देश में वन लगाने को दें जन आंदोलन का रूप !

चिंताजनक: बंजर होती जमीन को हरा-भरा करने का सिर्फ एक ही रास्ता, देश में वन लगाने को दें जन आंदोलन का रूप
United Nations called for discussion on topic of barren land and increasing desert Regarding environment
जलवायु परिवर्तन 

पर्यावरण को लेकर संयुक्त राष्ट्र ने हाल ही में जिस विषय पर चर्चा का आह्वान किया है, वह बंजर पड़ती जमीन और बढ़ता मरुस्थल है। पर्यावरण के मौजूदा हालात से कम से कम यह तो समझा ही जा सकता है कि अब सब कुछ हमारे नियंत्रण से बाहर जा रहा है। इस बार के ग्रीष्म काल को ही देख लीजिए, जिसने फरवरी से ही गर्मी का एहसास दिला दिया था और जून पहुंचते-पहुंचते अपना प्रचंड रूप दिखा दिया। पूरी दुनिया में औसतन तापक्रम बढ़ा है और अब प्रचंड गर्मी के दिन धीरे-धीरे बढ़ते जा रहे हैं। इस बात को राहत न मानें कि आने वाले समय में ये स्थिर हो जाएंगे। आज दुनिया में 80 प्रतिशत लोग इस गर्मी को झेल रहे हैं और ऐसे गर्म दिनों की संख्या पहले प्रतिवर्ष 27 के आसपास होती थी, लेकिन अब वर्ष में 32 दिन ऐसे होते हैं, जब गर्मी खतरे की सीमा तक पहुंच जाती है। अभी बिहार, जैसलमेर, दिल्ली में भयंकर हीटवेव की खबर आई थी, लेकिन देश के अन्य हिस्सों में भी हीटवेव ने लोगों की हालत बदतर कर दी है।

इस बढ़ती गर्मी का सबसे महत्वपूर्ण कारण तो यही है कि हमने पृथ्वी और प्रकृति के बढ़ते असंतुलन की तरफ कभी ध्यान ही नहीं दिया। दुनिया भर में एक-एक करके प्रकृति के सभी संसाधन या तो बिखर गए या फिर घटते चले गए। और इसका जिम्मेदार अगर कोई है, तो स्वयं मनुष्य ही है। हमने अपनी जीवन-शैली को कुछ इस तरह बना लिया है कि अब हम उन आवश्यकताओं से बहुत ऊपर उठ गए हैं, जो जीवन का आधार थीं। अब हमने विलासिताओं को भी आवश्यकताओं में बदल दिया है, जिनके कारण पृथ्वी के हालात गंभीर होते चले गए। मसलन आज हमारी जीवन-शैली में बहुत बड़े बदलाव आए हैं। बढ़ता शहरीकरण और ऊर्जा की अत्यधिक खपत के कारण ग्लेशियर पिघलने लगे हैं, तो नदियां सूखने के कगार पर पहुंच चुकी हैं। जमीन हो या आसमान पृथ्वी का कोई भी हिस्सा सुरक्षित नहीं बचा है।

दुनिया में बढ़ते मरुस्थल की चिंता पर हम कितने गंभीर हैं, इसका पता इन आंकड़ों से चलता है। दुनिया में करीब 24 प्रतिशत भूमि अब मरुस्थलीय लक्षण दिखा रही है। मरुस्थलीय भूमि उसे कहते हैं, जहां कुछ भी पैदा होना संभव नहीं रहता और पूरी धरती लवणीय हो जाती है तथा पानी की बहुत बड़ी कमी हो जाती है। बोलीविया, चिली, पेरू जैसे देशों में 27 से 43 प्रतिशत भूमि मरुस्थलीय हो चुकी है और अर्जेंटीना, मेक्सिको, प्राग की तो 50 प्रतिशत से ज्यादा भूमि बंजर पड़ चुकी है। दुनिया भर में बढ़ते ग्रासलैंड व सवाना जैसे मरुस्थल इसी ओर संकेत करते हैं कि ये भूमि उपयोगी नहीं रहीं।

अपने देश में माना जाता है कि 35 फीसदी भूमि पहले ही डिग्रेड हो चुकी है और इसमें से भी 25 फीसदी बंजर बनने वाली है। ज्यादातर ऐसी भूमि उन राज्यों में है, जो संसाधनों की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। उदाहरण के लिए, झारखंड, गुजरात, गोवा, दिल्ली और राजस्थान भी इनमें शामिल हैं। इन क्षेत्रों में 50 फीसदी से ज्यादा भूमि बंजर होने वाली है। थोड़ी राहत की बात है कि उत्तर प्रदेश, राजस्थान, केरल, मिजोरम जैसे राज्यों में अभी मात्र 10 प्रतिशत भूमि में ही बंजरपन दिखाई दे रहा है।

जहां पहले वन होते थे, तालाब थे, या जहां प्रकृति के अन्य संसाधनों के भंडार होते थे, उन सबको अन्य उपयोगों में ले लिया गया है। एक अनुमान के मुताबिक, दुनिया भर की 50 प्रतिशत भूमि को अन्य उपयोगों में लगा दिया गया है। इनमें 34 फीसदी देश अत्यधिक बदलाव की श्रेणी में हैं, जबकि 48 फीसदी देशों में मध्यम बदलाव हुआ है, और 18 फीसदी देश ही ऐसे हैं, जहां भूमि उपयोग में ज्यादा बदलाव नहीं हुआ है। दक्षिण एशिया में तो 94 प्रतिशत भूमि का उपयोग बदल चुका और यूरोप 90 फीसदी तथा अफ्रीका में यह आंकड़ा 89 प्रतिशत है।

भूमि उपयोग बदलने के कारण प्रकृति तेजी से हमारा साथ छोड़ रही है। जबसे औद्योगिक क्रांति आई, तबसे हमने 68 फीसदी वन खो दिए। आज दुनिया में मात्र 31 फीसदी वन बचे हैं। इस तरह एक व्यक्ति के हिस्से में करीब 0.68 वृक्ष ही आएंगे। अपने देश में दावा किया जाता है कि हमारे पास 23 प्रतिशत भूमि वनों से आच्छादित है। अगर इसे सही मान भी लें, तो हमारे यहां प्रति व्यक्ति के हिस्से में 0.08 भूमि है। दूसरी चिंता की बात यह ही कि देश का ऐसा कोई भी कोना नहीं है, जहां खनन ने अपना पैर न फैला दिया हो। सरकारों के लिए यह राजस्व का सबसे बड़ा स्रोत भी होता है। इसलिए खनन हर राज्य की आय का बड़ा साधन बन चुका है।

फिर दुनिया में खेती के पैटर्न में बहुत ज्यादा बदलाव आया। अब खेती व्यावसायिक हो चली है, जिसमें आक्रामक ढंग से रसायनों का अधिकाधिक उपयोग होता है। पहले पेट भरने के लिए खेती होती थी, पर अब पैसों के लिए खेती की जाती है। नतीजतन खेती वाली भूमि भी बंजर हो गई। पानी के अभाव के कारण भी कई स्थानों पर खेती को त्याग दिया गया है। इसके अलावा, बंजर हालात के लिए क्लाइमेटिक वेरिएशन भी कारण बना है। हर देश में स्थान विशेष की परिस्थिति में ह्रास आया है। आज भी लकड़ी और चारे के लिए जंगलों पर निर्भरता बनी हुई है। दूसरी तरफ गर्मी में एसी और जाड़ों में हीटर का बदस्तूर उपयोग जारी है। हम सुबह से शाम तक ऊर्जा की खपत में लगे रहते हैं, पर उसकी आपूर्ति के रास्ते भी सीमित हो गए।

चिंताजनक बात यह है कि अब हमारे पास भी ऐसा विकल्प नहीं बचा है, जो बंजर पड़ती भूमि को फिर से हरा-भरा कर सके। एक ही रास्ता है कि अगर हम देश में वन लगाने को जन आंदोलन का रूप दे दें, तो शायद कुछ नियंत्रण हो पाए। लेकिन इस क्रम में वनों की प्रजाति पर भी उतना ही गंभीर होना पड़ेगा, क्योंकि स्थानीय वन ही वहां की प्रकृति को जोड़ते हैं और साथ देते हैं। कभी-कभी वनीकरण के दौरान हम ऐसी प्रजातियों पर बल देते हैं, जिनका कोई प्राकृतिक योगदान नहीं होता और ये कमर्शियल फॉरेस्ट्री बन जाती है।

आज दुनिया भर में बढ़ती गर्मी और समुद्र से उठे तूफान हमें समझा रहे हैं कि अब हम अपने चरम पर पहुंच गए हैं, जहां से बंजर होती यह दुनिया फिर शायद हमारे लिए जीने लायक नहीं बचेगी।

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