एक लड़की को इंसानों से बनी कालीन पर चलने के लिए कहा !
आजादी वाले दिन जब चाचा नेहरू ने एक लड़की को इंसानों से बनी कालीन पर चलने के लिए कहा
पूरा देश आज आजादी के 78वें स्वतंत्रता दिवस के जश्न में डूबा है. चारों तरफ तिरंगे के केसरिया, सफेद और हरा रंग ही नजर आ रहे हैं. दुकानें, चौराहे, इमारतें सब इन तीन रंगों के गुब्बारों या लाइटों से सजे हुए हैं यही नहीं रोड पर दौड़ती गाड़ियों में भी छोटे-बड़े झंडे लगे हुए हैं. जिधर भी नजर जा रही उधर से ही 15 अगस्त यानी कि स्वतंत्रता दिवस की रौनक दिखाई पड़ रही है. सरकार की ‘हर घर तिरंगा’ की मुहिम भी साकार होती दिख रही है.
आखिर इतनी खुशी हो भी क्यों न, ये आजादी हमें यूं ही नहीं मिली है. आजादी के लिए अनगिनत देशवासियों के संघर्ष, बलिदान और प्राणों की आहुति दी गई है. तब जाकर कहीं हमें यह दिन सुलभ हो सका है और हम सब इस राष्ट्रीय पर्व को मना पा रहे हैं. फिलहाल यहां हम आपको आजादी का इतिहास नहीं बताने जा रहे हैं बल्कि आज हम आपको बताएंगे आजादी वाला दिन देश की राजधानी दिल्ली में कैसा था? साथ ही इससे जुड़ा एक दिलचस्प वाकया जो बेहद कम लोग ही जानते हैं….
जब दिल्ली में उमड़ा जनसैलाब
आजादी वाला दिन यानी की 15 अगस्त 1947 को चारों दिशाओं बल्कि यूं कहें कि दसों दिशाओं से जनता दिल्ली चली आ रही थी. तांगों के पीछे-तांगे. बैलगाड़ियों के पीछे- बैलगाड़ियां. कारें, ट्रकों, रेलगाड़ियों-बसें की छतों पर बैठकर; खिड़कियों से लटकर लोग दिल्ली आए. साइकिलों पर आए और पैदल भी. दूर-देहात के ऐसे लोग भी आए, जिन्हें गुमान तक नहीं था कि भारत देश पर अंग्रेजों का शासन अब तक था और अब नहीं है. उस विशेष दिन पुरुषों ने नई पगड़ियां पहनीं और औरतों ने नई साड़ियां. पद, धर्म, जाति, गौरव सबकुछ उस क्षण लुप्त हो गया था. हिंदू, सिख, मुसलमान, ईसाई, पारसी, एंग्लो-इण्डियंस…..सब हंस रहे थे, एक-दूसरे को बधाईयां दे रहे थे. उन्हें भावावेश में यदा-कदा रोना भी आ जाता था.
देहात से आए ऐसे बहुत से लोग थे जो लोगों से पूछ रहे थे कि यह धूम-धड़ाका किस बात का हो रहा है. लोग बड़े रुचि से गर्व से बढ़-बढ़ कर बता रहे थे कि अंग्रेज जा रहे हैं. आज नेहरुजी देश का झंडा फहराएंगे. हम आजाद हो गए हैं.
15 अगस्त 1947 का वो एतिहासिक दिन जब शाम 5 बजे इंडिया गेट के मैदान में शास्कीय स्तर पर नए भारत का राष्ट्र ध्वज फहराया जाने वाला था. इस शुभ घड़ी का साक्षी बनने के लिए जो प्रचण्ड भीड़ इक्ट्ठा हुई उतना विकट मानव समुद्र राजधानी में इससे पहले कभी नहीं देखा गया था. कार्यक्रम में वक्ताओं के लिए जो छोटा सा मंच तैयार किया गया था वो उस विकट भीड़ में गुम सा हो गया था.
भीड़ को संभालने के लिए जो रस्सों की गैलरियां, रास्ते बनाए गए थे उनका उस भीड़ में कहीं पता ही न चला. इतनी ज्यादा भीड़ थी कि गंगा किनारे लगने वाले धार्मिक मेले की भीड़ ही उस भीड़ का थोड़ा-बहुत मुकाबला कर सकती थी. दूर-दराज गांवों से अनेक लोग जो खाने-पीने की चीजें घर से बनाकर लाए थे, भूखे ही रह गए क्योंकि लोगों के बीच वे इस हद तक भिंचे हुए थे कि पोटली खोलने और उन चीजों को मुंह तक ले जाने के लिए वे अपने हांथों को हिला ही न सके.
नेहरु ने 17 साल की लड़की को भारतीयों पर पैर रखकर चलने को कहा
वायसराय माउंटबेटन की 17 वर्षीय बेटी पामेला भी अपने पिता के स्टाफ के दो लोगों के साथ उस समारोह को देखने पहुंचीं. जनसैलाब की वजह से वो बड़ी मुश्किल के बाद मंच की ओर बढ़ सकी. लेकिन जब मंच से फासला सिर्फ़ 100 गज़ का रह गया तो उन्होंने देखा कि अब तो एक इंच भी आगे नहीं बढ़ा जा सकता. लोगों की भीड़ इतनी थी कि उस पूरे विस्तार में सुई रखने की भी जगह नहीं थी, पांव रखना तो दूर की बात थी..
ये सब मंच पर मौजूद नेहरूजी देख रहे थे और उन्होंने पामेला की इस उलझन को समझ लिया और चिल्ला कर कहा कि वो लोगों के सिर पर चढ़ कर मंच पर आए. इस पर पामेला भी चिल्लाई, ‘मैं ऐसा कैसे कर सकती हूँ. मैंने ऊंची एड़ी की सैंडल पहनी हुई है.’ नेहरू ने सैंडल को हाथ में लेने को कहा.
पामेला इतने ऐतिहासिक मौके पर ये सब करने में झिझक रही थी . वह इस महान अवसर पर नंगे पांव चलने जैसी असभ्यता दिखाना भला कैसे गवारा कर सकती और पमेला बोली मैं सैंडल नहीं उतार सकती. नेहरू का जवाब था कि तुम सैंडल पहने-पहने ही लोगों के सिर के ऊपर पैर रखते हुए आगे बढ़ो. वो बिल्कुल भी बुरा नहीं मानेंगे. पमेला ने बोला मेरी हील उन्हें चुभेगी. नेहरू फिर बोले बेवकूफ़ लड़की सैंडल को हाथ में लो और आगे बढ़ो.’ नेहरू ने थोड़ा झिड़की के साथ कहा कि जो कहता हूं करो समझी? जूतियां उतारों. लोगों पर चढ़ो और आगे बढ़ो. फिर भारत के अंतिम वॉयसराय की लड़की ने अपने सैंडल को उतार कर हाथों में लिया और जिंदा मनुष्य से बने उस कालीन पर पैर रखते हुए मंच तक पहुंच गईं.
वायसराय को नहीं नसीब हुआ था मंच
उधर अपनी बग्घी में कैद माउंटबेटन उससे नीचे ही नहीं उतर पा रहे थे. उन्होंने वहीं से चिल्ला कर नेहरू से कहा,’लेट्स होएस्ट द फ़्लैग.’ वहाँ पर मौजूद बैंड के चारों तरफ़ इतने लोग जमा थे कि वो अपने हाथों तक को नहीं हिला पाए. मंच पर मौजूद लोगों ने सौभाग्य से माउंटबेटन की आवाज़ सुन ली. तिरंगा झंडा फ़्लैग पोस्ट के ऊपर गया और लाखों लोगों से घिरे माउंटबेटन ने अपनी बग्घी पर ही खड़े खड़े उसे सेल्यूट किया. लोगों के मुंह से बेसाख़्ता आवाज़ निकली,’माउंटबेटन की जय….. पंडित माउंटबेटन की जय !’
सैकड़ों बच्चे हवा में स्प्रिंग की तरह उछलने लगे
माउण्टबेटन की शासकीय बग्घी के आगे-आगे चल रहे अंगरक्षकों की चमकीली पगड़ियां दूर से जैसे ही दिखाई दी वैसे ही उस भीड़ ने आगे आना चाहा. मंच को घेरकर बैठे उस मानवीय सागर में ऐसी अनेक महिलाएं मौजूद थीं जो अपने नन्हें बच्चों को स्तनपान करा रही थीं. भीड़ ने जब अचानक आगे आना चाहा तो वो डर गईं कि कहीं उनके शिशु दब न जाएं. उन्होंने शिशु-रक्षा का एक अनोखा उपाय आजमाया. रबर के गुड्डों की तरह उन्होंने अपने शिशुओं को हवा में उछालना शुरु कर दिया. शिशु जैसे ही नीचे आता वैसे ही मां उसे पकड़कर फिर से उछाल देती और देखते ही देखते सैकड़ों बच्चे स्प्रिंग की तरह हवा में उछलने गिरने लगे. धीमी-गति से आगे आ रहे माता-पिता को देखने में मगन पमेला अचानक इस अविश्वसनीय दृश्य की साक्षी बन गई.
स्रोत: Freedom At Mid Night – Larry Collins & Dominique Laipiyar
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