आरक्षण का वर्गीकरण समय की मांग … सुप्रीम कोर्ट का निर्णय कई मायनों में क्रांतिकारी
आरक्षण का वर्गीकरण समय की मांग, सुप्रीम कोर्ट का निर्णय कई मायनों में क्रांतिकारी
अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति में आरक्षण वर्गीकरण की बहस, जो लंबे समय से चली आ रही थी, को सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय से दूर कर दिया है। मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 6:1 के बहुमत के फैसले में कहा कि राज्यों को राष्ट्रपति ने सूची में अधिसूचित अनुसूचित व अनुसूचित जनजातियों को उपवर्गीकृत करने की अनुमति प्रदान कर दी है, ताकि उन्हें सार्वजनिक रोजगार और शिक्षा में ‘अधिक’ अधिमान्यता प्रदान की जा सके।
वर्ष 2004 में सुप्रीम कोर्ट की ईवी चिनैया की पांच सदस्यीय पीठ ने अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के अंतर्गत वर्गीकरण पर रोक लगा दी थी, जबकि इस निर्णय में मुख्य न्यायाधीश ने कहा, ‘अनुच्छेद 341(2) एक एकीकृत समरूप वर्ग नहीं बनाता है। ऐतिहासिक और अनुभवजन्य साक्ष्य दर्शाते हैं कि अनुसूचित जातियां सामाजिक रूप से विषम वर्ग हैं। इस प्रकार, अनुच्छेद 15(4) और 16(4) के तहत शक्ति का प्रयोग करते हुए राज्य अनुसूचित जातियों को और वर्गीकृत कर सकता है।’ मुख्य न्यायाधीश ने उपवर्गीकरण का विरोध करने वाले अनुसूचित समुदायों के विषय पर कहा कि उनका ‘रवैया’ ट्रेन के सामान्य डिब्बे में बैठे व्यक्ति जैसा है। सबसे पहले, डिब्बे के बाहर के लोग अंदर जाने के लिए संघर्ष करते हैं। एक बार वे अंदर पहुंच जाते हैं, तो बाहर के लोगों को उसमें प्रवेश करने से रोकने के लिए हर संभव प्रयास करते हैं।
आरक्षण वर्गीकरण के विरोध में कई तरह के भ्रामक तर्कों से वर्गीकरण की बहस को भटकाया जा रहा है, जबकि हमें फैसले को इस तरह से भी देखने की जरूरत है कि सर्वोच्च न्यायालय ने जाति पदानुक्रम के सबसे निचले पायदान पर स्थित सबसे कम सुविधा प्राप्त समुदायों की चिंताओं को सामने लाकर न्याय की खोज को और गहरा कर दिया है। विरोधी रुख उनके ही वर्ग के अति वंचित वर्गों में उनके लिए अविश्वसनीयता पैदा कर रहा है, जबकि विरोधी रुख अपनाने वालों को सोचना चाहिए कि इससे उनकी असांविधानिक व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई को और मजबूती मिलेगी, क्योंकि उनके साथ वे लोग भी खड़े मिलेंगे, जो अब तक उनकी मुहिम में साथ खड़े नहीं दिखाई देते थे, उसका प्रमुख कारण था कि वे मुख्य व्यवस्था का हिस्सा ही नहीं बन पाए थे।
अलग-अलग राज्यों में अनुसूचित जाति की जातियां सामाजिक-राजनीतिक रूप से बेहद सक्रिय हैं। जैसे महाराष्ट्र में तीन दर्जन से अधिक जातियां शामिल हैं, लेकिन महार और मातंग सबसे प्रमुख हैं। इनकी साक्षरता दर तुलनात्मक रूप से उच्च है। वहीं अनुसूचित जनजाति में गोंड और भील, दो सबसे बड़ी जनजातियां हैं, जबकि राजस्थान की राज्य सूची में कुल 59 अनुसूचित जातियां शामिल हैं, लेकिन मेघवाल सबसे बड़ा अनुसूचित जाति समुदाय है, जिसकी सामाजिक-राजनीतिक स्थिति अन्य के मुकाबले बेहतर है। वहीं अनुसूचित जनजाति में मीणा सबसे प्रमुख जनजाति है, दर्जनों विधानसभा सीटों पर चुनावी नतीजों को प्रभावित करती है। समुदाय की देश भर में पुलिस और नौकरशाही में महत्वपूर्ण उपस्थिति है। उत्तर प्रदेश और बिहार में जाटव, पासी और दुसाध सबसे प्रमुख और सामाजिक-राजनीतिक रूप से सक्रिय जातियां हैं, जबकि इन्हीं राज्यों में मुसहर, सपेरा, बहेलिया, कलाबाज, वाल्मीकि और बदवाल आदि दर्जनों जातियां बेहद कमजोर स्थिति में हैं।
न्यायमूर्ति बीआर गवई ने कहा, ‘लाभार्थी समूहों के भीतर असमानताओं की जमीनी हकीकत इतनी स्पष्ट है कि इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। उन्होंने कहा कि एक नौकरशाह और एक शारीरिक मजदूर के बच्चे के साथ एक जैसा व्यवहार करना, भले ही दोनों अनुसूचित जाति समुदाय से हों, सांविधानिक जनादेश को पराजित करेगा।’ सामाजिक न्याय और आरक्षण का वर्गीकरण ऐसा मुद्दा है, जिसमें लगातार संशोधन नहीं हुआ, तो यह एक नया जातिवाद गढ़ देगा। अतः वर्तमान में चली आ रही आरक्षण प्रणाली को एंपिरिकल डाटा के आधार पर आरक्षण को दो से अधिक वर्गों में विभाजित किया जाना चाहिए और प्रत्येक उपसमूह के लिए जनसंख्या में उनकी हिस्सेदारी के आधार पर अलग-अलग कोटा निर्धारित किया जाना चाहिए। पिछड़े वर्ग के अंदर से उठ रही आवाजों को भी पहचाने जाने की जरूरत है, ताकि केंद्र स्तर पर आरक्षण का वर्गीकरण किया जा सके।