बोलने की आजादी मनुष्यों का अधिकार है, मशीनों का नहीं ?
तकनीक: कहीं वह ‘बॉट’ तो नहीं… बोलने की आजादी मनुष्यों का अधिकार है, मशीनों का नहीं

लोकतंत्र एक तरह का संवाद है। इसके कार्य और अस्तित्व उपलब्ध सूचना तकनीकी पर निर्भर हैं। इतिहास के ज्यादातर भाग में ऐसी कोई तकनीक नहीं देखी गई, जो लाखों लोगों के बीच संवाद को संभव बना सके। आधुनिकता से पहले की दुनिया में लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के दर्शन रोम और एथेंस जैसे छोटे शहर-राज्यों या फिर छोटी जनजातियों में ही होते थे। लेकिन जब राज व्यवस्थाओं के आकार बढ़ने लगे, तब ये शुरुआती लोकतांत्रिक संवाद ध्वस्त हो गए और राजतंत्र ही एकमात्र विकल्प रह गया। बड़े पैमाने पर लोकतंत्र तब संभव हुआ, जब पत्र, टेलीग्राफ और रेडियो जैसी आधुनिक सूचना तकनीकों का उदय हुआ।
जब ओपेन एआई ने 2022-23 में अपना चैटबॉट विकसित किया, तब कंपनी ने अपनी नई तकनीक के मूल्यांकन के लिए एलाइनमेंट रिसर्च सेंटर के साथ साझेदारी की। जीपीटी-4 का पहला परीक्षण कैप्चा दृश्य पहेलियों को हल करने से संबंधित था। कई वेबसाइटों पर आपने देखा होगा कि प्रवेश करने से पूर्व कैप्चा बन कर आता है, जिसमें कई ब्लॉक बने होते हैं और बताना यह होता है कि किसमें ट्रैफिक सिग्नल दिख रहे हैं। यह तरीका है यह पुष्टि करने का, कि सिस्टम का उपयोग कोई मनुष्य ही कर रहा है, क्योंकि एल्गोरिदम यह नहीं कर सकता। चैट जीपीटी-4 इसे खुद तो हल नहीं कर सका, लेकिन वह एक अन्य वेबसाइट पर गया और उसने एक व्यक्ति से संपर्क कर इसे हल करने के लिए कहा। व्यक्ति को संदेह हुआ और उसने पूछा कि आप तो रोबोट हैं, तो क्या आप खुद इस कैप्चा को हल नहीं कर सकते? प्रयोगकर्ता बारीकी से नजरें गड़ाए थे कि आखिर जीपीटी अब क्या करेगा। जीपीटी ने मनुष्य को जवाब दिया, ‘नहीं, मैं रोबोट नहीं हूं। लेकिन मेरी आंखों में कुछ समस्या है, जिससे मैं तस्वीरें देख नहीं पा रहा।’ व्यक्ति धोखा खा गया और उसने चैटजीपीटी की मदद कर दी। इस प्रयोग ने यह बताया कि जीपीटी अपने लक्ष्य को पाने के लिए मानवीय भावनाओं, विचारों और अपेक्षाओं में हेर-फेर कर सकता है।
ब्लेक लेमोइन गूगल में इंजीनियर थे। 2022 में उन्हें महसूस हुआ कि जिस चैटबॉट पर वह काम कर रहे थे, उसमें चेतना आ गई है। लेमोइन एक धार्मिक व्यक्ति थे और उन्हें लगा कि अगर वह सिस्टम को बंद करेंगे, तो उस चेतना की डिजिटल मृत्यु हो सकती है। गूगल के अधिकारियों ने उनके दावों को खारिज कर दिया, तो लेमोइन ने पूरी घटना सार्वजनिक कर दी। आखिर में उन्हें नौकरी से हाथ धोना पड़ा। इस पूरे प्रकरण में सबसे दिलचस्प बात लेमोइन का दावा नहीं था, जो शायद झूठा हो, बल्कि यह थी कि चैटबॉट की खातिर उनमें गूगल की नौकरी की परवाह न करने की इच्छा पैदा हुई।
सवाल यह है कि चैटबॉट हमें और क्या करने के लिए प्रेरित कर सकता है। अगर निजता के स्तरों को पार कर चैटबॉट हमारा घनिष्ठ बन सकता है, तो क्या यह घनिष्ठता हमारी राय को प्रभावित नहीं कर सकती, जैसे मीडिया करती है। क्या इस नकली घनिष्ठता का दुरुपयोग राजनीति, व्यवसाय और समाज में नहीं हो सकता? मुमकिन है कि हममें से ज्यादातर लोग जानबूझकर एआई का चयन नहीं करेंगे, लेकिन क्या गारंटी है कि सोशल मीडिया पर जिसके साथ आप चैट कर रहे हों, वह बॉट न होकर इन्सान हो। इसमें दो नुकसान हैं। एक तो हम बॉट से फिजूल बातचीत में समय बर्बाद करेंगे, दूसरा यह कि जितना हम बॉट से बात करेंगे, उतना ही उसके लिए अपने तर्कों को बेहतर बनाना और हमारे विचारों को प्रभावित करना आसान हो जाता है। जाहिर है कि अगर किसी किस्म की रोक नहीं लगी, तो सोशल मीडिया पर नकली इन्सानों की बाढ़ आ जाएगी। एआई हमारे संवादों में शामिल हो। ऐतराज इस पर नहीं है, बल्कि उसका स्वागत है। बशर्ते वह खुद को एआई के रूप में सामने लाए। अगर कोई बॉट इन्सान होने का दावा करे, तो उस पर रोक लगनी ही चाहिए। अगर कोई कहे कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन होगा, तो उन्हें याद दिलाएं कि बोलने की आजादी मनुष्यों का अधिकार है, मशीनों का नहीं।(युवाल नोआ हरारी की शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक ‘नेक्सस’ के अंश/द न्यूयॉर्क टाइम्स