सरकार पर संसदीय नियंत्रण के लिए जरूरी है सशक्त विपक्ष का होना !

सरकार पर संसदीय नियंत्रण के लिए जरूरी है सशक्त विपक्ष का होना

राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा के दौरान नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने एनडीए सरकार की नीतियों की विफलता की तीखी आलोचना की. बता दें कि दस वर्षों के अंतराल के पश्चात 2024 में लोकसभा को नेता प्रतिपक्ष मिला है. 16 वीं और 17 वीं लोकसभा चुनाव में किसी भी राजनीतिक दल को इतनी सीटें नहीं प्राप्त हो सकीं कि उनके नेता को विपक्ष के नेता के रूप में मान्यता दी जा सके, लेकिन 18 वीं लोकसभा की तस्वीर कुछ अलग है.

इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी सरकार की स्थिरता के लिए अपने सहयोगी दलों पर निर्भर हैं और 99 सीटें जीत कर कांग्रेस नेता राहुल गांधी के हौसले बुलंद हैं. उन्होंने जिस अंदाज में महंगाई, हिंदू धर्म, अग्निवीर, एमएसपी, नीट और मणिपुर के मुद्दे पर अपनी बातें रखीं, उसके कारण सत्ता पक्ष एवं विपक्ष के बीच नोकझोंक के अवसर भी सृजित हुए. इंडिया गठबंधन के घटक दल उत्साहित हैं, क्योंकि उसके पास अभी 234 सीटें हैं. जबकि भाजपा भी अपने बलबूते 240 सीटें ही जीत पाई है.

विपक्ष है इस बार मजबूत 

संख्या बल के हिसाब से इस बार विपक्ष को नई ऊर्जा मिली है. समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव एवं तृणमूल कांग्रेस सांसद महुआ मोइत्रा की लोकसभा में उपस्थिति भाजपा को भविष्य में असहज करती रहेगी. विविधता से परिपूर्ण देश में समस्याओं की कमी नहीं है. इसलिए सशक्त विपक्ष का होना जरूरी है. सरकारों की निरंतरता से यथास्थितिवादी ताकतें लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बाधित करने लगतीं हैं. स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् हुए प्रथम आम चुनाव के दौरान देश में अनेक राजनीतिक दल थे, लेकिन कांग्रेस के विरुद्ध अन्य दलों की सफलता संतोषजनक नहीं थी. इस मामले में रोचक तथ्य यह है कि कांग्रेस की आंतरिक फूट से ही विपक्षी दलों का विकास हुआ. 

1969 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के विभाजन से “संगठन कांग्रेस” अस्तित्व में आई थी और इसके नेता राम सुभग सिंह को लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष के रूप में मान्यता दी गई. गौरतलब है कि विपक्ष के नेता के रूप में उस राजनीतिक दल के नेता को मान्यता मिलती है, जिस दल की सदस्य संख्या सदन के कुल सदस्यों के दसवें भाग के बराबर या उससे अधिक होती है. प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय लोकसभा चुनाव में पंडित जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस को विजय मिली. पंडित नेहरू समाजवादी ढांचे की बातें करते थे जिसके कारण भारतीय साम्यवादी दल, सोशलिस्ट पार्टी, किसान मजदूर प्रजा पार्टी, जनसंघ एवं अन्य राजनीतिक दलों को पर्याप्त मात्रा में वोट मिलना मुश्किल था.

कांग्रेस ने पहले भी पाई है सफलता

नेहरू की समाजवादी नीतियों के विरुद्ध सी राजगोपालाचारी द्वारा स्थापित “स्वतंत्र पार्टी” को जमींदारों एवं राजकुमारों की हितैषी पार्टी माना गया जिसके परिणामस्वरूप इस राजनीतिक दल को अपेक्षित चुनावी सफलता नहीं मिली. उस दौर में विपक्ष की मुखर आवाज राममनोहर लोहिया हुआ करते थे. वरिष्ठ टीवी पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी अपनी किताब “डिजास्टर: मीडिया एण्ड पाॅलिटिक्स” में लिखते हैं, “अब के दौर में संसद की बहस किसी को भी उस ऐतिहासिक बहस की याद नहीं दिलाती जिसमें लोहिया ने नेहरू पर अपने कुत्ते को महंगा मांस और घोड़ों को आयातित चने खिलाने का आरोप जड़ते हुए प्रति व्यक्ति सोलह आने आय के सरकारी आंकड़ों को ही खारिज कर दिया था. बहस के बाद नेहरू ने माना था कि प्रति व्यक्ति आय सोलह नहीं नौ या साढ़े नौ आने है.” हालांकि, लोकप्रिय होने के बावजूद लोहिया राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस का विकल्प नहीं दे पाए. चतुर्थ आम चुनाव के पश्चात केंद्र में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में यद्यपि सरकार तो कांग्रेस की ही गठित हुई लेकिन इसी दौरान पार्टी में विभाजन भी हुआ. पांचवीं लोकसभा चुनाव में इंदिराजी ने “गरीबी हटाओ” का नारा दिया और वोटरों ने उनकी बातों पर भरोसा जताया जिसके फलस्वरूप विपक्षी पार्टियों को करारी शिकस्त मिली.

मजबूत रुप से विपक्ष भी जरूरी 

1970 के दशक में देश ने असामान्य राजनीतिक परिस्थितियों को देखा. बांग्लादेश के निर्माण में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की साहसिक भूमिका की सबने प्रशंसा की, लेकिन जब आंतरिक अशांति के नाम पर आपातकाल की घोषणा हुई और आंदोलनकारी नेताओं को जेल में डाल दिया गया तो कांग्रेस पार्टी को जनाक्रोश का सामना करना पड़ा. 1977 में जब छठी लोकसभा के चुनाव हुए तो नवगठित जनता पार्टी की सरकार बनी और मतदाताओं ने कांग्रेस को सशक्त एवं संगठित विपक्षी दल की भूमिका निभाने का अवसर प्रदान किया. 

कांग्रेस पार्टी के नेता यशवंत राव बलवंत राव चव्हाण को लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष के रूप में केबिनेट स्तर के मंत्री के समान सुविधाएं दी गईं. दरअसल नवंबर 1977 से नेता प्रतिपक्ष को सुविधाएं उपलब्ध कराने की परिपाटी शुरु हुई थी. देश के संसदीय इतिहास में कांग्रेस की पहचान सत्तारूढ़ दल के रूप में रही है और शेष दलों को विरोधी दलों के तौर पर ही देखने की मानसिकता रही है.  1980 में गठित सातवीं लोकसभा एवं 1984 में गठित आठवीं लोकसभा में कांग्रेस ही ताकतवर रही और विपक्षी पार्टियां बिखरी हुई स्थिति में थीं.

1989 में नवीं लोकसभा के चुनाव परिणाम खंडित थे. कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद राजीव गांधी के नेतृत्व में विपक्ष की भूमिका में आ गयी, जबकि साम्यवादी दलों और भाजपा के बाहरी समर्थन से राष्ट्रीय मोर्चा के घटक दल “जनता दल” के नेता विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बने. हालांकि जनता दल के आंतरिक कलह और भाजपा द्वारा सरकार से समर्थन वापस ले लिए जाने के कारण नई राजनीतिक परिस्थितियां निर्मित हुईं, जिसके परिणामस्वरूप कांग्रेस के सहयोग से जनता दल के असंतुष्ट गुट के नेता चंद्रशेखर को प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला. यह स्थिति बिल्कुल वैसी ही थी जब 1979 में कांग्रेस के समर्थन से जनता पार्टी (एस) के नेता चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बने थे.

इस बार भी विपक्ष है मजबूत 

1991 में दसवीं लोकसभा चुनाव के परिणामों ने पी वी नरसिंह राव के नेतृत्व में कांग्रेस की अल्पमत सरकार के गठन का मार्ग प्रशस्त किया. इस दौरान देश ने लालकृष्ण आडवाणी एवं अटल बिहारी वाजपेयी को नेता प्रतिपक्ष की सशक्त भूमिका में देखा. बाद के वर्षों में सोनिया गांधी और सुषमा स्वराज ने सदन में विपक्ष का नेतृत्व किया. अलग-अलग कालखंडों में यों तो सी एम स्टीफन, जगजीवन राम, पी वी नरसिंह राव एवं शरद पवार ने भी नेता प्रतिपक्ष की भूमिका निभाई, लेकिन उनके कार्यकाल को अविस्मरणीय नहीं माना जा सकता है. 

11 वीं, 12 वीं, 13 वीं, 14 वीं एवं 15 वीं लोकसभा चुनावों के पश्चात् संविद सरकारों का ही गठन हुआ. इसलिए सरकारों पर संसदीय नियंत्रण अधिक प्रभावशाली रहा, लेकिन 2014 में जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए ही नहीं बल्कि भाजपा को भी लोकसभा में पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ तो कांग्रेस एवं उसके सहयोगी दलों की स्थिति कमजोर हो गयी. निरंतर सत्ता में रहने के कारण कांग्रेस आमजनों की आकांक्षाओं के अनुरूप अपनी रणनीति में बदलाव नहीं ला सकी, जिसका फायदा भाजपा को मिलने लगा. कांग्रेस की तुलना में उसके सहयोगी क्षेत्रीय दलों के प्रभावक्षेत्र में विस्तार होता रहा. हिंदुत्व एवं समावेशी विकास के नारों के सहारे 2019 में भी भाजपा कामयाब हुई और एनडीए के घटक दलों पर उसकी निर्भरता कम हुई. किंतु 2024 के जनादेश से कांग्रेस एवं इंडिया गठबंधन की स्थिति सुदृढ़ हो गयी है.

विगत एक दशक से गैर-एनडीए पार्टियां देश में लोकतांत्रिक मूल्यों के हनन की शिकायत कर रही हैं. लेकिन अब उन्हें अपनी भूमिका बदलनी होगी और आमजनों को अपने दृष्टिकोण से अवगत कराने के लिए सकारात्मक ढंग से आगे बढ़ना होगा. नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी को सत्ताधारी पार्टी भाजपा की आलोचना इस तरह करनी चाहिए कि अगर उन्हें भविष्य में सरकार चलाने का मौका मिले तो उनकी अपनी नीति ही उनकी कार्यशैली से खंडित न हो.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि  ….न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]

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