मुद्दों पर चर्चा कम, भावनाएं भुनाने पर जोर ..?

राजनीतिक दल अपनी वोट-राजनीति का सही गणित बिठा कर सत्ता की राह तलाशते रहे हैं …

कर्नाटक के परिणामों का असर राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों पर ही नहीं, बल्कि विपक्षी एकता की प्रक्रिया में कांग्रेस की भूमिका पर भी पड़ सकता है। इस लिहाज से कर्नाटक चुनाव महत्त्वपूर्ण हैं।

कर्नाटक में मतदान की तारीख जैसे-जैसे नजदीक आ रही है, विधानसभा चुनाव मुद्दों से भटक कर भावनाओं पर केंद्रित होता दिख रहा है। मुफ्त रेवड़ियों के चुनावी वादे दक्षिण की पुरानी परंपरा है, लेकिन अब शिव के गले के सांप और बजरंगबली भी चुनावी मुद्दा बन गए हैं। दक्षिण भारत में भाजपा का प्रवेश द्वार बने कर्नाटक को सामाजिक-आर्थिक रूप से बेहतर राज्यों में गिना जाता है, पर कटु सत्य यही है कि वहां की राजनीति जातीय बंधनों से मुक्त नहीं हो पाई है। राज्य में लिंगायत, वोक्कालिगा और कुरुबा—तीन बड़े समुदाय हैं। राजनीतिक दल इनके बीच अपनी वोट-राजनीति का सही गणित बिठा कर ही सत्ता की राह तलाशते रहे हैं। इस बार भी चुनावी परिदृश्य इसी गुणा-भाग से शुरू हुआ था।

मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई और पूर्व मुख्यमंत्री बी.एस. येडियुरप्पा के रूप में सबसे बड़े लिंगायत समुदाय के बड़े चेहरे भाजपा के पास हैं, लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टर और पूर्व उप मुख्यमंत्री लक्ष्मण सावदी के बगावत कर कांग्रेस में चले जाने से उसे झटका भी लगा है। कांग्रेस के पास पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के रूप में कुरुबा समुदाय तथा प्रदेश अध्यक्ष डी. के. शिव कुमार के रूप में वोक्कालिगा समुदाय के बड़े चेहरे पहले से हैं। ऐसे में माना जा सकता है कि शेट्टर और सावदी के पाला बदलने से उसे लाभ ही हुआ। हालांकि कर्नाटक की राजनीति के तीसरे ध्रुव जनता दल (एस) के नेता एवं पूर्व मुख्यमंत्री एच. डी. कुमारस्वामी के पिता पूर्व प्रधानमंत्री एच. डी. देवगौड़ा वोक्कालिगा समुदाय के सबसे बड़े नेता हैं, लेकिन दल का दबदबा मुख्यत: पुराने मैसूर क्षेत्र में ही है, जहां विधानसभा की कुल 61 सीटें हैं। जाहिर है, इनके आधार पर 224 सदस्यीय विधानसभा में बहुमत हासिल नहीं किया जा सकता, लेकिन खंडित जनादेश की स्थिति में सत्ता संतुलन की चाबी जद (एस) के हाथ लग जाती है। शायद इसलिए भी जद (एस) चुनाव पूर्व के बजाय चुनाव बाद के गठबंधन में ज्यादा विश्वास रखता है। इससे ऐसा लग सकता है कि जद (एस) की अपनी कोई विचारधारा नहीं है, जबकि सच यह है कि खासकर कर्नाटक में किसी भी राजनीतिक दल की कोई स्पष्ट और प्रतिबद्ध विचारधारा नजर नहीं आती। अगर ऐसा नहीं होता, तो क्या कुमारस्वामी भाजपा और कांग्रेस, दोनों से गठबंधन कर मुख्यमंत्री पद का सुख भोग पाते? क्या जगदीश शेट्टर और लक्ष्मण सावदी महज टिकट न मिलने पर भाजपा छोड़ उसकी कट्टर विरोधी कांग्रेस में शामिल हो जाते? वैसे कर्नाटक की राजनीति के वैचारिक संकट के और भी बड़े उदाहरण मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई और पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया हैं। ये दोनों मूलत: जनता दल से हैं। बसवराज जनता दल के राष्ट्रीय नेता रहे पूर्व मुख्यमंत्री एस.आर. बोम्मई के पुत्र हैं, तो सिद्धारमैया भी जनता दल सरकार में उप मुख्यमंत्री रह चुके हैं। बिखराव के दौर से गुजरते हुए जब जनता दल कर्नाटक में जद (एस) बन कर देवगौड़ा परिवार तक सिमट गया, तो इन दोनों की सत्ता महत्त्वाकांक्षाएं कुमारस्वामी से टकराईं। तब सिद्धारमैया कांग्रेसी हो गए और बसवराज बोम्मई भाजपाई। आश्चर्यजनक यह भी है कि इन दोनों बड़े दलों ने जातीय समीकरण के मद्देनजर अपने पुराने नेताओं पर तरजीह देते हुए इन्हें मुख्यमंत्री भी बना दिया।

यह देखते हुए कि पिछले विधानसभा चुनाव में भी भाजपा बहुमत के आंकड़े से पहले ही 104 सीटों पर ठिठक गई थी और कांग्रेस 78 सीटें जीतने में सफल रही थी, शेट्टर और सावदी के कांग्रेसी बन जाने को देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी के अनुकूल परिदृश्य ही माना जाना चाहिए। ऐसे में कांग्रेस येडियुरप्पा और बोम्मई के नेतृत्ववाली भाजपा सरकारों के कामकाज को मुद्दा बना कर चुनाव लड़ सकती थी। जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक और जंतर-मंतर पर पहलवानों के धरने ने भी उसे अतिरिक्त मुद्दे उपलब्ध करा दिए। लोक लुभावन वादों वाले भाजपाई घोषणापत्र के जवाब में वैसे ही या और आगे बढ़ते हुए वादे भी राजनीतिक रूप से समझ में आते हैं, पर पीएफआइ के साथ ही बजरंग दल पर प्रतिबंध के वादे ने तो भाजपा को मनवांछित मुद्दा उपलब्ध करा दिया है। पहले कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जहरीला सांप बता कर अवांछित और अशोभनीय विवाद पैदा किया, तो अब बजरंग दल और पीएफआइ को एक ही श्रेणी में रख कर कांग्रेस ने चुनाव को असल मुद्दों से भटका कर भावनाओं में बह जाने या बहा लिए जाने का मौका खुद दे दिया है।

यह बात भी सही है कि इससे पहले चार प्रतिशत मुस्लिम आरक्षण खत्म कर तथा ‘कांग्रेस सत्ता में आई तो दंगे होंगे’, जैसी चेतावनियों से भाजपा ने पहले ही चुनाव को भावनात्मक मुद्दों पर ले जाने की पहल कर दी थी। शायद शेट्टर-सावदी समेत बड़ी संख्या में बगावत से बिगड़ते समीकरण को सुधारने के लिए उसे यही कारगर लगा हो, पर कांग्रेस क्यों एक बार फिर भाजपा द्वारा तैयार चुनावी पिच पर खेलने को तैयार हो गई? यह पिच भाजपा के लिए सहूलियत भरा है। कर्नाटक के परिणामों का असर राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों पर ही नहीं, बल्कि विपक्षी एकता की प्रक्रिया में कांग्रेस की भूमिका पर भी पड़ सकता है।

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