अब इन नेताओं के कंधे पर टिकी है दलितों की राजनीति !

दलित राजनीति में नए चेहरों की चर्चा, 2024 से क्या बदलेगी तस्वीर?
यूपी की 80 लोकसभा सीटों में से 17 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं. इनमें से बीजेपी ने 8, सपा ने 7, कांग्रेस ने 1 और चंद्रशेखर आजाद (आजाद समाज पार्टी-कांशीराम) ने 1 सीट जीती.  

2024 लोकसभा चुनाव के नतीजों से पहले शायद ही किसी ने सोचा होगा कि उत्तर भारत के दलित मतदाता बसपा की जगह सपा और कांग्रेस का साथ देंगे. उत्तर भारत में दलित राजनीति उतार-चढ़ाव से गुजरती हुई नजर आ रही है. बहुत ही कम दलित नेता ऐसे हैं जिनसे प्रभावित होकर वोटर्स उन्हें मतदान कर रहे हैं. 

पिछले कुछ सालों में दलित मतदाताओं के बीच सामाजिक बदलाव देखने को मिला है और अब उनका अपने हालातों को लेकर भी मोहभंग हो रहा है. दलित समाज के लोग अब किसी पार्टी या संगठन के सिर्फ कार्यकर्ता-वोटर या फिर किसी खास शख्स के फोलोवर्स बनकर नहीं रहना चाहते हैं. यही कारण है कि इस बदलाव का सबसे ज्यादा फायदा विपक्षी दलों को हो रहा है.

आसान भाषा में कहें तो दलित समाज, जिसे अब तक बहुजन समाज पार्टी यानी बीएसपी का वोटर माना जाता है, वो अब पूरी तरह से अपनी राजनीतिक भागीदारी चाह रहा है. यही वजह है कि 18वीं लोकसभा चुनाव में दलितों ने समाजवादी पार्टी और कांग्रेस जैसे दलों को वोट किया. 

सबसे ज्यादा हैरानी समाजवादी पार्टी को दिए गए वोट को लेकर हुई, क्योंकि आमतौर पर इस दल से समाज के लोग दूर ही रहे हैं. कांग्रेस में भी उन्हें उम्मीद की किरण नजर आई है, जिसका नतीजा पार्टी को वोट के तौर पर मिला है.

बदल रही है दलित वोटरों का वोट करने का पैटर्न

18वीं लोकसभा चुनाव के परिणाम को देखते हुए यह कहना गलत नहीं होगा कि इस बार का चुनाव 2014 के चुनाव से परिणाम के बिल्कुल उलट रहा है. 2014 में यूपी में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के हाशिए पर जाने, बिहार और महाराष्ट्र में राम विलास पासवान और रामदास अठावले जैसे दलित नेताओं का बीजेपी के साथ गठबंधन करने का पार्टी को फायदा मिला था.

लेकिन पिछले तीन लोकसभा चुनाव और उसके नतीजों से पता चलता है कि अब दलित वोटर्स अपने सामाजिक बदलाव चाहते हैं. 2014 के बाद से दलित वोटर्स का वोट देने का पैटर्न बदला है. 2019 लोकसभा चुनाव में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 84 लोकसभा सीटों में बीजेपी ने 46 सीटें जीतीं, लेकिन इस बार केवल उन्हें केवल 30 सीटों पर ही वोट मिल पाई. वहीं दूसरी तरफ, कांग्रेस ने आरक्षित सीटों की संख्या 6 से तीन गुना बढ़ाकर 19 कर दी है. 

उत्तर प्रदेश की बात की जाए तो इस राज्य के 80 लोकसभा सीटों में से 17 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं. इनमें से इस बार भारतीय जनता पार्टी ने 8, समाजवादी पार्टी (एसपी) ने 7, कांग्रेस ने 1 और चन्द्रशेखर आजाद (आजाद समाज पार्टी-कांशीराम) ने 1 सीट जीती.  

द हिंदू में प्रकाशित सीएसडीएस-लोकनीति सर्वे का कहना है कि एसपी-कांग्रेस गठबंधन को इस बार उत्तर प्रदेश में 56 प्रतिशत गैर-जाटव दलित वोट और 25 प्रतिशत जाटव दलित वोट मिले. यह बदलाव राज्य की राजनीति पर दीर्घकालिक प्रभाव डाल सकता है. 

दलित राजनीति में नए चेहरों की चर्चा, 2024 से क्या बदलेगी तस्वीर?

यूपी में हार की सबसे बड़ी वजह दलित वोट 

उत्तर प्रदेश में बीजेपी की हार का जो सबसे बड़ा कारण सामने आया है, वह है पार्टी को दलित वोट न मिलना. सीएसडीएस के डाटा से पता चलता है कि 80 लोकसभा सीट वाले इस राज्य में 92 प्रतिशत मुसलमानों और 82 प्रतिशत यादवों ने इंडिया ब्लॉक को तो वोट दिया हि लेकिन गैर-जाटव दलित वोटों का 56 प्रतिशत वोट भी गठबंधन ने हासिल किया. इतना ही नहीं 25 प्रतिशत जाटव दलितों ने भी गठबंधन को वोट दिया.

इसके अलावा इस चुनाव में गैर-आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र और हिंदुत्व राजनीति की भट्टी अयोध्या में दलित पासी जाति के अवधेश प्रसाद (समाजवादी पार्टी) का भाजपा के दो बार के सांसद लल्लू सिंह को हराना भी सपा के साथ दलितों के ठंडे रिश्ते में एक महत्वपूर्ण बदलाव का संकेत देता है.

2019 में किसे गया था दलित वोट 

वहीं साल 2019 के लोकसभा चुनाव में मिले वोटों की बात करें तो 2019 में उत्तर प्रदेश की 17 सुरक्षित सीटों में से 15 बीजेपी को मिली थीं, लेकिन इस बार ये सीटें घटकर 8 सीटें हो गई है. समाजवादी पार्टी ने 7 सीटें झटक ली जबकि आजाद समाज पार्टी और कांग्रेस को 1-1 सीटें मिलीं हैं. 

कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि दलित वोट बीजेपी को इस बार कम मिले हैं. जिस तरह दलित वोट कांग्रेस और समाजवादी पार्टी की ओर शिफ्ट हुए हैं, बीजेपी को सचेत हो जाना चाहिए. लेकिन नये मंत्रिमंडल के गठन को देखकर ऐसा नहीं लगता है कि पार्टी पर यूपी की हार का कोई असर है. 

इस राज्य में सपा को साल 1995 की कुख्यात लखनऊ गेस्ट हाउस घटना के बाद शायद ही कभी इतने दलित मतदाताओं का समर्थन मिला होगा. जितना इस लोकसभा चुनाव में मिला है. 

बसपा का घटा वोट शेयर 

इस साल, गठबंधन के बिना और 48 सीटों पर चुनाव लड़ने पर बसपा का वोट शेयर 2019 में 19.43 प्रतिशत से घटकर 9.39 प्रतिशत हो गया है. इतना ही नहीं इस चुनाव में बसपा जाटव वोटों और गैर-जाटव दलित दोनों से प्रयाप्त वोट पाने में विफल रही है. ये वही बसपा है जिन्हें कभी दलितों के मतदान ने उत्तर प्रदेश को अपना पहला दलित मुख्यमंत्री दिया था.

दलित राजनीति में नए चेहरों की चर्चा, 2024 से क्या बदलेगी तस्वीर?

क्यों बदल रहा है दलित वोटर्स के मतदान करने का ट्रेंड?

इस सवाल के जवाब में पटना यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर दुर्गेश यादव कहते हैं इस चुनाव में बसपा का नुकसान ‘इंडिया’ गठबंधन के लिए एक फायदा साबित हुआ है. क्योंकि बीएसपी का वोट भारी मात्रा में उसके पक्ष में चला गया. अब सवाल या उठता है कि दलित मतदाताओं का वोट करने का पैटर्न क्यों बदला तो इसके पीछे एक बड़ी वजह अखिलेश यादव और राहुल गांधी के बीच बेहतर तालमेल को माना जा रहा है. इन दोनों के तालमेल का असर जमीनी स्तर पर उनके कार्यकर्ताओं तक पहुंचा और यह उनकी सीटों की हिस्सेदारी में भी दिखाई दिया.

उन्होंने आगे कहा कि वैसे तो भारतीय जनता पार्टी अपनी सोशल इंजीनियरिंग के लिए जानी जाती है. लेकिन, अखिलेश यादव के पीडीए ने बीजेपी के सोशल इंजीनियरिंग फॉर्मूले से परास्त कर दिया. इस चुनाव में अखिलेश ने अपने ज्यादातर टिकट पिछड़े और दलितों को बांटे. ताकि उन पर जो एमवाई (मुस्लिम और यादव) पार्टी होने के आरोप का मुक़ाबला किया जा सके. इसके अलावा एक कारण मुझे ये भी समझ आता है कि बीजेपी ने जो संविधान बदलने की बात कही थी उसका दलित वोटर्स पर काफी असर पड़ा है. 

पिछले कुछ लोकसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी लगातार कमजोर होती गई, इसकी क्या वजह है? इस सवाल के जवाब में चामड़िया कहते हैं- चुनाव जीतने से ज्यादा जरूरी उद्देश्य पूरा होना है. बसपा प्रतीक के रूप में ही दलित मुद्दे उठा रही है, यही काफी है. 

क्या मायावती का एकला चलो की नीति से बीजेपी को फायदा होता है? इस सवाल के जवाब में वरिष्ठ पत्रकार अनिल चामड़िया कहते हैं कि राजनीति में सभी पार्टियों को चुनाव लड़ने का हक है. बसपा का गठन दलितों की आवाज उठाने के लिए हुआ था. मायावती जी ने इस दौरान बसपा में कई प्रयोग भी किए.

अनिल चामड़िया के मुताबिक बहुजन विरोधी ताकत पहले दलितों में जाति बंटवारा किया और अब उसके वोटर्स को कन्फ्यूज करती है. 

मायावती के अकेले चुनाव लड़ने की वजह से बसपा लगातार कमजोर होती गई, इसकी क्या वजह है? इस सवाल के जवाब में चामड़िया कहते हैं- चुनाव जीतने से ज्यादा जरूरी उद्देश्य पूरा होना है. बसपा प्रतीक के रूप में ही दलित मुद्दे उठा रही है, यही काफी है. 

2007 से ही गिरता जा रहा है बसपा का वोट शेयर 

विधानसभा चुनाव में भी बसपा का वोट शेयर गिरता जा रहा है. 2007 के विधानसभा चुनाव में, बसपा का वोट शेयर 30.4 प्रतिशत था और पार्टी को 403 सीटों में से 206 सीटें थीं.

वहीं 2012 के विधानसभा में यह गिरकर 25.91 प्रतिशत (80 सीटें), 2017 में 22.23 प्रतिशत (19 सीटें) और 2022 में 12.88 प्रतिशत (1 सीट) रह गई. यानी लोकसभा चुनाव से पहले ही राज्य के करीब 22 प्रतिशत दलित वोट में से करीब आधा खिसक गया था.

 इन नेताओं के कंधे पर टिकी है दलितों की राजनीति

दलितों के हाथ में सत्ता की चाबी थमाने के उद्देश्य से बनी बहुजन समाज पार्टी 18वीं लोकसभा चुनाव में शून्य पर सिमट गई. हालांकि दूसरे दलों से कुछ दलित चेहरे सांसद पहुंचने में कामयाब हुए है. उनका चर्चा भी इस चुनाव के दौरान खूब रही. ऐसे में माना जा रहा है कि इन आने वाले वाले चुनावों में दलितों की राजनीति इन्हीं नेताओं के कंधे पर टिकी है.  इस चुनाव में कुछ दलित सांसद तो आरक्षित सीटों से ही नहीं, बल्कि फैजाबाद जैसी सामान्य सीट से भी चुनकर आए हैं. 

चंद्रशेखर आजाद

‘भीम आर्मी’ बनाकर चर्चा में आने वाले चंद्रशेखर आजाद इस चुनाव में जीत हासिल कर संसद पहुंच चुके हैं. चंद्रशेखर ने इस चुनाव में यूपी के नगीना सीट से भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार ओम कुमार को डेढ़ लाख से भी ज्यादा वोटों से हराया है. चंद्रशेखर आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. 

संजना जाटव

संजना जाटव इस चुनाव में राजस्थान के भरतपुर से जीत हासिल कर सांसद बनीं है. उनकी उम्र केवल 26 साल की हैं. इसके साथ ही संजना राजस्थान की सबसे कम उम्र की उम्मीदवार थी. इस चुनाव में संजना ने भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार रामस्वरूप कोली को 51,983 वोटों से हराया है. 

शांभवी चौधरी

शांभवी चौधरी इस लोकसभा चुनाव में जीत हासिल करने वाली सबसे युवा सांसदों में शामिल हैं. उनकी उम्र महज 25 साल है. उन्होंने बिहार के समस्तीपुर लोकसभा सीट से जीत हासिल की है और यह अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है. शांभवी पासी जाति से ताल्लुक रखती हैं. उनके पिता अशोक चौधरी बिहार सरकार में मंत्री हैं और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के करीबी माने जाते हैं. शांभवी ने बिहार सरकार के ही सूचना जनसंपर्क मंत्री महेश्वर हजारी के बेटे सन्नी हजारी को चुनाव में हराया. उनको 1 लाख 87 हजार वोटों से जीत मिली है. सन्नी हजारी कांग्रेस से जुड़े हैं.

दलित राजनीति में नए चेहरों की चर्चा, 2024 से क्या बदलेगी तस्वीर?

अवधेश प्रसाद

यूपी के फैजाबाद लोकसभा सीट से सपा के अवधेश प्रसाद ने इस चुनाव में दो बार के BJP सांसद लल्लू सिंह को 54,567 वोटों से हराया है. उनके जीत की चर्चा इसलिए भी हो रही है क्योंकि यहां राम मंदिर बनने के बाद भारतीय जनता पार्टी की जीत आसान मानी जा रही थी. अवधेश प्रसाद समाजवादी पार्टी के संस्थापक सदस्यों में एक हैं और 9 बार विधायक रह चुके हैं. 

कुमारी शैलजा

कुमारी शैलजा को कांग्रेस में एक प्रमुख दलित नेता के तौर पर उन्हें गिना जाता है. उन्होंने इस चुनाव में हरियाणा के सिरसा लोकसभा सीट से जीत हासिल कर सांसद पहुंचे. शैलजा ने भारतीय जनता पार्टी के अशोक तंवर को 2 लाख 68 हजार वोटों से हराया है. पिछले लोकसभा चुनाव में वो अंबाला से हार गई थीं. शैलजा के पिता चौधरी दलबीर सिंह हरियाणा कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके थे.

चरणजीत सिंह चन्नी

चरणजीत सिंह चन्नी पंजाब के सीएम रह चुके हैं. इसके साथ ही इस में उन्होंने कांग्रेस पार्टी की तरफ से जालंधर लोकसभा सीट पर जीत हासिल की है. चन्नी ने भारतीय जनता पार्टी के सुशील कुमार रिंकू को 1 लाख 75 हजार 993 वोट से हरा दिया. चरणजीत सिंह चन्नी के लिए इस चुनाव में जीत हासिल करना बड़ी जीत मानी जा रही है. क्योंकि साल 2022 के विधानसभा चुनाव में दो जगहों से वे चुनाव हार गए थे. जालंधर लोकसभा सीट पर 1999 से लेकर 2019 तक कांग्रेस का दबदबा रहा. हालांकि पिछले चुनाव में आम आदमी पार्टी ने यहां से जीत दर्ज की थी.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *