गिग अर्थव्यवस्था का खोखलापन.. ?
कृत्रिम बुद्धिमत्ता, इंसान और बाजार: गिग अर्थव्यवस्था का खोखलापन…सुदृढ़ और स्पष्ट संरचना कायम करना जरूरी

वर्तमान में तमाम सुविधाओं के लिए ऑनलाइन व्यवस्था पर निर्भरता बढ़ती जा रही है। भविष्य में कृत्रिम बुद्धिमत्ता एवं बिग डाटा के प्रभाव से ही समस्त जीवनशैली प्रभावित होने वाली है, जिसमें कोई संकोच नहीं है। इस व्यवस्था ने जहां एक ओर इन्सान को अत्यधिक आलसी बना दिया है, वहीं उसकी सोच और परख का दायरा भी कम कर दिया है। ऑनलाइन व्यवस्था ने जहां सुलभता प्रदान की है, वहीं इसका दुरुपयोग भी बहुत हद तक बढ़ गया है, जिसके दूरगामी दुष्प्रभाव अर्थव्यवस्था के साथ पर्यावरण और सामाजिक व्यवस्था पर भी पड़ने अवश्यंभावी हैं।
ऑनलाइन व्यापार की मूल कड़ी गिग वर्कर्स (असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले श्रमिक) पूर्णतः असुरक्षित हैं और उन पर निरंतर दबाव की स्थितियां बढ़ती जा रही हैं। नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2030 तक गिग वर्कर्स की संख्या लगभग ढाई करोड़ तक पहुंच जाएगी। ये वे लोग हैं, जो निरंतर खतरों से खेलते हुए तय समय में सुविधा या उत्पाद सुलभ कराते हैं। विभिन्न प्लेटफॉर्म के बीच कम समय में वस्तुओं को उपलब्ध करवाने की होड़ लगी हुई है।
दुर्भाग्यवश न तो सरकार और न ही सामाजिक संगठन, इस पर आवाज उठा रहे हैं। प्रश्न यह है कि अपनी अपेक्षाओं या आवश्यकताओं के आगे क्या गिग वर्कर्स की जिंदगी कोई महत्व नहीं रखती? इस बाबत कोई भी आंकड़ा उपलब्ध नहीं है कि कितने गिग वर्कर्स भविष्य निधि, कर्मचारी या सामूहिक बीमा जैसे सामाजिक सुरक्षा कवच पा चुके हैं और कितने कर्मी अपने कार्य को अंजाम देते समय दुर्घटना या मौत का शिकार हुए हैं। ऑनलाइन व्यापार व्यवस्था की दूसरी अहम कड़ी उपभोक्ता वर्ग है। वह तो मानो संपूर्ण अंधकार में मात्र सुलभ एवं सुगम सेवा की चाह में ऑर्डर दर ऑर्डर किए जाता है। न उसे यह तय करने का अधिकार है कि प्राप्त वस्तु का तोल, आकार या संख्या प्रदर्शित वस्तु के अनुरूप है और न ही उसके मूल्य के आकलन का।
वह तो विभिन्न ऑफर के भ्रमजाल में फंस जाता है। हालांकि वह छूट भी बाजार में उपलब्ध दर से अधिक होती है। पूर्व में वस्तुओं के अलग-अलग मूल्य को लेकर उपभोक्ता आंदोलनकर्ताओं ने आवाज उठाई थी, लेकिन अब सब मौन हैं। उपभोक्ता के स्तर पर ही एक और अत्यंत गंभीर तथ्य है, जो ऑनलाइन व्यापार के अनियंत्रित होने से जुड़ा है, वह मूलतः दवाओं की घरों पर डिलीवरी से जुड़ा है। इनमें ऐसी दवाओं की भी डिलीवरी हो रही है, जिनके लिए डॉक्टर का परामर्श बहुत जरूरी है। कई ऐसे मामले भी आ चुके हैं, जिनमें लोगों ने प्रतिबंधित दवा ऑनलाइन मंगवाकर अपना जीवन ही खत्म कर लिया।
व्यापारी के स्तर पर किसी भी प्रकार के नियम कायदों के अभाव में अनेकानेक समस्याएं हैं, जिनमें सर्वाधिक क्रय की गई वस्तु और उसकी राशि के लौटाने संबंधी मामले हैं। आजकल ऐसे ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म भी स्थापित हो गए हैं, जहां लौटाई गई वस्तुएं नीलामी के जरिये वापस बाजार में आ जाती हैं। खाद्य सामग्री की डिलीवरी करने वालों के लिए तो यह समस्या अत्यंत व्यापक है, जिसका सीधा असर वस्तु की विक्रय राशि में बढ़ोतरी के रूप में दिखता है। एक मोटे अनुमान के अनुसार, लगभग 10-15 प्रतिशत तक बनी हुई और 20-25 प्रतिशत तक किराना सामग्री बर्बाद होने के कगार पर होती है। यह सीधे-सीधे पर्यावरण को नुकसान पहुंचाती है। इन सब चुनौतियों के मध्य यह तो स्पष्ट है कि गिग अर्थव्यवस्था को समाप्त नहीं किया जा सकता, या यों कहें यह ही भविष्य का सत्य है। आवश्यकता है एक नियंत्रण हेतु सुदृढ़ और स्पष्ट संरचना कायम करने की।
ऑनलाइन व्यापार की मूल कड़ी गिग वर्कर्स (असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले श्रमिक) पूर्णतः असुरक्षित हैं और उन पर निरंतर दबाव की स्थितियां बढ़ती जा रही हैं। नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2030 तक गिग वर्कर्स की संख्या लगभग ढाई करोड़ तक पहुंच जाएगी। ये वे लोग हैं, जो निरंतर खतरों से खेलते हुए तय समय में सुविधा या उत्पाद सुलभ कराते हैं। विभिन्न प्लेटफॉर्म के बीच कम समय में वस्तुओं को उपलब्ध करवाने की होड़ लगी हुई है।
दुर्भाग्यवश न तो सरकार और न ही सामाजिक संगठन, इस पर आवाज उठा रहे हैं। प्रश्न यह है कि अपनी अपेक्षाओं या आवश्यकताओं के आगे क्या गिग वर्कर्स की जिंदगी कोई महत्व नहीं रखती? इस बाबत कोई भी आंकड़ा उपलब्ध नहीं है कि कितने गिग वर्कर्स भविष्य निधि, कर्मचारी या सामूहिक बीमा जैसे सामाजिक सुरक्षा कवच पा चुके हैं और कितने कर्मी अपने कार्य को अंजाम देते समय दुर्घटना या मौत का शिकार हुए हैं। ऑनलाइन व्यापार व्यवस्था की दूसरी अहम कड़ी उपभोक्ता वर्ग है। वह तो मानो संपूर्ण अंधकार में मात्र सुलभ एवं सुगम सेवा की चाह में ऑर्डर दर ऑर्डर किए जाता है। न उसे यह तय करने का अधिकार है कि प्राप्त वस्तु का तोल, आकार या संख्या प्रदर्शित वस्तु के अनुरूप है और न ही उसके मूल्य के आकलन का।
वह तो विभिन्न ऑफर के भ्रमजाल में फंस जाता है। हालांकि वह छूट भी बाजार में उपलब्ध दर से अधिक होती है। पूर्व में वस्तुओं के अलग-अलग मूल्य को लेकर उपभोक्ता आंदोलनकर्ताओं ने आवाज उठाई थी, लेकिन अब सब मौन हैं। उपभोक्ता के स्तर पर ही एक और अत्यंत गंभीर तथ्य है, जो ऑनलाइन व्यापार के अनियंत्रित होने से जुड़ा है, वह मूलतः दवाओं की घरों पर डिलीवरी से जुड़ा है। इनमें ऐसी दवाओं की भी डिलीवरी हो रही है, जिनके लिए डॉक्टर का परामर्श बहुत जरूरी है। कई ऐसे मामले भी आ चुके हैं, जिनमें लोगों ने प्रतिबंधित दवा ऑनलाइन मंगवाकर अपना जीवन ही खत्म कर लिया।
व्यापारी के स्तर पर किसी भी प्रकार के नियम कायदों के अभाव में अनेकानेक समस्याएं हैं, जिनमें सर्वाधिक क्रय की गई वस्तु और उसकी राशि के लौटाने संबंधी मामले हैं। आजकल ऐसे ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म भी स्थापित हो गए हैं, जहां लौटाई गई वस्तुएं नीलामी के जरिये वापस बाजार में आ जाती हैं। खाद्य सामग्री की डिलीवरी करने वालों के लिए तो यह समस्या अत्यंत व्यापक है, जिसका सीधा असर वस्तु की विक्रय राशि में बढ़ोतरी के रूप में दिखता है। एक मोटे अनुमान के अनुसार, लगभग 10-15 प्रतिशत तक बनी हुई और 20-25 प्रतिशत तक किराना सामग्री बर्बाद होने के कगार पर होती है। यह सीधे-सीधे पर्यावरण को नुकसान पहुंचाती है। इन सब चुनौतियों के मध्य यह तो स्पष्ट है कि गिग अर्थव्यवस्था को समाप्त नहीं किया जा सकता, या यों कहें यह ही भविष्य का सत्य है। आवश्यकता है एक नियंत्रण हेतु सुदृढ़ और स्पष्ट संरचना कायम करने की।