असल में वक्फ कानून वक्फ बोर्डों को असीम अधिकार प्रदान करता है कि वे बिना औपचारिक प्रक्रिया के ही किसी भी जमीन या संपत्ति पर अपना दावा कर सकें। लोकतांत्रिक समाज में ऐसे स्वेच्छाचारी कानून की कोई जगह नहीं हो सकती और उसे निश्चित ही निरस्त कर देना चाहिए। वक्फ अधिनियम धार्मिक या धर्मादा उद्देश्यों के लिए अपरिवर्तनीय रूप से समर्पित संपत्तियों को नियंत्रित करता है। यह कानून संपत्तियों को हमेशा के लिए वक्फ बोर्डों के नियंत्रण में करने का प्रविधान करता है। वक्फ बोर्ड उचित कानूनी प्रक्रिया के बिना ही सरकारी या निजी किसी भी प्रकार की संपत्ति को अपना बताने लगते हैं। उन्होंने अपना समानांतर न्यायिक ढांचा तक बना लिया है, जहां अर्जी लगाने से लेकर पैरवी और फैसला सुनाने वाले सभी उनके लोग होते हैं। वक्फ के बेलगाम दावों के चलते देश भर में मुकदमों का अंबार लगा हुआ है। सूरत में तो नगर निगम के मुख्यालय को ही वक्फ की संपत्ति घोषित कर दिया गया। व्यक्ति, परिवार, कारोबारी समूह से लेकर खुद सरकारी एजेंसियां इस कानून की तपिश झेल रही हैं, जिसे मजहबी तुष्टीकरण की आड़ में निरंकुश स्वतंत्रता प्रदान की हुई है।

वक्फ के पास संपत्तियों का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि देश में रक्षा मंत्रालय और भारतीय रेलवे के बाद सबसे अधिक संपत्ति उसके पास ही है। इन संपत्तियों के वक्फ असेट्स मैनेजमेंट सिस्टम आफ इंडिया यानी वामसी के जरिये डिजिटकलीकरण के प्रयास में कई विसंगतियां सामने आई हैं। करीब 4.3 लाख वक्फ संपत्तियों के पास आवश्यक दस्तावेज नहीं हैं। करीब 58,000 संपत्तियां अतिक्रमण के रूप में हैं और हजारों संपत्तियां कानूनी विवादों में फंसी हैं। इस मोर्चे पर स्पष्टता का अभाव लंबी चलने वाली मुकदमेबाजी और विलंबित फैसलों का कारण बनता है, जबकि संपत्ति के वास्तविक स्वामी कानूनी लड़ाई में फंसकर असहाय महसूस करते हैं। इन पहलुओं को इतर भी रखें तो सामुदायिक कल्याण के लक्ष्य की पूर्ति में भी वक्फ कानून असफल सिद्ध हुआ है। भारतीय मुस्लिमों की सामाजिक-आर्थिक दशा सुधारने के उद्देश्य से जुड़ी संपत्तियां कुप्रबंधन की शिकार हैं और उनका अपेक्षित उपयोग भी नहीं हो पा रहा है।

सच्चर समिति के अनुसार वर्ष 2005 में वक्फ संपत्तियों से महज 163 करोड़ रुपये की प्राप्ति हो पाई थी, जो केवल 2.7 प्रतिशत प्रतिफल थी। जबकि सक्षम प्रबंधन के जरिये वार्षिक आधार पर 12,000 करोड़ रुपये से अधिक प्राप्त किए जा सकते थे, लेकिन भ्रष्टाचार, राजनीतिक हस्तक्षेप और रणनीतिक नियोजन के अभाव में ये परिसंपत्तियां उलटे बोझ बन गईं। वक्फ संपत्तियों की अक्सर बाजार भाव से कम मूल्य पर बोर्ड के करीबियों में बंदरबांट कर दी जाती है और उनसे प्राप्त राजस्व का भी कुप्रबंधन देखने को मिलता है, जिससे जरूरतमंदों तक उनका लाभ नहीं पहुंच पाता। सशक्तीकरण का माध्यम बनने के बजाय वक्फ संपत्तियां अक्षमता, शोषण एवं उत्पीड़न का प्रतीक बनकर रह गई हैं। संपत्ति का अधिकार लोकतंत्र का एक आधारभूत स्तंभ है और वक्फ अधिनियम इस पर कुठाराघात करता है। किसी भी मजहबी या धर्मादा उद्देश्य के लिए ऐसे वैयक्तिक अधिकार की घोर उपेक्षा जायज नहीं ठहराई जा सकती। यह कानून केवल न्याय और जवाबदेही के सिद्धांतों का ही अवमूल्यन नहीं करता, अपितु कानूनी ढांचे के प्रति भरोसे को भी घटाता है। इसमें संशोधन कोई समाधान नहीं, क्योंकि समस्या इसकी बुनियाद में निहित है।

डिजिटलीकरण और जीआइएस मैपिंग जैसी पहल से पारदर्शिता बढ़ाने के प्रयास किए गए, लेकिन ये केवल लक्षणों का उपचार कर सकते हैं, किंतु बीमारी की जड़ तक नहीं पहुंच सकते। समाधान के लिए स्थापित न्यायाधिकरण अक्षम और आवश्यक न्यायिक स्वतंत्रता से वंचित है। परिणामस्वरूप अपीलों और देरी का अंतहीन सिलसिला चलता है। ऐसे में, इस कानून को समाप्त करना ही एकमात्र उपाय है। इससे संपत्ति के अधिकार की बहाली होगी। नागरिक और संस्थान सुनिश्चित होंगे कि वे अपनी संपत्ति पर मनमाने दावों के शिकार नहीं होंगे। इसके साथ ही वक्फ संपत्तियों में भ्रष्टाचार और कुशासन की बीमारी पर अंकुश लगेगा। सार्वजनिक-निजी भागीदारी से इन संपत्तियों की संभावनाओं को पूरी तरह भुनाया जाना संभव हो सकेगा, जिसका लाभ जरूरतमंदों को मिलेगा। इससे सामाजिक-आर्थिक विकास का लक्ष्य भी साधा जा सकेगा।

मनमाने वक्फ कानून की समाप्ति से एक समानांतर कानूनी ढांचे पर विराम लगेगा और जमीनों से जुड़े सभी विवाद एक सार्वभौमिक संपत्ति कानून के दायरे में आएंगे। वक्फ अधिनियम वास्तव में पुरातन काल का अवशेष है, जो आधुनिक गवर्नेंस और लोकतंत्र के सिद्धांतों से कतई मेल नहीं खाता। यह न केवल संपत्ति के अधिकारों का घोर उल्लंघन करता है, बल्कि उस समुदाय के हितों को ही पोषित नहीं कर रहा, जिसके हितों के लिए वह काम करने का दावा करता है। इसीलिए, वक्फ अधिनियम को समाप्त करना केवल कानूनी रूप से ही आवश्यक नहीं, बल्कि नैतिकता, न्याय, पारदर्शिता और संसाधनों के प्रभावी उपयोग के दृष्टिकोण से भी अपरिहार्य हो चला है।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)