इस शहर में हर शख्स परेशान-सा क्यों है !

समाधान: इस शहर में हर शख्स परेशान-सा क्यों है, शहरों को चाहिए सार्वजनिक-निजी भागीदारी वाली एक नीति
भारी बारिश के कारण बाढ़ आती है, लेकिन खराब जल निकासी, उच्च स्तर पर गाद, नदियों एवं अन्य जल निकायों के क्षेत्र में अतिक्रमण, तटीय शहरों में आर्द्रभूमि के विनाश और जंगलों की कटाई के कारण यह आपदा में तब्दील हो जाती है। देश के शहरों को सार्वजनिक-निजी भागीदारी वाली एक नई नीति की जरूरत है।
 

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के कई हिस्से पानी में डूबे हुए हैं, जो व्यवस्थागत सुस्ती का प्रमाण है। बारिश जनित बाढ़ ने आईएएस की तैयारी कर रहे तीन युवाओं की जान ले ली, क्योंकि बेसमेंट में संचालित हो रही लाइब्रेरी में पानी भर गया था। राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का खेल नौकरशाही और निर्वाचित सरकारों की जिम्मेदारी से बचने और लापरवाह रवैये का ही उदाहरण है।

ऐसा नहीं है कि बाढ़ के कारणों का अध्ययन नहीं किया गया है या सुझावों का पालन नहीं किया गया है। वर्ष 2005 की आपदा के बाद माधव चितले के नेतृत्व में तथ्यों की जांच के लिए एक कमेटी बनाई गई थी। उसने अपने निष्कर्ष में भारी बारिश, गाद नहीं निकालने के कारण पानी के बहाव में रुकावट, आपदा प्रबंधन योजना का गैर-संचालन, संवाद एवं तालमेल की कमी, मौसम की सही चेतावनी न मिलने और ऐसे ही कई अन्य कारणों को गिनाया था। दिसंबर, 2005 में यूपीए सरकार ने जवाहरलाल नेहरू शहरी नवीकरण मिशन की शुरुआत की, ताकि सुधारों को प्रोत्साहित किया जा सके और योजनाबद्ध विकास को गति दी जा सके। मिशन ने कई विचार सूचीबद्ध किए, लेकिन ‘बाढ़’ शब्द को उसमें जगह नहीं मिली। बार-बार होने वाली घटनाओं के पांच साल बाद राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने शहरी बाढ़ के संकट को पहचाना और ‘क्या करें और क्या न करें’ की सूची बनाई। इसके बाद कई समितियों और आयोगों का गठन हुआ, जिन्होंने कई विवेकपूर्ण सलाह भी दीं।  लेकिन चीजें नहीं बदलीं। बातें तो बहुत हुईं, लेकिन काम बहुत कम हुआ। ठीक एक साल पहले भी बाढ़ का पानी राष्ट्रीय राजधानी में घुस गया था। हर साल देश के दर्जनों शहर मानसून के आते ही प्रशासनिक विफलता और प्रकृति के प्रकोप के चलते सहमे दिखते हैं। सरकार ने खुद स्वीकार किया कि वर्ष 2021 में देश के पांच राज्यों के 30 से ज्यादा शहर बाढ़ से प्रभावित हुए थे।

भारत में घटना या आपदा के बाद ही उसके नतीजों को देखकर नीतिगत प्रतिक्रिया व्यक्त की जाती है, उसके कारण पर विचार को भविष्य के लिए छोड़ दिया जाता है। जुलाई, 2014 में अपने पहले बजट भाषण में तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने हालात पर प्रकाश डाल कर एक उम्मीद जगाई थी। उन्होंने कहा था, ‘जब तक बढ़ती आबादी के हिसाब से नए शहर विकसित नहीं किए जाते, मौजूदा शहर जल्द ही रहने लायक नहीं रह जाएंगे।  प्रधानमंत्री का सपना है कि 100 स्मार्ट सिटी विकसित की जाएं और मौजूदा मझोले आकार के शहरों का आधुनिकीकरण किया जाए।’

जेटली बजट के बाद शुरू किए गए स्मार्ट सिटी मिशन में बाढ़ की रोकथाम को प्राथमिकता में नहीं रखा गया। गौरतलब है कि स्मार्ट सिटी मिशन के तहत 100 शहरों में 1.64 लाख करोड़ रुपये की 8,000 से अधिक परियोजनाओं को वित्त पोषित किया गया है, लेकिन बाढ़ पर ध्यान केंद्रित नहीं किया है। अमृत मिशन में मात्र जल निकासी की कमी को दूर करने पर ध्यान दिया गया है, लेकिन वर्ष 2023 तक 1,622 करोड़ रुपये की लागत वाली केवल 719 परियोजनाएं ही पूरी हुई हैं। भारी बारिश के कारण बाढ़ आती है, लेकिन खराब जल निकासी, उच्च स्तर पर गाद, नदियों एवं अन्य जल निकायों के क्षेत्र में अतिक्रमण, तटीय शहरों में आर्द्रभूमि के विनाश और जंगलों की कटाई के कारण यह आपदा में तब्दील हो जाती है। जाहिर है, योजना और जल निकासी को सुचारु बनाए रखने और जल निकायों की सुरक्षा के लिए स्थलाकृति की सैटेलाइन इमेजिंग रोकथाम के लिए महत्वपूर्ण है। फिर भी खराब योजना को शहरी बाढ़ का कारण नहीं माना जाता, बल्कि प्रकृति को दोष दिया जाता है। हर साल बाढ़ आती है और लोगों को व्यवस्थागत सुस्ती की कीमत चुकानी पड़ती है। उम्मीदें इतनी कम हैं कि प्रशासनिक विफलता को सामान्य मान लिया गया है। हैरानी नहीं है कि हर बजट में कर प्रस्तावों पर आक्रोश पैदा होता है। लोगों से अधिक कर चुकाने की उम्मीद की जाती है, लेकिन बदले में उन्हें बहुत कम मिलता है। लोगों की हताशा शहरयार की इन पंक्तियों में बहुत अच्छी तरह से व्यक्त की गई है, ‘इस शहर में हर शख्स परेशान-सा क्यों है!’

भारतीय शहर राजनीतिक उदासीनता और व्यवस्थागत अराजकता के बीच फंस गए हैं। आम तौर पर नीति बनाने का अधिकार और क्रियान्वयन की जिम्मेदारी अलग-अलग होती है। नीति तैयार करने का अधिकार केंद्र के पास है, जबकि क्रियान्वयन की जिम्मेदारी राज्यों पर होती है। ऐतिहासिक रूप से भारत के राजनीतिक दल ग्रामीण इलाकों में ज्यादा निवेश करते हैं, क्योंकि ग्रामीण भारत ज्यादा वोट देता है। भारत में तेज शहरीकरण के चलते उम्मीद है कि 2050 तक शहरी आबादी में 40 करोड़ लोग और जुड़ेंगे। भारतीय शहर केवल तीन प्रतिशत भूमि पर दखल रखते हैं, पर जीडीपी में 60 फीसदी से ज्यादा योगदान देते हैं। वर्ष 2024 के बजट में नौ प्राथमिकताओं में से एक शहरीकरण भी है, लेकिन विवरण का अभाव है। विनाशकारी बाढ़ को रोकने, संपर्क गलियारों के साथ नए विस्तार को सक्षम बनाने और नए हरित शहरों के लिए भारत को सार्वजनिक-निजी भागीदारी के साथ एक बेहतर फंडिंग नीति की जरूरत है। शहरी अर्थव्यवस्था से मिलने वाले लाभ के कुछ हिस्से को शहरों में फिर से निवेश करने पर विचार किया जा सकता है। उन्नत अर्थव्यवस्था का दर्जा पाने की आकांक्षा राजनीतिक रुख और आर्थिक नीतियों की समीक्षा की मांग करती है।    

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