पश्चिम एशिया तबसे तनाव और युद्ध की आशंका से घिरा है, जबसे पिछले साल सात अक्टूबर को फलस्तीन के गाजा इलाके में सक्रिय आतंकी संगठन हमास ने इजरायल में घुसकर भीषण हमला किया था। इस हमले में हमास के आतंकियों ने 1200 से अधिक इजरायली नागरिकों को मार दिया था और 200 से अधिक लोगों को बंधक बनाकर गाजा ले आए थे। इजरायल के लिए यह बहुत अधिक आघातकारी था। इजरायल ने हमास को सबक सिखाने के लिए गाजा में हमलों की झड़ी लगा दी। इन हमलों में हमास के तमाम आतंकियों के साथ आम नागरिक भी मारे जा रहे हैं। एक आंकड़े के अनुसार अब तक 40 हजार से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। गाजा में इजरायल के हमलों के दौरान ही लेबनान के ईरान समर्थित संगठन हिजबुल्ला ने भी इजरायली ठिकानों पर हमले करने शुरू कर दिए। इसके चलते इजरायल ने हिजबुल्ला को भी निशाने पर ले लिया। इससे चिढ़कर ही ईरान ने इजरायल को अपना निशाना बनाया। ऐसा करके उसने इजरायल को खुद पर हमले का मौका दे दिया है।

इजरायल के जवाबी हमले की आशंका से ग्रस्त ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खामेनेई भले ही इस्लामी जगत को एकजुट होने की नसीहत दे रहे हों और मुसलमानों को इजरायल के खिलाफ भड़का रहे हों, लेकिन यह साफ है कि कतर को छोड़कर अन्य इस्लामी देश और विशेष रूप से अरब जगत के सुन्नी देश इस संघर्ष से दूर रहना चाहते हैं। इजरायल और इस्लामी देशों के बीच अविश्वास और तनाव का रिश्ता नया नहीं है। इजरायल और इस्लामी देशों में तभी ठन गई थी, जब संयुक्त राष्ट्र की पहल पर 1948 में फलस्तीन कहे जाने वाले क्षेत्र में एक नए राष्ट्र के रूप में दुनिया भर में बिखरे यहूदियों के लिए इजरायल की स्थापना की गई। इजरायल से तमाम संघर्ष के बाद अधिकांश अरब देश इस नतीजे पर पहुंच चुके हैं कि वे उसका मुकाबला नहीं कर सकते, लेकिन ईरान और कतर जैसे देश अभी भी हमास और हिजबुल्ला के जरिये इजरायल को निशाना बनाने की नीति पर चल रहे हैं।

इजरायल और इस्लामी देशों के बीच तनाव और युद्ध के लंबे इतिहास के बीच इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि अमेरिका और अन्य पश्चिमी देश हर हाल में इजरायल का साथ देना पसंद करते हैं। इन देशों ने पिछले एक साल में इजरायल और हमास के बीच संघर्ष विराम के लिए तमाम प्रयत्न किए, लेकिन वे नाकाम रहे, क्योंकि हमास बंधकों को रिहा करने के लिए तैयार नहीं हुआ। इजरायल की ओर से ईंट का जवाब पत्थर से देने की कठोर नीति अपनाने के बावजूद अमेरिका और उसके सहयोगी देश उस पर लगाम इसलिए नहीं लगाना चाहते, क्योंकि वह अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रहा है और ऐसा देश अपने शत्रुओं के प्रति नरम रवैया नहीं अपना सकता। इजरायल के आक्रामक रुख को देखते हुए विश्व के अनेक देशों की यह अपेक्षा उचित ही है कि वह संयम का परिचय दे, फलस्तीन को अलग देश के रूप में स्वीकारे और हमास एवं हिजबुल्ला जैसे संगठनों को हथियारों के बल पर खत्म करने का इरादा छोड़े, लेकिन यह तभी संभव हो सकता है, जब ईरान जैसे देश भी इस मुगालते से बाहर आएं कि वे इजरायल का अस्तित्व मिटाने में सफल हो जाएंगे। ईरान इजरायल के लिए खतरा बने हमास और हिजबुल्ला का ही साथ नहीं देता, बल्कि सऊदी अरब की नाक में दम किए यमन के हाउती लड़ाकों की भी सहायता करता है। यही काम कतर भी करता है। हालांकि पश्चिमी देशों का ईरान पर कोई जोर नहीं, लेकिन वे कतर पर तो दबाव बना ही सकते हैं। वे इसमें भी सफल नहीं हो पा रहे हैं।

ईरान के रवैये को देखते हुए अमेरिका ने पश्चिम एशिया में अपनी सैन्य उपस्थिति बढ़ा दी है। यदि इसके जवाब में रूस या चीन ईरान की मदद के लिए आगे आ जाते हैं तो पश्चिम एशिया विश्व की बड़ी शक्तियों का अखाड़ा बन जाएगा। चूंकि रूस और चीन विश्व के किसी भी क्षेत्र में अमेरिका का वर्चस्व कायम होता नहीं देखना चाहते, इसलिए ये दोनों देश हर उस देश के साथ खड़े हो जाते हैं, जो अमेरिका के खिलाफ होता है। पश्चिम एशिया में शांति के आसार इसलिए नहीं दिखते, क्योंकि संयुक्त राष्ट्र दोनों पक्षों के बीच कोई समझौता करा पाने में नाकाम है। इस पर हैरानी नहीं कि संयुक्त राष्ट्र और उसकी सुरक्षा परिषद की प्रासंगिकता पर गंभीर प्रश्नचिह्न लग गए हैं। सुरक्षा परिषद की नाकामी को देखते हुए भारत को पश्चिम एशिया में शांति-समझौते के लिए सक्रिय होना चाहिए। एक तो भारत के संबंध इजरायल और ईरान, दोनों से है और दूसरे, दुनिया में भारत शांति और अहिंसा के गांधीवादी विचारों के लिए जाना जाता है। ये विचार पश्चिम एशिया में शांति ला सकते हैं। इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकते कि अनेक देश यह मान रहे हैं कि भारत अपने बढ़ते कद के चलते पश्चिम एशिया में शांति की प्रभावी पहल कर सकता है। यह भारत के बढ़ते प्रभाव का ही प्रमाण है कि अनेक प्रमुख देश उसे सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाने की जरूरत जता रहे हैं।