कई सालों तक लोअर मिडिल इनकम वाले ही रहेंगे हम
कई सालों तक लोअर मिडिल इनकम वाले ही रहेंगे हम
अर्थशास्त्रियों को चिंता है कि भारत की अर्थव्यवस्था ‘मिडिल इनकम ट्रैप’ में न फंस जाए। इसका मतलब यह है कि भारत की कुल राष्ट्रीय आमदनी (जीएनआई) की वृद्धि प्रति व्यक्ति 1,136 से 13,845 डॉलर के बीच रुक जाने का खतरा है।
विश्व-बैंक के आंकड़ों के मुताबिक भारत इस समय ‘लोअर-मिडिल इनकम’ (1,136 से 4,465 डॉलर) वाले देश की श्रेणी में आता है। उसका जीएनआई 12-13 हजार डॉलर के नजदीक जब पहुंचेगा तो वह अवधि 2033 से 2036 के बीच की होगी। यानी 9 से 12 साल बाद भारत बाकायदा ‘मिडिल इनकम’ वाला देश कहलाने के काबिल हो सकेगा।
सवाल है कि क्या अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं द्वारा दिए जाने वाले प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आमदनी के आंकड़े हमारे एक नागरिक की आय का सच्चा अनुमान देते हैं? इस प्रश्न का उत्तर एक चुटकुले से दिया जा सकता है।
भारत के एक स्टेडियम में फुटबाल का मैच चल रहा था। उसमें तीस हजार लोग बैठे थे। आंकड़ों के मुताबिक उनकी औसत आमदनी निम्न से जरा-सी ऊपर लेकिन मंझोली के लक्ष्य से दूर थी। तभी संयोग से दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति इलोन मस्क भी मैच देखने स्टेडियम में आ गए।
उनकी सम्पत्तियों का अनुमान 302 अरब डॉलर लगाया जाता है। इस लिहाज से उनके स्टेडियम में आते ही वहां बैठे हर व्यक्ति की आमदनी औसतन दस-दस लाख डॉलर पर पहुंच गई। यह है आमदनी और औसत का खेल।
भारतीय अर्थव्यवस्था प्रति व्यक्ति आमदनी के लिहाज से बुरी हालत में है। इसका जो सूचकांक है, उसके हिसाब से उसका स्थान 136वां है। डी.डी. कोसम्बी रिसर्च फांउडेशन के प्रो. अरुण कुमार ने भारत में आर्थिक विषमता का समग्र आकलन किया है।
इसके मुताबिक अगर 2022-2023 में एक अरब चालीस करोड़ भारतवासियों की आमदनी का पिरामिड बनाएं तो शीर्ष एक फीसदी लोग 53 लाख रुपए प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष कमाते हैं। उनके हिस्से में देश की सकल आमदनी का 22.6 प्रतिशत आता है। इसके बाद आने वाले स्तर में दस फीसदी लोग ऐसे हैं, जो 13.5 लाख रुपए कमाते हैं।
इन दस फीसदी लोगों के हिस्से में भारत की कुल आमदनी का 57.7 फीसदी आ जाता है। ये आंकड़े स्पष्ट करते हैं कि हमारे देश में केवल 11 फीसदी लोग ऐसे हैं, जिनके हाथ में हमारी जीएनआई का 90.3 प्रतिशत है। बाकी 89 प्रतिशत के हाथ में क्या है?
इस पिरामिड के मध्य में आने वाले 40 फीसदी लोगों की आमदनी प्रति व्यक्ति 1.65 लाख प्रति वर्ष है। बचे हुए 49 फीसदी लोग इस पिरामिड में सबसे नीचे हैं। वे केवल 71,163 रुपए प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष कमा रहे हैं। क्या इन आंकड़ों से पता नहीं चलता कि देश में 80 फीसदी लोगों को मुफ्त अनाज की जरूरत क्यों है और हजार-दो हजार रुपए जिनके खातों में सीधे आ जाते हैं, उन्हें लाभार्थी मान लिया जाता है। पार्टियां और सरकारें मानती हैं कि यह छोटा-सा टुकड़ा फेंकने से वे उनके वोटर बन जाएंगे।
इन हालात को समझने का एक दूसरा तरीका भी है। 2018 में दिल्ली का सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण हुआ था। ध्यान रहे कि दिल्ली की प्रति व्यक्ति आमदनी राष्ट्रीय औसत की तीन गुना है। इस सर्वेक्षण ने बताया कि दिल्ली के 90 फीसदी परिवार 25,000 रुपए प्रति माह से कम खर्च करते हैं।
50,000 रुपए से कम खर्च करने वालों का प्रतिशत 98 पहुंच जाता है। दिल्ली के इस आंकड़े को अगर सारे देश के हिसाब से घटाकर प्रतिशत निकाला जाए तो औसतन भारत के 98 फीसदी परिवार 16,667 रुपए प्रति माह खर्च करने की हैसियत रखते हैं। 90 फीसदी ऐसे हैं, जिनका हर महीने का खर्च केवल 8,334 रुपए है।
एक परिवार में औसतन 4.4 सदस्य के हिसाब से एक व्यक्ति 1,894 रुपए प्रति माह और 63.14 रुपए प्रति दिन खर्च करने की क्षमता रखता है। विश्व-बैंक ने अंतरराष्ट्रीय गरीबी की रेखा 1.9 डॉलर या 133 रुपए प्रति व्यक्ति निर्धारित की है। देश की 90 फीसदी आबादी गरीब की श्रेणी में ही आती है।
देश में केवल 11 फीसदी लोग ऐसे हैं, जिनके हाथ में हमारी कुल राष्ट्रीय आमदनी का 90.3 फीसदी है। बाकी 89 फीसदी के हाथ में क्या है? क्या इससे पता नहीं चलता कि 80 फीसदी लोगों को मुफ्त अनाज की जरूरत क्यों है? (ये लेखक के अपने विचार हैं)