सहरिया आदिवासियों को भी सुनें !

सहरिया आदिवासियों को भी सुनें, स्थानीय स्तर पर आजीविका के कमजोर आधार ने बनाया मजबूर
सहरिया आदिवासियों में प्रवासी मजदूरी पर निर्भरता कम नहीं हो रही है, क्योंकि स्थानीय स्तर पर आजीविका का आधार बहुत कमजोर है।

आदिवासी कल्याण योजनाओं की बहुत चर्चा रही है और इस संदर्भ में सहरिया आदिवासियों का भी नाम आता रहा है, लेकिन झांसी जिले (उत्तर प्रदेश) के बबीना खंड में स्थित दूर-दूर की दो सहरिया बस्तियों में जाकर तो यही लगा कि यहां प्रवासी मजदूरी पर निर्भरता कम होने का नाम नहीं ले रही है, क्योंकि स्थानीय स्तर पर आजीविका का आधार बहुत कमजोर है।

मथुरापुर गांव की सहरिया बस्ती के लोगों ने बताया कि ज्यादातर परिवार भूमिहीन हैं व बहुत थोड़े से परिवारों के पास कृषि-भूमि है, जो बहुत कम है। सरकारी आवास योजना के अंतर्गत कुछ परिवारों के पक्के घर बन गए हैं, शेष पुराने कच्चे घरों में ही रहते हैं। जिनका हाल में पक्का घर बना है, वह भी पूरी तरह सरकारी सहायता से नहीं बन पाया। इसके लिए उन्हें कुछ कर्ज भी लेना पड़े और वह भी पांच प्रतिशत प्रतिमाह की ऊंची ब्याज दर पर। जल के लिए सरकार ने पाइपलाइन तो बिछा दी है, पर इन नलों और पाइप में पानी अब तक नहीं आया है। अतः पहले के दो हैंडपंपों पर ही पूरी बस्ती निर्भर है। भीषण गर्मी के दिनों में हैंडपंप जल्दी ही हांफने लगते हैं। पानी की कमी बनी रहती है और बहुत-सा समय पानी का इंतजाम करने में ही चला जाता है। मनरेगा में हाल के समय में बहुत ही कम रोजगार मिल सका है।

इन स्थितियों में ज्यादातर परिवार अपना पेट भरने के लिए प्रवासी मजदूर बनने को मजबूर हैं। महिलाओं ने बताया कि वहां जाने पर कठिनाइयां बहुत बढ़ जाती हैं, पन्नी लगाकर रहना पड़ता है। धूप, वर्षा, सर्दी सभी की मार अधिक सहनी पड़ती है, पर मजबूरी है कि जाना ही पड़ता है।

सेमरिया गांव की एक सहरिया बस्ती में महिलाओं ने बताया कि कभी-कभी तो प्रवासी मजदूरी में मेहनत करने पर जो मजदूरी मिलनी होती है, उसमें से कटौती कर ली जाती है। ऐसा भी हुआ है कि मजदूरी के बिना ही लौटना पड़ा। बाहर जाने पर उनकी स्थिति कमजोर होती है और कई बार उन्हें मजदूरी के मामले में ठगा जाता है। उन्होंने बताया कि आवास थोड़े से बने हैं, पर मनरेगा में काम नहीं मिल रहा है। गांव में बने रहें, तो गुजारा नहीं होता है। उन्होंने कहा कि प्रवासी मजदूरी करने से बच्चों की शिक्षा की क्षति तो होती है, पर फिर भी हमें जाना पड़ता है।

इन महिलाओं ने बताया कि राशन तो फिर भी ठीक से मिल जाता है। पर आंगनवाड़ी से पौष्टिक आहार बहुत कम मिल पाता है। अपनी बस्ती की एक विशेष समस्या का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया कि उनके घरों के बहुत पास से हाईटेंशन लाइन गुजर रही है और उनकी सुरक्षा का कोई उपाय नहीं है। इनमें बहुत करंट होता है, जो उन्हें प्रभावित करता है। कुछ समय पहले तार गिरने से उनके पांच घर जल गए। इसके बाद कुछ अधिकारी, तो गांव में आए, लेिकन प्रभावित परिवारों को कोई मुआवजा अब तक नहीं दिया गया है। वे चाहते हैं कि इस बारे में संबंधित विभाग शीघ्र कार्यवाही कर उनको मुआवजा दे और भविष्य के लिए भी सुरक्षा व्यवस्था की जाए। तारों के नीचे सुरक्षा जाल लग सकता है पर यह नहीं लगा है, उन्होंने बताया।

इन दोनों बस्तियों की महिलाओं ने बाहरी समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षित किया, वहां उन्होंने यह भी एक मत से स्वीकार किया कि पुरुषों द्वारा शराब अधिक पीने की प्रवृत्ति उनके समुदाय के लिए सबसे बड़ी आंतरिक समस्या बन गई है। इसका बच्चों पर भी प्रतिकूल असर पड़ रहा है। कुछ महिलाओं ने बहुत ही दुखी मन से बताया कि पहले इतनी मेहनत से, इतनी कठिनाइयों के बीच, जो थोड़ी कमाई होती, वह भी परिवार की भलाई पर खर्च करने के बजाय दारू पर बर्बाद कर दी जाती है। जब महिलाएं इस पर आपत्ति करती हैं, तो उनकी मार-पिटाई भी होती है, घरेलू हिंसा बढ़ती है। कुछ महिलाओं ने कहा कि शराब तो महिलाओं की सबसे बड़ी दुश्मन है, इसे तो जरूर बंद होना चाहिए।

इस तरह सहरिया समुदाय जहां कई तरह की विषमता और अन्याय से त्रस्त है और उसे समाज के हाशिये पर धकेल दिया गया है। वहीं, दूसरी ओर उनकी कुछ आंतरिक समस्याएं भी हैं, जिन्हें समाज सुधार के प्रयास से दूर किया जा सकता है। सहरिया समुदाय को न्याय भी चाहिए और समाज-सुधार भी। उल्लेखनीय है कि सहरिया जनजाति मध्य प्रदेश के ग्वालियर-चंबल संभाग में बड़े स्तर पर पाई जाती है। यह जनजाति राजस्थान के बारन जिले में भी मिलती है। वहीं मध्य प्रदेश से सटे उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में भी सहरिया आदिवासी बसे हुए हैं। सहरिया लोग खुद को भील आदिवासियों के सहोदर भाई मानते हैं।

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