आठ अरब जनसंख्या या उपभोक्तावाद ?

आठ अरब जनसंख्या या उपभोक्तावाद : असली समस्या क्या है?

कुल मिला कर एक-एक मनुष्य के जन्म के साथ पृथ्वी के संसाधनों और पारिस्थितिकी पर चौतरफा दबाव  बढ़ता चला जा रहा है. पिछले15 नवम्बर 2022 को संयुक्त राष्ट्र की वैश्विक आबादी के आठ अरब का आंकड़ा छू  लेने की उद्घोषणा के साथ जरूरत से ज्यादा आबादी की चिंता लौट आयी है जिसमें  जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण क्षय से जुड़ी चिंताए भी शामिल हैं.

केवल 11 साल में 1 अरब 

आधुनिक मानव के उद्भव से, पहले एक अरब तक की संख्या पहुँचने में (1804 ई. तक) लगभग तीन लाख वर्ष का समय लगा, जबकि सबसे हाल के एक अरब (सात अरब से आठ अरब होने में) की वृद्धि मात्र 11 सालो में ही जुड़ गए! इतनी तेजी से बढती जनसँख्या वैश्विक चिंता का सबब है और अगर इस तेज गति  से बढ़ती आबादी की और अनदेखी की जाती रही तो परिणाम घातक हो सकते हैं. आशंका तो इस बात की भी है कि अगर जनसंख्या इसी गति से बढती रही तो प्रकृति में हो रहे बदलाव के दुष्परिणाम के फलस्वरूप धरती पर मनुष्य की बढती आबादी पर लगाम लगेगी, जो एक तरह से क़यामत की स्थिति होगी जिसका जिक्र लगभग हर धर्म में मौजूद है.

बेतहाशा बढती गर्मी और जलवायु में हो रहा बदलाव, व्यापक होता प्रदूषण, जिसमें  जल, मिटटी, वायु समेत अनेक बदलाव शामिल है और बड़े पैमाने पर घटती जैव-विविधता, इन तीनों  परिस्थितियों को मिला कर ‘त्रिस्तरीय ग्रहीय संकट’ का नाम दिया गया है, किसी क़यामत की भयावहता से कम नहीं है. 

बढ़ती जनसंख्या और मानवीय दायित्व

इसमें कोई शक नहीं है कि धरती पर मनुष्य की आबादी बढ़ी है और बहुत तेजी से बढ़ी है. साथ ही साथ  पृथ्वी पर हो रहे हालिया के कुछ बड़े स्तर के बदलाव सीधे-सीधे मानव कृत्य से भी जुड़े हुए हैं, फिर भी मनुष्य की आबादी को लेकर कई सारी गलत धारणाएं भी हैं. मानव जनसंख्या को जिस तरह से देखा जाना चाहिए उस पर ठीक से बात नहीं हो पा रही है. हमें धरती पर जनसँख्या के बिखराव और संसाधनों की  खपत के नजरिये से मानव आबादी को देखना चाहिए ना कि एक समान विस्तार और संसाधनों का उपयोग करने वाली जनसँख्या के रूप में. मानव के क्रमिक विकास के समय से औद्योगिक क्रांति के पहले तक देखे तो असुरक्षित समाज में बहुत से लोगों का होना एक तरह से सुरक्षा का भाव देता था, यहां तक आज भी अनेक समाज में लोगों की ज्यादा संख्या आर्थिक और सामाजिक समृद्धि का सूचक होता है.

आचार्य चाणक्य अर्थशास्त्र में विधवाओं विवाह का निर्देश देते हैं ताकि आबादी बढे और इसी किस्म की प्रवृति पूरे मध्य काल तक भी रही जहां  ज्यादा आबादी मतलब ज्यादा उपज और ज्यादा कर, ज्यादा सैन्य क्षमता. रोमन भी कुछ अलग नहीं थे,  कुछ सम्राटों ने तो जल्दी शादी और लगातार बच्चों की पैदाइश को बढ़ावा देने वाले कानून तक बनाएं ताकि सेनाएं ताकतवर बनी रहे. आबादी बढ़ने का यह दौर तब तक चला जब तक कि लोगों को एक समस्या के रूप में नहीं देखा जाने लगा. औद्योगिक क्रांति के दौर में प्राकृतिक संसाधन के सम्यक इस्तेमाल को लेकर आर्थिक अध्ययन पर जोर रहा और उसी दौर में प्राकृतिक संसाधन और मनुष्य की आबादी को लेकर एक नयी समझ विकसित हुई जो अब तक के सीधे उलट थी. अठारहवीं सदी में ब्रिटिश अर्थशास्त्री थॉमस माल्थस ने मानव आबादी के बढ़ने की दर को समझते हुए जनसंख्या विस्फोट तक की चेतावनी दे डाली. 

मानव आबादी को लगे पर

इसी दौरान साल 1804 में मानव आबादी ने एक अरब की संख्या पार की और उसके बाद तो जनसंख्या को तो मानो जैसे पर लग गए हो. उत्तरोत्तर बेहतर होती सार्वजनिक स्वास्थ्य, स्वच्छता, पोषण और चिकित्सा विज्ञान में अभूतपूर्ण प्रगति के कारण मृत्यु दर कम होती गयी पर उस हिसाब से जन्म दर कम नहीं हुई. फलस्वरूप मानव आबादी और आबादी बढ़ने की दर भी अबाध गति से एक अरब (साल 1804., दो अरब (1927), तीन अरब (1959) चार अरब (1974) पांच अरब (1987), छः अरब (1998), सात अरब (2011) और आठ अरब (2022) हो गयी. हालाकि अब जनसंख्या के बढ़ने की दर में ठहराव का इमकान है और हमारी संख्या नौ अरब तक थोड़ी देर से 2037 तक पहुंचेगी. स्पष्ट रूप से ये स्थिति माल्थस के जनसंख्या  विस्फोट की राह पर ही है और इस बात पर बहस की व्यापक स्तर पर शुरुआत पॉल और एन के चेतावनी के लहजे में 1968 में लिखी किताब ‘द पापुलेशन बम’ से मानी जा सकती है. यह किताब एक तरह से चेतावनी देते हुए बेतहाशा  बढ़ती जनसख्या को गरीबी और प्रकृति के बड़े पैमाने पर दोहन  से लेकर पर्यावरण को बर्बाद किए जाने तक के लिए जिम्मेदार ठहराती है.

इस किताब के कालखंड को देखें तो पाते हैं  कि यह  वही दौर था जब पर्यावरण पर मंडराते संकट और जलवायु परिवर्तन को ले कर पश्चिम में बौद्धिक स्तर के आन्दोलन की पटकथा लिखी जा रही थी, जिसकी सकारात्मक  परिणति स्टोकहोम कांफ्रेंस के रूप में 1972 में हुई, जहां से पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के लिए वैश्विक स्तर पर कार्यवाही का दौर शुरू हुआ. इसी स्टोकहोम कांफ्रेंस में जनसंख्या, गरीबी और प्रदूषण के कुचक्र को रेखांकित करती हुई तात्कालिक प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के भाषण को इस किताब से शुरू हुई बहस के एक हिस्से के रूप में देख सकते हैं. 

मानव आबादी, बहस का केंद्र 

इस बहस का असर यह  हुआ कि मानव की बढती आबादी यानी  ‘ओवर पापुलेशन’ हर किस्म की दिक्कतों के केंद्र में आ गयी, चाहे मसला आर्थिक हो, सामाजिक हो, प्रकृति का क्षय हो या अशांति और युद्ध का ही क्यों ना हो. जनसंख्या नियंत्रण एक वैश्विक मसला बन गया खासकर भारत और चीन सरीखे देशो में. भारत विश्व का सबसे पहला देश बना जहां परिवार नियोजन पर पचास के दशक में ही ‘हम दो हमारे दो’ के नारे के साथ पहल हुई. वहीं जनसंख्या को काबू में करने के लिए कुछ देशों ने ऐसे नीतियों का सहारा लिया जो राजनीतिक और नैतिक रूप से गलत साबित हुए, जिसमें  चीन की ‘एक बच्चे की नीति थी जिसका नतीजा लैंगिक असंतुलन के रूप में सामने आया, जिसे बाद में वापस लेना पड़ा. ओवर पापुलेशन असल में धरती के मनुष्य की आबादी को वहन करने की क्षमता के मुकाबले मापा जाता है. बुनियादी रूप से इसका मतलब लोगों की उस संख्या से है जो धरती पर मौजूद संसाधनों यानी भोजन-पानी ऊर्जा और जगहों के लिहाज से अनिश्चितकाल निर्भर रह सकती हैं. शुरुआती गणना में पाया गया कि धरती केवल चार अरब लोगो का ही बोझ सह सकती है, पर हम तो आठ अरब का भी आंकड़ा पर कर चुके हैं. हालांकि  ज्यादातर विकसित देशों में आबादी स्थिर है या फिर उसका घटना शुरू हो गया है, वहीं विकासशील देश जिसमें  भारत और चीन भी शामिल हैं, भी इसी रास्ते पर बढ़ रहे हैं. 

जनसंख्या बनाम उपभोक्तावाद

पृथ्वी पर अधिक लोगों के होने से प्रकृति पर अधिक दबाव पड़ता है, पर असल समस्या बढती जनसख्या से ज्यादा कौन कितने संसाधनों का उपभोग कर रहा है, से जुड़ी हुई है. दुनिया भर में आबादी की तुलना में उपभोग कई गुना ज्यादा बढ़ रहा है. जैसे-जैसे औद्योगिक काल में जनसंख्या तेजी से बढ़े  संसाधनों के उपभोग के लिहाज से असमानताएँ  भी उतनी ही तेजी से बढ़ी. सबसे अमीर 1%, लोगों का कार्बन उत्सर्जन (1990 और 2015 के बीच) सबसे गरीब आधे लोगों के उत्सर्जन के दोगुने से अधिक है.  मुट्ठी भर अरबपतियों के पास दुनिया के सबसे गरीब आधे लोगों के बराबर संपत्ति है. संसार भर में प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग करने की अलग-अलग प्रवृति को ओवरसूट की अवधारणा से समझा जा सकता है, जो यह  बताती है कि  पृथ्वी द्वारा साल भर के लिए प्राकृतिक रूप से उपलब्ध संसाधनों का उपभोग हम कितने दोनों में कर लेते है? पिछले साल वैश्विक स्तर पर हम साल भर का प्राकृतिक संसाधन 2 अगस्त तक ही खत्म कर चुके थे. यानी वर्तमान जनसंख्या की जरुरतों  को पूरा करने के लिए हम एक से अधिक लगभग 1.6 पृथ्वी के बराबर का संसाधन सफाचट कर रहे हैं. पर असली पेंच देश स्तर के ओवरशूट यानी  संसाधनों की  खपत के आँकड़ो में छुपा है. उनमें  आपसी फर्क हैरान करने वाला है.  मध्य-पूर्व और पश्चिम के कई देश जिसमें  अमेरिका और कनाडा भी शामिल हैं, साल की पहली तिमाही में ही अपने पूरे संसाधन खर्च कर देते हैं, जबकि भारत जैसे कुछ देश इसे बजट के बाहर नहीं जाने देते.

किसी भारतीय की तुलना में एक औसत अमेरिकी संसाधनों की 16 गुना ज्यादा खपत करता है. इसी तरह कार्बन-डाई-ऑक्साइड उत्सर्जन भी दुनिया भर में अलग है.  एक औसत भारतीय परिवार का सालाना कार्बन फूटप्रिंट एक औसत अमेरिकी परिवार के कार्बन फूटप्रिंट की तुलना में लगभग नौ गुणा कम है.  

पृथ्वी पर हो रहे नकारात्मक बदलाव का सारा ठीकरा जनसँख्या पर फोड़ देने से ज्यादा जरुरी यह जानना है कि कौन समूह या देश कितने ज्यादा संसाधनों का खपत कर रहा है,और कौन-कौन सी गतिविधियाँ है जो इस बदलाव को गति दे रही है. इस बात से सचमुच कोई इनकार नहीं कर सकता कि इंसान की आबादी का पर्यावरण पर नकारात्मक असर होता है. पर जनसंख्या में बदलाव की एक गति है जो धीरे-धीरे ही कम होगी, चाहे हम कितनी ही जुगत लगा . इसीलिए बेहतर विकल्प है कि उचित जनसंख्या नियंत्रण नीतियों के साथ-साथ संसाधनों के बेजा खपत करने की जो पश्चिमी प्रवृति है उस पर लगाम लगाये. हर बात के लिए मनुष्य की आबादी को दोष देने के बदले उन खतरों को समझा जाये जो दीखते नहीं है, जैसे -जरूरत से जयादा चीजों की खपत और उत्पादन से लेकर खपत तक चीजों की बर्बादी जिसमें भोजन भी शामिल है में कमी. और यह काम हर एक व्यक्ति अपने स्तर पर भी कर सकता है. अब समय आ गया है कि जनसंख्या को कोसने की बजाय समाधान के केंद्र में वस्तुओं  का विवेकपूर्ण और बर्बादी रहित इस्तेमाल हो.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि  …. न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *