अजमेर शरीफ में किस आधार पर किया गया शिव मंदिर का दावा?

जमेर शरीफ में किस आधार पर किया गया शिव मंदिर का दावा? 6 प्वाइंट में समझिए पूरा विवाद

अजमेर शरीफ दरगाह को लेकर उठे विवाद ने पूरे देश में हलचल मचा दी. अजमेर की ऐतिहासिकता पर आधारित किताब में हर बिलास सारदा ने अजमेर दरगाह के तहखाने और उससे जुड़ी एक परंपरा के बारे में लिखा है.

अजमेर शरीफ दरगाह में शिव मंदिर होने के दावे ने एक बड़ा विवाद खड़ा कर दिया है. एक हिंदू संगठन का दावा है कि इस जगह पर पहले एक शिव मंदिर था, जिस पर बाद में दरगाह बनाई गई. यह मामला न केवल धार्मिक बल्कि राजनीतिक और सामाजिक रूप से भी संवेदनशील होता जा रहा है. 

नेशनल हिंदू आर्मी के अध्यक्ष विष्णु गुप्ता ने अजमेर की एक अदालत में याचिका दायर की थी, जिसमें दावा किया गया था कि अजमेर के ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती दरगाह के अंदर एक भगवान शिव का मंदिर है. इस याचिका पर अदालत ने 27 नवंबर को दरगाह कमेटी, अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) को नोटिस जारी कर उनका जवाब मांगा. यह केस सिविल जज मनमोहन चंदेल के कोर्ट में सुना गया था. अब अगली सुनवाई 20 दिसंबर को होगी.

कानूनी याचिका में विष्णु गुप्ता ने दावा किया है कि 13वीं शताब्दी के सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती का मकबरा मूल रूप से एक शिव मंदिर था. गुप्ता और अजमेर पर लिखी गई किताबों के अनुसार क्या सबूत हैं, इस पर चर्चा की जानी चाहिए. 

क्या है अजमेर की दरगाह का इतिहास
अजमेर की दरगाह भारत के धार्मिक परिदृश्य में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है. 12वीं शताब्दी के अंत में जब भारत में मुस्लिम आक्रमणकारियों का प्रभाव बढ़ रहा था, तब एक सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती अजमेर पहुंचे. उन्होंने इस शहर को अपना आध्यात्मिक केंद्र बनाया और अपने उपदेशों से लोगों के दिलों को जीत लिया. ख्वाजा साहब के आगमन का समय बेहद महत्वपूर्ण था. मुहम्मद गोरी ने तराइन के द्वितीय युद्ध में पृथ्वीराज चौहान को हराकर भारत में मुस्लिम शासन की नींव रख दी थी. इस उथल-पुथल के बीच ख्वाजा साहब ने लोगों को शांति और सद्भाव का संदेश दिया.

ख्वाजा साहब के उपदेशों ने जल्द ही लोगों को अपनी ओर आकर्षित करना शुरू कर दिया. उनके पास आने वालों में राजा, रईस, किसान और गरीब सभी शामिल थे. 1236 में चिश्ती की मृत्यु के बाद मुगल बादशाह हुमायूं ने उनकी कब्र पर एक भव्य मकबरा बनवाया. यह मकबरा बाद में अजमेर शरीफ दरगाह के नाम से जाना गया. धीरे-धीरे यह मजार एक प्रमुख तीर्थस्थल बन गई.

अजमेर शरीफ दरगाह केवल एक धार्मिक स्थल ही नहीं, बल्कि भारत की सांस्कृतिक विरासत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा भी है. मुगल बादशाहों से लेकर आम लोगों तक, सभी ने इस दरगाह का दर्शन किया.मुहम्मद बिन तुगलक, शेरशाह सूरी, अकबर, जहांगीर, शाहजहां, दारा शिकोह और औरंगजेब जैसे शक्तिशाली शासकों ने भी यहां आकर प्रार्थना की. ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के आगमन के साथ भारत में सूफीवाद का एक नया अध्याय शुरू हुआ. 

फिर किस आधार पर किया गया शिव मंदिर होने का दावा?
याचिकाकर्ता विष्णु गुप्ता की मांग है कि अजमेर दरगाह को ‘संकट मोचन महादेव मंदिर’ घोषित किया जाए और अगर दरगाह का किसी तरह का रजिस्ट्रेशन है, तो उसे रद्द कर दिया जाना चाहिए. अपने दावे का समर्थन करने के लिए विष्णु गुप्ता और उनके वकील योगेश सिरोजा ने अजमेर के एक पूर्व न्यायाधीश और राजनेता हर बिलास सरदा की किताब का हवाला दिया है. 

हिंदू आर्मी की ओर से अदालत में ‘अजमेर: हिस्टोरिकल एंड डिस्क्रिप्टिव’ नामक किताब की एक कॉपी पेश की गई. यह किताब 1911 में पूर्व न्यायिक अधिकारी और शिक्षाविद हर बिलास सरदा ने लिखी थी. 1911 में स्कॉटिश मिशन इंडस्ट्रीज कंपनी ने पब्लिश की थी. किताब में दावा किया गया है कि दरगाह का निर्माण करते समय उस स्थान पर पहले से मौजूद शिव मंदिर के अवशेषों का इस्तेमाल किया गया था.

हिंदू सेना के दूसरे वकील राम स्वरूप बिश्नोई ने अदालत को बताया कि मंदिर पर कब्जा होने से पहले वहां नियमित रूप से धार्मिक अनुष्ठान और पूजा-अर्चना होती थीं. उनका कहना है कि मंदिर को गिराने के बाद ही दरगाह का निर्माण किया गया. 

वहीं हिंदू सेना के तीसरे वकील विजय शर्मा ने दरगाह परिसर का ASI द्वारा सर्वे कराने की मांग की. उनका दावा है कि दरगाह के गुंबद में ‘मंदिर के टुकड़े’ हैं और ‘तहखाने में एक गर्भगृह होने के सबूत हैं.’

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अजमेर दरगाह के रहस्यमय तहखाने में क्या है?
अजमेर की ऐतिहासिकता पर आधारित अपनी किताब में हर बिलास सारदा ने अजमेर दरगाह के तहखाने और उससे जुड़ी एक परंपरा के बारे में लिखा है. उन्होंने लिखा है कि ख्वाजा साहब के अवशेष इस तहखाने में दबे हुए हैं और उस जगह पर एक रूबी जैसा पत्थर लगा है. 

अजमेर ऐतिहासिक और वर्णनात्मक में सारदा ने लिखा है, ख्वाजा साहब के अवशेष एक भूमिगत तहखाने में हैं, जो इस मकबरे से कई फीट नीचे हैं और कुछ ईंटों से ढका हुआ है. मकबरा सफेद संगमरमर का है, जिसमें रंगीन पत्थरों के टुकड़े जड़े गए हैं. ऐसा कहा जाता है कि दिल के स्थान के पास आठ-आना चांदी के टुकड़े के आकार का एक रूबी जैसा पत्थर लगा हुआ है. 

“परंपरा कहती है कि इस तहखाने में महादेव की मूर्ति एक मंदिर में रखी हुई है, जिस पर एक ब्राह्मण परिवार हर दिन चंदन लगाता था और यह परंपरा अब भी दरगाह द्वारा घरयाली (घंटी बजाने वाला) के रूप में निभाई जाती है.” हालांकि, सारदा ने इस मंदिर के ‘नष्ट होने’ के बारे में कोई और जानकारी नहीं दी है.

वहीं, अजमेर दरगाह के सज्जादा नशीन सैयद जैनुल आबिदीन अली खान ने कहा कि कोई भी व्यक्ति प्रचार और निजी स्वार्थ के लिए याचिका दायर कर सकता है. सैयद ज़ैनुल आबिदीन ने एएनआई से कहा, “कोई भी अदालत जा सकता है, और अदालत याचिका स्वीकार कर लेगी. इसके बाद उचित सबूत और प्रमाण प्रस्तुत किए जाएंगे. तब जाकर अंतिम फैसला सुनाया जाएगा. अभी इसमें लंबा समय लगेगा.”

देश भर में मस्जिदों पर दावे किए जाने के बारे में अजमेर दरगाह प्रमुख ने कहा, “2022 में (आरएसएस प्रमुख) मोहन भागवत ने क्या कहा था?’ आप हर मस्जिद में शिवलिंग कितने समय तक ढूंढते रहेंगे’? वहीं संभल में किया गया. परिणाम यह हुआ कि पांच निर्दोष लोगों की जान चली गई. मरने वालों में से दो अकेले कमाने वाले थे. यह उनके परिवारों के लिए कितना बड़ा झटका है? उन्हें (अधिकारियों को) इसका कोई पछतावा नहीं है.”

क्या किसी दूसरे इतिहासकार ने भी शिव मंदिर होने का किया है दावा?
अजमेर शरीफ दरगाह के नीचे शिव मंदिर होने के दावे का जिक्र एक ब्रिटिश इतिहासकार की किताब में भी मिलता है. ब्रिटिश इतिहासकार पीएम क्यूरी की 1989 की किताब ‘द श्राइन एंड कल्ट ऑफ मु’इन अल-दीन चिश्ती ऑफ अजमेर’ में एक दिलचस्प दावा किया गया है. क्यूरी ने आरएच इरविन की 1841 की किताब ‘सम अकाउंट ऑफ द जनरल एंड मेडिकल टोपोग्राफी ऑफ अजमेर’ का हवाला देते हुए बताया है कि ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के समय में उस जगह पर एक प्राचीन महादेव मंदिर था.

उन्होंने लिखा है, इस मंदिर में एक शिवलिंग था जो पत्तियों और कचरे से ढका हुआ था. ख्वाजा साहब 40 दिन तक इस स्थान पर ध्यान करने के लिए जाते थे. हर दिन वह जल से भरे अपने छोटे मटके को उस पेड़ की शाखा पर लटकाया करते थे, जो शिवलिंग के ऊपर झूलता रहता था. उस मटके से पानी लगातार शिवलिंग पर गिरता रहता था. इस कारण हिंदू और मुस्लिम दोनों ही ख्वाजा साहब का सम्मान करते हैं.

ब्रिटिश इतिहासकार पीएम क्यूरी ने एक और दिलचस्प दावा किया है. उन्होंने आरएच इरविन की 1841 की किताब का हवाला देते हुए बताया कि शिवलिंग ख्वाजा साहब की कब्र के नीचे स्थित था.  हालांकि, अदालत में दायर याचिका में इस दस्तावेज का हवाला नहीं दिया गया है.

क्या भारतीय कानून मस्जिद की जगह मंदिर बनाने की देता है इजाजत? 
1991 में राम जन्मभूमि आंदोलन के दौरान बढ़ते सांप्रदायिक तनाव के बीच भारत सरकार ने पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम पारित किया था. इस कानून का मुख्य मकसद था कि 15 अगस्त 1947 के बाद धार्मिक स्थलों की जो स्थिति थी, उसे वैसी ही रखा जाए. दूसरा उद्देश्य था किसी भी पूजा स्थल को परिवर्तित करने पर रोक लगाना. हालांकि, इस कानून में एक विशेष छूट दी गई थी. अयोध्या रामजन्मभूमि विवाद को इसमें शामिल नहीं किया गया था. 

इतिहास में हुई घटनाओं के कारण कई जगहों पर धार्मिक स्थलों को लेकर विवाद होते रहे हैं. इस अधिनियम के जरिए सरकार ये चाहती थी कि ऐसी घटनाओं से सांप्रदायिक तनाव न बढ़े. यह कानून भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 25 (धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार) के अनुरूप है.
 
पूजा स्थल अधिनियम की संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुए कई याचिकाएं दायर की गई हैं, जिससे और अधिक विवाद पैदा हो गया है. हालांकि, 2019 में अयोध्या फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने अधिनियम के इरादे को बरकरार रखा. सुप्रीम कोर्ट ने अपने 2019 के अयोध्या फैसले में कहा कि यह अधिनियम राज्य की धर्मनिरपेक्षता और सभी धर्मों के बीच समानता की प्रतिबद्धता को पुष्टि करता है.

Explainer: अजमेर शरीफ में किस आधार पर किया गया शिव मंदिर का दावा? 6 प्वाइंट में समझिए पूरा विवाद

हाल के समय में कई धार्मिक स्थलों को लेकर विवाद बढ़ गए हैं. हिंदू समूहों का दावा है कि मथुरा में शाही ईदगाह मस्जिद भगवान कृष्ण के जन्मस्थान पर बनाई गई थी. वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर भी विवाद है. दावा किया जाता है कि यह मस्जिद काशी विश्वनाथ मंदिर के ऊपर बनाई गई थी. यहां तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने मस्जिद के सर्वेक्षण की अनुमति दी और बाद में स्थानीय अदालत के मस्जिद के तहखाने में पूजा की अनुमति देने के आदेश पर रोक लगाने से इनकार कर दिया.

क्या सुप्रीम कोर्ट ने दरवाजा खोल दिया?
सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ को इस समय काफी आलोचना का सामना करना पड़ रहा है. उन पर आरोप लग रहा है कि उन्होंने पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम को चुनौती देने का रास्ता खोल दिया है. 

अक्टूबर 2023 में ज्ञानवापी मस्जिद के मामले की सुनवाई के दौरान जब यह दलील दी गई कि यह मामला 1991 के अधिनियम से प्रतिबंधित है, तो चंद्रचूड़ ने कहा, “कानून कहता है कि आप किसी पूजा स्थल की प्रकृति को नहीं बदल सकते. वे उस स्थान को बदलने की मांग नहीं कर रहे हैं.”

इस बयान के बाद से कई लोग मानने लगे हैं कि इस कानून के प्रावधानों को चुनौती दी जा सकती है. इसका ताजा उदाहरण उत्तर प्रदेश के संभल में देखने को मिला है, जहां ऐतिहासिक शाही जामा मस्जिद को लेकर विवाद खड़ा हो गया है. एक याचिका दायर की गई है जिसमें दावा किया गया है कि यह मस्जिद पहले एक हिंदू मंदिर थी, जिसका नाम हरिहर मंदिर था.

यह याचिका सुप्रीम कोर्ट के वकील विष्णु शंकर जैन ने दायर की है, जो वाराणसी के ज्ञानवापी मस्जिद मामले में भी वकील हैं. उसी दिन सिविल जज (वरिष्ठ प्रभाग) आदित्य सिंह की अदालत ने इस याचिका को स्वीकार कर लिया और जामा शाही मस्जिद के सर्वेक्षण का आदेश दे दिया.

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