयन को लेकर टाला जा सकने वाला टकराव सुलह और आम सहमति के अभाव का ताजा उदाहरण मात्र है।

कुछ और भी चिंताजनक संकेत हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल अभी भी कानून प्रवर्तन एजेंसियों के निशाने पर हैं। ईडी के मामले में उनकी जमानत-याचिका सुप्रीम कोर्ट में आने से कुछ ही घंटे पहले सीबीआई ने उन्हें गिरफ्तार करने की कोशिश की।

लेखिका अरूंधती रॉय के खिलाफ चौदह साल पुराने मामले को फिर से शुरू किया गया है और आतंकवाद विरोधी कानून के तहत उन पर मुकदमा चलाने की मंजूरी दी गई है। यूपी में बुलडोजरों से घरों को ढहाना जारी है। और छत्तीसगढ़ में फिर से गोरक्षकों का बोलबाला है।

प्रधानमंत्री की सत्ता की रणनीति का एक अभिन्न हिस्सा यह है कि कभी भी राजनीतिक कमजोरी का कोई संकेत न दें, कम से कम सार्वजनिक रूप से तो नहीं। गांधीनगर और दिल्ली दोनों जगहों पर 23 साल की निर्बाध सत्ता में, नरेंद्र मोदी ने एक बार भी अपनी कमजोरियों या निर्णय-संबंधी भूलों को स्वीकार नहीं किया है।

शायद यही वजह है कि 4 जून के अपेक्षाकृत चुनावी अल्पमत के बावजूद वे यह आभास दे रहे हैं कि वास्तव में कुछ भी नहीं बदला है। वे अपने तीसरे कार्यकाल में किसी तरह की ढील देने के मूड में नहीं हैं, भले ही अब वे गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर रहे हों।

नीट-यूजी और यूजीसी-नेट परीक्षा के मुद्दे को ही लें, जिसने बड़ी संख्या में प्रभावित छात्रों को सड़क पर ला दिया है। शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान इसमें सरकार की ओर से बोल रहे हैं। प्रधान पिछली सरकार में भी शिक्षा मंत्री थे, इसलिए वे ऐसा नहीं जता सकते कि यह सब उनके लिए कोई नया अनुभव है।

सच तो यह है कि पिछले सात वर्षों में, 70 से अधिक राष्ट्रीय और राज्य स्तर के पेपर लीक हो चुके हैं। अधिकारी इस समस्या से निपटने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। मंत्री द्वारा शुरू में इनकार की मुद्रा में रहना, प्रदर्शनकारी छात्रों को दोषी ठहराना और फिर इसे एक अपवाद के रूप में खारिज कर देना बताता है कि प्रधान शायद ओडिशा के पहले भाजपा मुख्यमंत्री बनना ज्यादा पसंद करते, लेकिन अभी तो उन्हें गहरे संकट में फंसी परीक्षा प्रणाली की जिम्मेदारी उठानी होगी।

सरकार के डिनायल-मोड में रहने का एक और उदाहरण लीजिए। पिछले 13 महीनों से मणिपुर हिंसा के चक्र में फंसा हुआ है। इस अवधि में प्रधानमंत्री ने संकटग्रस्त राज्य का एक भी दौरा नहीं किया है। लंबे चुनाव अभियान के दौरान दर्जनों मीडिया इंटरव्यू में भी एक बार भी मणिपुर की स्थिति पर बात नहीं की गई, न ही उनसे इस पर कोई सवाल पूछा गया।

गृह मंत्री अमित शाह पर मणिपुर की जिम्मेदारी छोड़ दी गई है। शाह ने सुरक्षा अधिकारियों के साथ कई उच्च-स्तरीय समीक्षा बैठकें की हैं, लेकिन वो राजनीतिक पहुंच कहां है, जो स्थानीय लोगों के घावों पर मरहम लगा सके?

उधर कंचनजंघा एक्सप्रेस और एक मालगाड़ी के बीच आमने-सामने की टक्कर ने एक बार फिर रेल सुरक्षा प्रणाली में खामियों को उजागर किया है। बहुप्रतीक्षित ‘कवच’ प्रणाली देश के विशाल रेल-नेटवर्क के एक हिस्से को ही कवर करती है।

रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव के पास रेलवे और सूचना-प्रौद्योगिकी के अलावा सूचना और प्रसारण मंत्रालय भी है। विडंबना यह है कि दुखद दुर्घटना के दिन मल्टी-टास्किंग मंत्री को महत्वपूर्ण महाराष्ट्र चुनावों के सह-प्रभारी होने की अतिरिक्त जिम्मेदारी भी दी गई थी। क्या देश के पास पूर्णकालिक रेल मंत्री नहीं होना चाहिए?

अगर हर नई वंदे भारत एक्सप्रेस को हरी झंडी दिखाने के साथ श्रेय लिया जाता है तो जब चीजें योजना के अनुसार नहीं होंगी, तो कौन जिम्मेदारी लेगा? इससे पहले पूर्ण-बहुमत ने सरकार को एकतरफा कार्रवाई करने की सुविधा दी थी, लेकिन 2024 के चुनावों ने दिखा दिया है कि नैरेटिव-निर्माण अब सरकार का एकाधिकार नहीं रह गया है। विपक्ष के पास भी अब एक प्रभावी आवाज है और वह भी कभी-कभी एजेंडा तय कर सकता है।

अब मजबूत विपक्ष भी तय कर सकता है एजेंडा…

पूर्ण-बहु मत ने सरकार को एकतरफा कार्रवाई करने की सुविधा दी थी, लेकिन 2024 के चुनावों ने दिखा दिया है कि नैरेटिव-निर्माण अब सरकार का एकाधिकार नहीं रह गया है। विपक्ष के पास भी एक प्रभावी आवाज है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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