मृत्युदंड का भी है इंतजार ….. न्याय तंत्र पर सवाल उठा रहे आंकड़े ?
मंथन: मृत्युदंड का भी है इंतजार; न्याय तंत्र की प्रभावशीलता पर सवाल उठा रहे आंकड़े
हाल ही में जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2023 में मृत्युदंड पाने वाले कैदियों की संख्या बढ़कर 561 हो गई है, जो पिछले 19 वर्षों में सर्वाधिक है। इससे पहले, जेलों पर नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के अनुसार, 2004 में मृत्युदंड पाने वाले कैदियों की सबसे ज्यादा संख्या 563 थी। हाल के वर्षों में यह वृद्धि कई कारणों से हो सकती है, जैसे, अपीलीय न्यायालयों द्वारा मामलों के निपटारे की कम दर और सुनवाई अदालतों द्वारा मृत्युदंड देने की बढ़ती प्रवृत्ति आदि। गौरतलब है कि दिल्ली स्थित राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय द्वारा प्रोजेक्ट 39-ए के तहत मृत्युदंड पर वार्षिक रिपोर्ट जारी की जाती है। इसमें उल्लेख है कि 2023 में मृत्युदंड के 120 आदेश दिए गए थे, हालांकि इसमें कमी आई है, क्योंकि 2016 में 156 ऐसे आदेश दिए गए थे।
वर्ष 2019 के बाद यौन अपराधों से जुड़े मामलों में ट्रायल कोर्ट ने सबसे ज्यादा मौत की सजा के आदेश दिए हैं। वर्ष 2023 में दुष्कर्म और हत्या सहित यौन अपराधों के लिए 64 लोगों (लगभग 53 फीसदी) को मौत की सजा सुनाई गई। यह 2016 में मौत की सजा पाए 27 कैदियों से ज्यादा है। 75 फीसदी मामलों में, अदालतों ने मौत की सजा तब सुनाई, जब मामला 12 साल से कम उम्र की पीड़िता के साथ दुष्कर्म और हत्या से जुड़ा था। पिछले साल भी 2020 के बाद से उच्च न्यायालयों में मौत की सजा की पुष्टि की सबसे कम निपटान दर देखी गई। महत्वपूर्ण बात यह है कि 2000 के बाद से अपीलीय अदालतों द्वारा मौत की सजा की पुष्टि की 2023 में सबसे कम दर दर्ज की गई। रिपोर्ट में कहा गया है, उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों ने जांच प्रक्रिया के प्रभावी नहीं होने और लोगों को दोषी ठहरा कर मौत की सजा सुनाने के लिए ट्रायल कोर्ट द्वारा भरोसेमंद साक्ष्यों की गुणवत्ता एवं विश्वसनीयता पर गंभीर चिंता जताई है।
रिपोर्ट में दिए गए ये आंकड़े मृत्युदंड के मामलों की ऐसी स्थिति बयान कर रहे हैं, जिसमें न्याय तंत्र की प्रभावशीलता और विश्वसनीयता पर प्रश्न चिह्न लग रहे हैं। यहां भारत में मृत्युदंड की सांविधानिक स्थिति पर िवचार करना समीचीन होगा। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 72 और अनुच्छेद 161 में क्रमशः राष्ट्रपति और राज्यपाल को मृत्युदंड को क्षमा करने की शक्ति दी गई है। ऐसा इसलिए है कि राष्ट्रपति जनता का सर्वोच्च निर्वाचित प्रतिनिधि है, अतः संप्रभु जनता में निहित ऐसी शक्ति का प्रयोग कर सकता है। दूसरी ओर, हरियाणा राज्य बनाम राजकुमार, 2021 मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय से पहले राज्यपाल मृत्युदंड को क्षमा नहीं कर सकता था, लेकिन इस मामले में न्यायालय ने कहा कि चूंकि राज्यपाल राष्ट्रपति का प्रतिनिधि होने के साथ-साथ राज्य का सांविधानिक प्रधान भी है, अतः दोनों की शक्तियों में कोई विभेद नहीं किया जा सकता।
भारतीय दंड संहिता में धारा 302 के तहत मृत्युदंड का प्रावधान था। वर्तमान में प्रचलित भारतीय न्याय संहिता में भी कई अपराधों में मृत्युदंड का प्रावधान है। जैसे हत्या, 12 वर्ष से कम आयु की बालिकाओं के साथ दुष्कर्म और हत्या आदि। उच्चतम न्यायालय ने समय-समय पर मृत्युदंड की सांविधानिक वैधता के संबंध में निर्णय दिए हैं। भारत में मृत्युदंड को पहली चुनौती जगमोहन सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, 1972 मामले में दी गई थी। न्यायालय ने माना कि मृत्युदंड की सजा परिस्थितियों की विस्तृत जांच और गंभीर मूल्यांकन के बाद दी जाती है, इसलिए ऐसी प्रक्रिया मृत्युदंड के प्रावधान को उचित ठहराती है और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन नहीं करती है। न्यायालय ने यह भी कहा कि यह दंड कई न्यायिक सिद्धांतों पर आधारित है। राजेंद्र प्रसाद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, 1979 मामले में न्यायालय ने प्रतिशोधात्मक सिद्धांत से अलग हटकर सामाजिक लक्ष्यों के रूप में निवारण और सुधारात्मक सिद्धांत पर जोर दिया। इसके अलावा, न्यायालय ने माना कि मृत्युदंड के आदेश के लिए आवश्यक ‘विशेष कारण’ अपराध से संबंधित नहीं होने चाहिए, बल्कि अपराधी पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए।
वर्ष 1980 में बच्चन सिंह बनाम पंजाब राज्य में मृत्युदंड की सांविधानिक वैधता को फिर से चुनौती दी गई। इस मामले में सबसे पहले, आजीवन कारावास और मृत्युदंड के बीच विकल्प वाले अपराधों के लिए आजीवन कारावास देने के नियम के संबंध में मृत्युदंड को अपवाद बना दिया गया था। दूसरे, राजेंद्र प्रसाद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, 1979 के सिद्धांत ने उस आधार की व्याख्या की थी, जिसके आधार पर ‘मृत्युदंड’ अपराधी की परिस्थिति से संबंधित होना चाहिए, न कि अपराध से। तीसरे, इसने मेनका गांधी बनाम भारत संघ, 1978 के आलोक में मृत्युदंड की समीक्षा की, क्योंकि प्रत्येक दंडात्मक कार्रवाई को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 के स्वर्णिम त्रिभुज परीक्षण को संतुष्ट करने के बाद तर्कसंगतता के परीक्षण को पूरा करना चाहिए। मृत्युदंड के संबंध में बच्चन सिंह मामले के अलावा मारू राम बनाम भारत संघ, 1980 मामले में भी न्यायालय ने कहा कि मृत्युदंड ‘दुर्लभ में दुर्लभतम’ मामलों में ही दिया जाएगा, अर्थात यह अपवाद स्वरूप ही दिया जाएगा।
सवाल यह है कि आज के समय में, जब अधिकारों के प्रति दिन-प्रतिदिन जागरूकता बढ़ रही है और विशेषकर मानवाधिकारों के संबंध में कई राष्ट्रों ने मृत्युदंड को समाप्त करने पर जोर दिया है, भारत में भी मृत्युदंड की सांविधानिक वैधता पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। प्रत्यक्ष रूप से तो ऐसा दंड मानव अधिकारों के विरुद्ध लगता है, लेकिन कानून को हटाना या उसे इस आधार पर अवैध कहना तर्कसंगत नहीं होगा। देखना यह होगा कि ऐसा दंड किन परिस्थितियों में दिया गया है और यदि परिस्थितियां ‘दुर्लभ में दुर्लभतम’ हैं, तो मृत्युदंड को तार्किक मानना होगा। लेकिन यदि मामले एक निश्चित समय-सीमा से अधिक समय तक लंबित रहते हैं या ऐसी सजा पाने वाले कैदियों को फांसी नहीं दी जाती, तो ऐसी स्थिति मानव अधिकारों या संविधान के स्वर्णिम त्रिभुज से असंगत मानी जाएगी।
रिपोर्ट में दिए गए ये आंकड़े मृत्युदंड के मामलों की ऐसी स्थिति बयान कर रहे हैं, जिसमें न्याय तंत्र की प्रभावशीलता और विश्वसनीयता पर प्रश्न चिह्न लग रहे हैं। यहां भारत में मृत्युदंड की सांविधानिक स्थिति पर िवचार करना समीचीन होगा। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 72 और अनुच्छेद 161 में क्रमशः राष्ट्रपति और राज्यपाल को मृत्युदंड को क्षमा करने की शक्ति दी गई है। ऐसा इसलिए है कि राष्ट्रपति जनता का सर्वोच्च निर्वाचित प्रतिनिधि है, अतः संप्रभु जनता में निहित ऐसी शक्ति का प्रयोग कर सकता है। दूसरी ओर, हरियाणा राज्य बनाम राजकुमार, 2021 मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय से पहले राज्यपाल मृत्युदंड को क्षमा नहीं कर सकता था, लेकिन इस मामले में न्यायालय ने कहा कि चूंकि राज्यपाल राष्ट्रपति का प्रतिनिधि होने के साथ-साथ राज्य का सांविधानिक प्रधान भी है, अतः दोनों की शक्तियों में कोई विभेद नहीं किया जा सकता।
भारतीय दंड संहिता में धारा 302 के तहत मृत्युदंड का प्रावधान था। वर्तमान में प्रचलित भारतीय न्याय संहिता में भी कई अपराधों में मृत्युदंड का प्रावधान है। जैसे हत्या, 12 वर्ष से कम आयु की बालिकाओं के साथ दुष्कर्म और हत्या आदि। उच्चतम न्यायालय ने समय-समय पर मृत्युदंड की सांविधानिक वैधता के संबंध में निर्णय दिए हैं। भारत में मृत्युदंड को पहली चुनौती जगमोहन सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, 1972 मामले में दी गई थी। न्यायालय ने माना कि मृत्युदंड की सजा परिस्थितियों की विस्तृत जांच और गंभीर मूल्यांकन के बाद दी जाती है, इसलिए ऐसी प्रक्रिया मृत्युदंड के प्रावधान को उचित ठहराती है और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन नहीं करती है। न्यायालय ने यह भी कहा कि यह दंड कई न्यायिक सिद्धांतों पर आधारित है। राजेंद्र प्रसाद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, 1979 मामले में न्यायालय ने प्रतिशोधात्मक सिद्धांत से अलग हटकर सामाजिक लक्ष्यों के रूप में निवारण और सुधारात्मक सिद्धांत पर जोर दिया। इसके अलावा, न्यायालय ने माना कि मृत्युदंड के आदेश के लिए आवश्यक ‘विशेष कारण’ अपराध से संबंधित नहीं होने चाहिए, बल्कि अपराधी पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए।
वर्ष 1980 में बच्चन सिंह बनाम पंजाब राज्य में मृत्युदंड की सांविधानिक वैधता को फिर से चुनौती दी गई। इस मामले में सबसे पहले, आजीवन कारावास और मृत्युदंड के बीच विकल्प वाले अपराधों के लिए आजीवन कारावास देने के नियम के संबंध में मृत्युदंड को अपवाद बना दिया गया था। दूसरे, राजेंद्र प्रसाद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, 1979 के सिद्धांत ने उस आधार की व्याख्या की थी, जिसके आधार पर ‘मृत्युदंड’ अपराधी की परिस्थिति से संबंधित होना चाहिए, न कि अपराध से। तीसरे, इसने मेनका गांधी बनाम भारत संघ, 1978 के आलोक में मृत्युदंड की समीक्षा की, क्योंकि प्रत्येक दंडात्मक कार्रवाई को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 के स्वर्णिम त्रिभुज परीक्षण को संतुष्ट करने के बाद तर्कसंगतता के परीक्षण को पूरा करना चाहिए। मृत्युदंड के संबंध में बच्चन सिंह मामले के अलावा मारू राम बनाम भारत संघ, 1980 मामले में भी न्यायालय ने कहा कि मृत्युदंड ‘दुर्लभ में दुर्लभतम’ मामलों में ही दिया जाएगा, अर्थात यह अपवाद स्वरूप ही दिया जाएगा।
सवाल यह है कि आज के समय में, जब अधिकारों के प्रति दिन-प्रतिदिन जागरूकता बढ़ रही है और विशेषकर मानवाधिकारों के संबंध में कई राष्ट्रों ने मृत्युदंड को समाप्त करने पर जोर दिया है, भारत में भी मृत्युदंड की सांविधानिक वैधता पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। प्रत्यक्ष रूप से तो ऐसा दंड मानव अधिकारों के विरुद्ध लगता है, लेकिन कानून को हटाना या उसे इस आधार पर अवैध कहना तर्कसंगत नहीं होगा। देखना यह होगा कि ऐसा दंड किन परिस्थितियों में दिया गया है और यदि परिस्थितियां ‘दुर्लभ में दुर्लभतम’ हैं, तो मृत्युदंड को तार्किक मानना होगा। लेकिन यदि मामले एक निश्चित समय-सीमा से अधिक समय तक लंबित रहते हैं या ऐसी सजा पाने वाले कैदियों को फांसी नहीं दी जाती, तो ऐसी स्थिति मानव अधिकारों या संविधान के स्वर्णिम त्रिभुज से असंगत मानी जाएगी।