भारत का संविधान नम्र और कठोरता के पैमाने पर कहां ठहरता है?

भारत का संविधान नम्र और कठोरता के पैमाने पर कहां ठहरता है?
भारत का संविधान देश का सर्वोच्च कानून है. भारतीय संविधान भारत की संविधान सभा द्वारा 26 नवंबर 1949 को अपनाया गया था और 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ था.

भारत का संविधान दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है. इसमें नम्रता और कठोरता दोनों का एक अनूठा संतुलन है. यह संतुलन ही इसे एक जीवंत दस्तावेज बनाता है. हाल ही में चीफ जस्टिस ने भी भारतीय संविधान की प्रशंसा की है.

सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस (CJI) डी.वाई. चंद्रचूड़ ने कहा है कि कोई भी पीढ़ी संविधान पर एकाधिकार का दावा नहीं कर सकती है. संविधान की अवधारणा समय के साथ बदलती और विकसित होती है. इसे हर पीढ़ी अपने तरीके से समझने और व्याख्या करने का अधिकार रखती है.
 
CJI ने इस बात पर जोर दिया कि संविधान की ताकत इसमें है कि यह समय के साथ बदलते सामाजिक, कानूनी और आर्थिक हालात के अनुसार खुद को ढाल सकता है. उन्होंने इसे अमेरिका की ‘ओरिजिनलिज्म’ की अवधारणा से अलग बताया, जहां संविधान को उसकी मूल मंशा के हिसाब से पढ़ा जाता है.

CJI के अनुसार, कोई भी दो पीढ़ियां संविधान को एक ही सामाजिक, कानूनी या आर्थिक संदर्भ में नहीं पढ़ सकतीं. जैसे-जैसे समाज का विकास होता है, नई चुनौतियां सामने आती हैं जिनके लिए संविधान की नई व्याख्याओं की आवश्यकता होती है.

क्यों अहम है संविधान?
भारतीय संविधान भारत की संविधान सभा द्वारा 26 नवंबर 1949 को अपनाया गया था और 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ. भारत का संविधान देश का सर्वोच्च कानून है. यह नागरिकों के मौलिक अधिकार और उनके कर्तव्यों को बताता है. संविधान की प्रस्तावना में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि इसे जनता द्वारा अपनाया गया है. संसद संविधान के ऊपर नहीं जा सकती और इसे पारित या रद्द नहीं कर सकती. 

भारतीय संविधान देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था का आधार है. इसके बिना सरकार और नागरिकों के बीच संतुलन बनाना मुश्किल है. संविधान भारत को एक लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित करता है. यह सुनिश्चित करता है कि शक्ति जनता के हाथ में हो और सरकार जनता द्वारा चुनी जाए. संविधान सभी नागरिकों को समानता, न्याय और स्वतंत्रता का अधिकार देता है. यह जाति, धर्म, लिंग या अन्य किसी भी भेदभाव के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता है.

भारत का संविधान नम्र और कठोरता के पैमाने पर कहां ठहरता है?

शासन में संवैधानिक नम्रता की क्या भूमिका है?
नम्र संविधान यह सुनिश्चित करता है कि वह समय के साथ बदलती सामाजिक आवश्यकताओं के साथ बदल सके. आज के दौर में तकनीक और मानव अधिकारों के मानकों में बदलाव हो रहे हैं, जैसे कि डेटा प्रोटेक्शन लॉ. ऐसे में संविधान का नम्र होना जरूरी है ताकि बदलती जरूरतों और परिस्थितियों के अनुसार इसे भी बदला जा सके. इससे सरकारें और संस्थान बेहतर तरीके से समाज की नई चुनौतियों का सामना कर सकते हैं.

एक ‘जीवंत संविधान’ का मतलब है कि यह केवल एक कागज की तरह नहीं है, बल्कि यह जीवित दस्तावेज है जो समाज में हो रहे बदलावों के साथ खुद को ढाल सकता है. इसका अर्थ है कि जब नई चुनौतियां सामने आती हैं, जैसे कि डिजिटल युग में प्राइवेसी से संबंधित समस्याएं, तो कानून को उनके समाधान के लिए नया नजरिया अपनाने की अनुमति होती है. इससे न केवल कानून में नवाचार होता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित होता है कि नागरिकों के अधिकारों की रक्षा की जा सके.

क्यों कहते हैं कि भारतीय संविधान कठोर है?
भारतीय संविधान में कठोर और नम्र दोनों प्रकार के संविधानों की विशेषताएं हैं. कठोर का मतलब है कि संविधान के कुछ हिस्सों में बदलाव करना बहुत मुश्किल होता है. भारतीय संविधान में कुछ अनुच्छेद ऐसे हैं, जिन्हें संशोधित करने के लिए विशेष प्रक्रिया का पालन करना होता है. संविधान के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए कठोर प्रावधान हैं, ताकि कोई भी सरकार इन्हें आसानी से खत्म या बदल न सके. 

संविधान की कठोरता यह सुनिश्चित करती है कि कोई भी तानाशाहा या मनमाने बदलाव संविधान को कमजोर न कर सके. यानी, जो अधिकार और सिद्धांत संविधान में स्थापित हैं, उनकी सुरक्षा होती है. इस तरह भारत का संविधान कठोरता और लचीलेपन के बीच एक अच्छा संतुलन बनाए रखता है. यह संविधान को स्थायी बनाता है और साथ ही इसे बदलते समय के साथ बदलने की अनुमति भी देता है.

भारत का संविधान नम्र और कठोरता के पैमाने पर कहां ठहरता है?

क्या है संविधान में संशोधन की तरीका
किसी कानून में संशोधन करने के लिए पहले एक प्रस्ताव संसद में पेश किया जाता है. संसद के दोनों सदनों में मतदान होता है. अगर प्रस्ताव को जरूरी बहुमत मिलता है, तो इसे आगे बढ़ाया जाता है. अगर आवश्यक हो तो प्रस्ताव को राज्यों के विधानमंडलों के पास भेजा जाता है, जहां उसे अनुमोदित किया जाना चाहिए.

संविधान के अनुच्छेद 368 में दो प्रमुख तरीके बताए गए हैं, जिनसे संशोधन किया जा सकता है. एक है विशेष बहुमत से संसद का संशोधन, दूसरा है राज्यों की स्वीकृति. संविधान के मौलिक अधिकारों में संशोधन के लिए संसद में विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है. संसद के प्रत्येक सदन में उपस्थित सदस्यों में से दो-तिहाई का बहुमत अनिवार्य है. साथ ही, हर सदन के कुल सदस्यों का भी बहुमत होना चाहिए. मतलब कि केवल उपस्थित सदस्यों का ही नहीं, बल्कि कुल सदस्यों का भी समर्थन आवश्यक है.

ऐसे ही राष्ट्रपति के चुनाव के लिए संसद में विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है. इसके लिए न केवल संसद में विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है, बल्कि इसे कुल राज्यों के कम से कम आधे राज्यों द्वारा भी स्वीकृत करना होता है.

भारतीय संविधान की कठोरता और लचीलेपन से जुड़े मामले
गोलाकनाथ बनाम पंजाब राज्य मामला (1967): इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला सुनाया कि अनुच्छेद 368 केवल संविधान को संशोधित करने की प्रक्रिया निर्धारित करता है. कोर्ट ने कहा कि संसद नागरिकों के मौलिक अधिकारों को कम नहीं कर सकती है. यह भी स्पष्ट किया कि सभी संशोधन न्यायिक समीक्षा के अधीन होते हैं. इस फैसले से यह साबित होता है कि संविधान के लचीलेपन के बावजूद मौलिक अधिकारों की रक्षा करना अहम है.

केसवानंद भारती बनाम केरल राज्य मामला (1973): इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला सुनाया कि संसद के पास संविधान को संशोधित करने की शक्ति है, लेकिन फिर भी वह इसके मौलिक ढांचे को बदल नहीं सकती. यह केस संविधान के लचीलेपन का उदाहरण है जो संशोधन की अनुमति देता है, लेकिन यह सुनिश्चित भी करता है कि मौलिक सिद्धांत बरकरार रहें.

इन दोनों मामलों से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय संविधान में लचीलापन है, जो आवश्यकतानुसार संशोधनों की अनुमति देता है. लेकिन साथ ही संविधान के मूल सिद्धांत भी सुरक्षित रखता है. इस तरह भारतीय संविधान में नम्र और कठोरता का एक संतुलन है.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *