देश और समाज !

देश और समाज: राष्ट्र जनता का सामूहिक स्वप्न होता है… इसे अपने अंतर्मन में बार-बार दोहराना जरूरी
‘नए भारत’ के स्वप्न को पाने के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा जातिगत एवं धार्मिक विभाजन के चलते समय-समय पर कुछ स्वार्थ परक शक्तियों द्वारा पैदा किए गए टकराव के रूप में सामने आती है। ऐसे में, राजनीतिक शक्तियों को भी समझना होगा कि हर विविधता को विभाजन पैदा करने वाले स्रोत में न बदला जाए।

Country and Society Nation is collective dream of citizens repeated reminder of this is vital
प्रतीकात्मक तस्वीर …

कोई भी राष्ट्र वहां की जनता का सामूहिक स्वप्न होता है और जनता उस राष्ट्र का सामूहिक भविष्य। कोई भी राष्ट्र सपनों से ही गढ़ा जाता है। वे सपने वहां के दूरदर्शी नेताओं, बौद्धिकों के होते हैं, जो आमजन की आंखों से देख रहे होते हैं।

आज भारत राष्ट्र स्वामी विवेकानंद, रवींद्रनाथ टैगोर, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, राम मनोहर लोहिया, सरदार वल्लभ भाई पटेल, बाबा साहेब आंबेडकर, आचार्य नरेंद्र देव, दीनदयाल उपाध्याय, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी एवं आज के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा देखे गए सपनों से उभर रहा राष्ट्र है। इसमें बासुदेव शरण अग्रवाल, क्षितिमोहन सेन, हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे बौद्धिकों के भी सपने शामिल हैं। इसमें अगर ध्यान से देखें, तो भिखारी ठाकुर जैसे लोक-बौद्धिक का सपना भी शामिल है, जिसमें उन्होंने गरीबी मुक्त देश की कामना की थी।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 23 वर्ष पूर्व गुजरात के मुख्यमंत्री बनते वक्त जिस राष्ट्र का सपना देखा और 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद जिस सपने को उन्होंने आकार दिया, उस सपने से आज एक प्रकार का भारतीय राष्ट्र आकार ले रहा है। यह विकसित, स्वाभिमानी, ज्ञानी, गरीबी एवं असमानता से मुक्त भारत का स्वप्न है। यह स्वप्न नरेंद्र मोदी द्वारा तय किए गए तात्कालिक एवं दीर्घकालिक लक्ष्यों को पूरा करते हुए आगे बढ़ रहा है। वर्ष 2047 तक विकसित भारत का लक्ष्य, 50 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था का लक्ष्य, डिजिटल पावर, नई शिक्षा नीति द्वारा नई शैक्षिक संस्कृति गढ़ने तथा सामाजिक कल्याण की नीतियों द्वारा जाति एवं गरीबी मुक्त भारत गढ़ने के स्वप्न इसमें अन्य सपनों के साथ शामिल हैं।

नरेंद्र मोदी एवं विकास के अन्य स्वप्न द्रष्टाओं में मुझे यह फर्क दिखता है कि वह ‘एचीवर स्वप्न द्रष्टा’ हैं। वह सपने देखते भी हैं और अपने सपनों के सच होने की पूरी प्रक्रिया को मॉनिटर भी करते रहते हैं। किंतु इस ‘नए भारत’ के स्वप्न को पाने के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा है-भारत के कुछ मूलभूत अस्मितापरक विभाजन! ये बाधाएं जातिगत एवं धार्मिक विभाजन के चलते समय-समय पर कुछ स्वार्थ परक शक्तियों द्वारा पैदा किए गए टकराव के रूप में सामने आती रहती हैं। अभी हाल ही में डासना के शिवशक्ति मंदिर के महंत यति नरसिंहानंद का बयान एवं उससे उत्प्रेरित घटना, प्रदर्शन एवं तनाव आगे बढ़ रहे इस नए भारत की छवि, विचार एवं स्वप्न को तोड़ते हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश तथा देश के अन्य भाग ऐसे टकरावों के शिकार हो रहे हैं।  

सोशल मीडिया, जिसका उपयोग नए भारत के निर्माण के लिए ऊर्जा जागरण एवं प्रेरक क्षणों की गोलबंदी के लिए होना चाहिए था, उसका दुुरुपयोग आज सांप्रदायिक तनाव पैदा करने के लिए किया जा रहा है। उत्तर प्रदेश में अक्सर एक ऐसे सांप्रदायिक तनाव की स्थिति पैदा की जा रही है, जिसका प्रभाव देश के अन्य भागों पर भी पड़ रहा है।

ऐसी ही एक अस्मिता जाति की है, जिसका उपयोग कई राजनीतिक शक्तियां धड़ल्ले से सत्ता में वापसी के लिए करती हैं, किंतु वे यह नहीं समझतीं कि इससे एक ऐसा भस्मासुर आकार लेता है, जो हर क्षण हरेक को जलाता रहता है। यह भस्मासुर अपने को वरदान देने वाले को ही भस्म करना चाहता है।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ठीक ही कहा है कि विवाद में शामिल दोनों ही पक्ष दोषी हैं। उन्होंने दोनों ही पक्षों को अपने को सुधारने की सलाह दी है। हर धर्म, पंथ, नायक, देवता, अस्मिता का सम्मान होना ही चाहिए।

विकास की इस यात्रा में इन विभिन्नताओं का ऐसा समाहन होना चाहिए, ताकि नए भारत के रास्ते में ये बाधाएं उपस्थित न हों। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने आज दो सबसे बड़ी चुनौतियां हैं, उनमें से एक ऐसी ही विभाजनकारी चुनौती है, जिसे वह बार-बार शांत करने की कोशिश कर रहे हैं। वह ऐसा विकास-आकांक्षी जनमानस गढ़ना चाहते हैं, जिसमें ऐसी विभाजनकारी टकराहटें खत्म हो जाएं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा देखा गया विकसित भारत का स्वप्न वस्तुतः सिर्फ उनका नहीं, संपूर्ण भारत का स्वप्न होना चाहिए। यहां के हर व्यक्ति, धर्म, जाति, पंथ-सबका यह स्वप्न होना चाहिए। हालांकि इस स्वप्न के पूरा होने के रास्ते में कई चुनौतियां तो हैं ही।

विकास हमें कई बार जोड़ता है, तो कई बार ईर्ष्यापरक टूटन भी पैदा करता है। प्रधानमंत्री मोदी ऐसे में समाहार को एक प्रक्रिया एवं लक्ष्य, दोनों के रूप में विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं। एक तरफ कुछ राजनीतिक शक्तियां जातीय अस्मिताओं को उभार रही हैं, दूसरी तरफ प्रधानमंत्री समाज को गरीब, किसान, नारी, युवा, चार वर्गों में वर्गीकृत कर हजारों प्रकार के जातीय विभाजनों का समाहार करना चाह रहे हैं। वह लोगों में विकास की आकांक्षा पैदा करना चाह रहे हैं। विकास के लिए ‘जागृत आकांक्षा’ एक ऐसी प्रेरणात्मक प्रक्रिया है, जो शायद हमें ऐसे विभाजनों से मुक्त कर सके।

ऐसे ‘संघर्षशील विभाजन’ एवं ‘विविधता’ में अंतर होता है। ‘विविधता’ हमें समृद्ध करती है, किंतु विभाजन हमें कमजोर करता है। बस जरूरत यह होती है कि हम विविधताओं का ऐसा समन्वय करें कि वे आगे बढ़ने की प्रक्रिया में विचलित होकर कहीं विभाजन में न बदल जाएं। यह राजनीतिक शक्तियों को भी समझना होगा कि हर विविधता को विभाजन पैदा करने वाले स्रोत में न बदला जाए। चुनावी राजनीति में जीत-हार होती रहती है, किंतु उसमें राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को चोटिल नहीं होने देना चाहिए। यह राष्ट्र किसी व्यक्ति का नहीं, वरन भारतीय जनता का सामूहिक स्वप्न है, इसे हमें अपने अंतर्मन में बार-बार दोहराना होगा।

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