संभल में मस्जिद विवाद को कानूनी नजर से समझिए !
संभल में मस्जिद विवाद को कानूनी नजर से समझिए; सर्वे के आदेश पर क्यों उठ रहे हैं सवाल
संभल विवाद ज्ञानवापी मस्जिद, शाही इदगाह और कमल-मौला मस्जिद जैसे विवादों से मेल खाता है. इन सभी मामलों में यह दावा किया जा चुका है कि मस्जिदें पहले हिंदू मंदिरों के स्थान पर बनाई गई थीं
इस सर्वे का आदेश एक याचिका के आधार पर दिया गया था, जिसमें दावा किया गया था कि शाही जामा मस्जिद एक हिंदू मंदिर के ऊपर बनाई गई थी. याचिका में कहा गया कि यह मस्जिद 1526 में मुग़ल सम्राट बाबर ने एक हिंदू मंदिर को तोड़कर बनाई थी.
संभल का ये मस्जिद विवाद वाराणसी के ज्ञानवापी मस्जिद, मथुरा के शाही इदगाह और मध्य प्रदेश के धार जिले के कमल-मौला मस्जिद जैसे विवादों से मेल खाता है. इन सभी मामलों में यह दावा किया जा चुका है कि मस्जिदें पहले हिंदू मंदिरों के स्थान पर बनाई गई थीं और इस तरह इन विवादों का उद्देश्य उस स्थल के धार्मिक स्वरूप को बदलना है. जबकि 1991 के “पूजा स्थलअधिनियम” के तहत किसी भी धार्मिक स्थल के स्वरूप को बदलना निषेध है.
अब संभल जिले के शाही जामा मस्जिद की बात करें तो भले ही इस मामले में कोर्ट ने सर्वे का आदेश दिया है, लेकिन यह याचिका वैध है या नहीं इस पर पूरी तरह से फैसला नहीं हुआ है. इस बीच, विरोध प्रदर्शन और हिंसा की घटनाएं बढ़ गई हैं, जिससे स्थिति और जटिल हो गई है.
कोर्ट के आदेश में क्या था? क्यों हुआ विरोध?
19 नवंबर को, संभल जिला और सेशन कोर्ट के सिविल जज आदित्य सिंह ने एक याचिका पर आदेश दिया जिसमें वकील हरि शंकर जैन के साथ कुछ स्थानीय महंतों ने दावा किया था कि शाही जामा मस्जिद को 1526 में मुग़ल सम्राट बाबर ने हिंदू मंदिर को तोड़कर बनवाया था.
याचिका दायर होने के कुछ ही घंटों बाद, कोर्ट ने एक वकील को नियुक्त किया और मस्जिद के पहले सर्वे का आदेश दिया. यह सर्वे उसी दिन किया गया और 29 नवंबर तक रिपोर्ट देने का आदेश दिया गया.
24 नवंबर को सर्वे का दूसरा चरण हुआ, जिसके बाद संभल में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए और पुलिस को गोलीबारी करनी पड़ी. हालांकि मस्जिद की प्रबंध समिति से सर्वे के लिए परामर्श लिया जा चुका था, लेकिन कोर्ट का आदेश बिना दोनों पक्षों की सुनवाई के दिया गया था, यानी यह “एकतरफा” था, जिससे वहां के लोग नाराज थे.
केंद्रीय संरक्षित स्मारत में शामिल है शाही जामा मस्जिद
संभल की जामा मस्जिद एक “संरक्षित स्मारक” है, जिसे 22 दिसंबर, 1920 को प्राचीन स्मारकों संरक्षण अधिनियम, 1904 के तहत घोषित किया गया था. यह भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की वेबसाइट पर केंद्रीय संरक्षित स्मारकों की सूची में भी है.
केंद्रीय संरक्षित स्मारक एक ऐसा स्मारक या स्थल होता है जिसे भारतीय सरकार द्वारा भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) के माध्यम से संरक्षित किया जाता है. यह संरक्षा “प्राचीन स्मारक संरक्षण अधिनियम, 1904” और उसके बाद के संशोधनों के तहत होती है. ऐसे स्मारकों को विशेष रूप से ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, और धार्मिक महत्व का माना जाता है और इन्हें न केवल रखरखाव के लिए, बल्कि जनसमूह के लिए अध्ययन, अनुसंधान और पर्यटन के उद्देश्यों के लिए भी संरक्षित किया जाता है.
इस लिस्ट में शामिल हुए स्मारकों की खास बात ये है कि केंद्रीय संरक्षित स्मारकों पर किसी प्रकार के निर्माण या बदलाव की अनुमति नहीं होती. बिना सरकारी अनुमति के इन स्थलों पर खुदाई या किसी प्रकार का काम नहीं किया जा सकता.
याचिकाकर्ताओं के दावे के बारे में क्या कहता है कानून?
यह याचिकाकर्ताओं द्वारा दायर किया गया एक “सिविल मुकदमा” है, जिसमें कोर्ट से संपत्ति के अधिकार का निर्धारण करने की मांग की जा रही है. किसी भी एक सिविल मुकदमे में अगर याचिकाकर्ताओं ने कोई याचिका दायर की है को उसके दावे को प्रारंभिक रूप से स्वीकार किया जाता है और सबूत तब मांगा जाता है जब याचिका स्वीकार कर ली जाती है.
लेकिन धार्मिक स्थलों से संबंधित मामलों में, 1991 के “स्थल पूजा अधिनियम” के तहत ऐसे मुकदमे पर रोक लगाई गई है. हालांकि, ज्ञानवापी और मथुरा मामलों में जिला अदालतों ने हिंदू याचिकाकर्ताओं द्वारा दायर किए गए सिविल मुकदमों को “मान्य” माना है, यानी कोर्ट ने इन मुकदमों को यह कहते हुए स्वीकार किया है कि ये मुकदमे 1991 के अधिनियम के तहत अवैध नहीं हैं.
पूजा स्थल अधिनियम, 1991″ क्या कहता है?
पूजा स्थल अधिनियम, 1991 यह सुनिश्चित करता है कि 15 अगस्त 1947 को किसी धार्मिक स्थल का जो रूप था, उसे वही बनाए रखा जाए.
इस अधिनियम का उद्देश्य किसी भी धार्मिक स्थल का स्वरूप बदलने से रोकना है, चाहे वह स्थल किसी भी धर्म का हो. अधिनियम की धारा 3 के अनुसार, किसी भी पूजा स्थल को उसके धर्म से संबंधित स्वरूप को पूरी तरह से या आंशिक रूप से बदलना मना है, चाहे वह मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर, गुरुद्वारा या अन्य कोई धार्मिक स्थल हो. इसमें स्पष्ट रूप से यह कहा गया कि 15 अगस्त 1947 के बाद कोई भी धार्मिक स्थल बदलने की कोशिश नहीं की जा सकती.
बाबरी मस्जिद विवाद अपवाद
हालांकि बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद 1991 को पूजा स्थल अधिनियम से बाहर रखा गया था, क्योंकि यह विवाद 1991 से पहले, यानी 1986 में ही अदालत में चला गया था.
1986 में, एक जिला अदालत ने राम जन्मभूमि के पक्ष में आदेश दिया था, जिससे विवाद और जटिल हो गया था. यह मामला अदालत में विचाराधीन था जब पूजा स्थल अधिनियम 1991 संसद में पास हुआ. पूजा स्थल अधिनियम, 1991 के बारे में भारत सरकार का कहना था कि यह कानून उन विवादों पर लागू नहीं होगा जो पहले से अदालत में विचाराधीन हैं, ताकि किसी विशिष्ट मामले को प्रभावित न किया जाए. बाबरी मस्जिद विवाद उस समय अदालत में था, और इसलिए इसे इस कानून से बाहर रखा गया.
संभल मामले में क्या हुआ?
संभल मामले में घटनाएं बहुत तेजी से घटीं. जिला अदालत ने सिविल मुकदमे की “स्वीकृतता” पर अभी तक कोई आदेश नहीं दिया है, और सर्वे का आदेश पहले ही दे दिया गया. इस आदेश पर एक्शन भी बहुत जल्द हुआ, जबकि पक्षों को उच्च न्यायालय में इस पर चुनौती देने का अवसर भी नहीं मिला. यह विवाद उस वक्त और गंभीर हो गया जब सर्वे के दौरान हिंसा फैल गई, और इसने संबल में तनाव और अशांति पैदा कर दी है.
फिलहाल इस इलाके में संभल में हुई हिंसा के बाद इलाक़े में हाई अलर्ट जारी है. इलाके में सुरक्षा व्यवस्था काफी कड़ी कर दी गई है और बड़ी संख्या में सुरक्षाबलों को तैनात किया गया है.
संभल के जिलाधिकारी राजेंद्र पेंसिया का दावा है कि, इलाक़े में हालात अब पूरी तरह सामान्य है और अब वहां कोई समस्या नहीं है. हमारे अधिकारी रात से ही वहाँ निगरानी कर रहे हैं और पूरी टीम इलाक़े में मौजूद है.