भाषा को लेकर बंद हो सिर-फुटव्वल, पक्ष और विपक्ष दोनों समझें देश की विविधता को !
भाषा को लेकर बंद हो सिर-फुटव्वल, पक्ष और विपक्ष दोनों समझें देश की विविधता को
मेरी भाषा, तेरी भाषा, ऐसी भाषा, कैसी भाषा
भाषा मानवीय अभिव्यक्ति का माध्यम है. मुझे बहुत हैरत होती है, जब हमारे यहां भी किसी भाषा को लेकर, बहुत वर्चस्व देने के लिए इस प्रकार की बातें होती हैं तो हृदय दुखता है. एक शायर और पत्रकार के तौर पर मेरा यह मानना है कि आपको जितनी ज्यादा भाषाएं आती है, उतना ही अच्छा है. आपके अंदर एक और नई अत्मा का संचार हो जाता है. मुझे यहां बारहा अपनी बात कहनी पड़ रही है और यह कोई शराफत नहीं मानी जाती, लेकिन नजदीकी उदाहरण देने के लिए कुछ हद तक ये बातें तो करनी ही होंगी. इन पंक्तियों का लेखक लगभग सारी उत्तर भारत की बोलियां बोल लेता है, गुरुमुखी पढ़, लिख लेता है, हिंदी इस प्रकार से नहीं पढ़ी जिस प्रकार से हिंदी भाषा पढ़ते हैं. मेरी मादरी जबान तो उर्दू है. मैंने उर्दू माध्यम से पढ़ाई की है. मैं कश्मीरी भाषा भी जानता हूं, समझ लेता हूं. मुझे बंगाली भाषा भी समझ आ जाती है. इतना कहने का मतलब कोई रोब झाड़ना नहीं है, बल्कि ये बताना है कि मैंने भाषा को किसी संकीर्ण नज़र से नहीं देखा, ये नहीं सोचा कि फलानी अपनी भाषा है, तो ढिकानी कोई गैर भाषा है. मुझे पता है कि आपको जितनी अधिक भाषाएं आएंगी उतना आपका संपर्क अधिक लोगों से हो पाएगा और आप लोगों से अपनी बात कहने में सक्षम होंगे. भाषा को लेकर जिस प्रकार की राजनीति की जाती है, उसने भाषा को बहुत नुकसान पहुंचाया है. साथ ही, यह भी कि अगर इन पंक्तियों का लेखक ऐसा कर सकता है, तो कोई भी वैसा कर सकता है, कई भाषाएं सीख सकता है, बोल सकता है.
भाषा मानवीय अभिव्यक्ति का माध्यम
गुलजार सहब का एक बार जब खाकसार इंटरव्यू कर रहा था तब उन्होंने बताया कि राखीजी के साथ जब उनका प्रेम चल रहा था तो उन्होंने उनसे बातचीत करने के लिए बंगाली भाषा सीखी थी. ताकि राखी से उस प्रकार से बात कर सकें, जिस प्रकार से वो उन्हें बोलें, उन्हें समझ सकें, उनके दिल की बात समझ और बोल सकें. निर्मला सीतारामण ने हिंदी और तमिल भाषा को लेकर जो कहा है, इस पर हैरत नहीं होती है. कुछ तो दरका हुआ है वहां. 20-25 साल पहले जब मैं चैन्नई गया था, तो किसी फिल्म के शूट के दौरान जब एयारपोर्ट से जा रहे थे तो टैक्सी-ड्राइवर ने कहा था ‘हिंदी इल्ले’ यानी हिंदी नहीं आती. हम आपस में कोई बात कर रहे थे तो कोई एक कमेंट हमारे दोस्त ने वहां के लीडर के बारे में किया. ड्राइवर ने बीच में ही कमेंट करते हुए कहा–‘Mind Your Language’. तो, ड्राइवर को हिंदी आती थी, लेकिन वो बोलना नहीं चाहता था. रास्ते में जब हम पता भी पूछते थे, तो जब हम हिंदी बोलते थे तो वो लोग अच्छे तरीके से नहीं देखते थे.
हालांकि, इसमें आम आदमी को जिम्मेदार नहीं मानना चाहिए. जो राजनेता हैं, जिस प्रकार से भाषाओं की राजनीति करते हैं, वही ऐसे व्यवहार को प्रेरित करते हैं. वह भाषा का भला नहीं कर रहे है. वो सिर्फ वोट बैंक साध रहे होते हैं. भाषा को लेकर कुछ तरह की बातें कर रहे होते हैं, जिससे उनका एक पक्ष मजबूती के साथ बस वोटर बना रहे. अब जैसे देखिए कि नरेन्द्र मोदी हिंदी को बढ़ावा दे रहे हैं. हमारे यहां तो हिंदी दिवस मनाया जाता है. हिंदी विभाग को लेकर केन्द्र में सब कुछ है. हालांकि, मैं मानता हूं कि केवल उससे भाषा नहीं बढ़ती. भाषा एक दूसरे के संवाद से या आपस में इस प्रकार से बात-चीत करने से बढ़ती है.
राजनीति से भाषा का नुकसान
हम लोग राजनेताओं के चंगुल में फंस जाते हैं, तो इस तरह कि बातें होने लगती हैं. किसी ने बताया कश्मीर में जब अग्रेज़ी जुबान को बढ़ावा देने कि बात हुई या हिंदी कि बात हुई, उसमें मस्जिदें भी इस्तेमाल हो जाती हैं, इस पर कहा गया कि आप जो यह गलत भाषा को बढ़ावा दे रहे है. हिंदी भाषा आने से आपको कश्मीर से बहर नौकरी मिलती है, रोजगार मिल सकता है. कश्मीरियों को हिंदी भाषा को सिखने और बोलने का क्या मतलब है. ऐसे ही एक सवाल पर बहुत अच्छा जवाब दिया गया,’आप किसी भी राज्य में जाएंगे, तो वहां उस राज्य की भाषा जानने वालों को प्रथमिकता दी जाती हैं, तो सबसे पहले हम उस राज्य की भाषा सिखते हैं.’ इस प्रकार से हम जिस राज्य में रहते है उस राज्य की भाषा सीखें. जो राष्ट्र की भाषा है जिसमें संवाद हो रहा है. कोई भी भाषा सीखें. एक बच्चे को हम जानते हैं जो भारतीय है और वो हिंदी-अंग्रेजी जानता है, स्पेनिश जानता है, जर्मन जानता है, कई भाषाओं को जानता है.
भाषा है फूल, एक चमन में कई तरह के
अभी मैं सऊदी अरब होकर आया हूं वह पर मैंने देखा, वहां जो मलयाली है, तेलुग है या श्रीलंकन है, कहीं से कोई बांग्ला देश से आया हुआ है, कोई कहीं से लेकिन वो सब बड़ी अच्छी अरबी भाषा बोलते हैं. वो यह भाषा क्यों बोल रहे है क्योंकि उन्हें संवाद चाहिए, वो भाषा उनके काम आ रही हैं. भाषा रोजगार से जुड़ गई है. भाषा से नफ़रत हमारे लिए हानिकारक है. आपको एक शेर किसी शायर का पढ़कर बताता हूं, ‘जब से उर्दू से मुहब्ब्त हो गई है, मेरी हिंदी खूबसूरत हो गई है.’
राजनीति भाषा को लेकर की जाएगी, चाहे किसी भी पक्ष से तो गलत ही होगी. ये तो राजनीति के खेल हैं, आप देखिए महाराष्ट्र में किसी भी प्रकार से आंदोलन चलता है तो सब बोर्ड मराठी में लिखवाने लग जाते हैं. हिंदी से बदलकर मराठी में आ जाता है. उसी तरह कभी कर्नाटक तो कभी तमिलनाडु में होता है. इसके पीछे कारण केवल राजनीति है. हालांकि, दक्षिण का ही एक राज्य तेलंगाना है. वहां पर लोगों को भाषा को लेकर इतनी सामस्या नहीं है. वहां का व्यक्ति हिंदी भी बोल लेता है, उर्दू भी बोल लेता है, अंग्रेज़ी भी उसकी समझ में आ जाती है क्योंकि वहां पर उन्हें उन भाषा में काम भी करना हैं.
मेरा यह मानना है कि भाषा को रोजगार से जोड़ दें तो भाषा अपने आप समाज में बढ़ जाती है. भारतीय भाषा में सामस्या यह है कि भाषा रोजगार से नहीं जुड़ी है, अंग्रेज़ी का इसलिए वर्चस्व हो रहा है क्योंकि इस भाषा को हमने सरकारी कामकाज से जोड़ दिया है. हमारे यहां अंग्रेज़ी का दिमाग ने तय किया हुआ है कि जो अंग्रेज़ी बोलता है वो बहुत अच्छा इंसान हैं, काबिल इंसान है. भाषा तो सरहदें पार करके आज कहां से कहां पहुंच चुकी है, लेकिन दक्षिण से उत्तर हमारे पास नहीं आ पा रही है. उत्तर से दक्षिण की ओर नहीं जा पा रही है. इसके बीच में से राजनेता निकल जाएं, लोग आपस में संवाद करेंगे तो लोग आपस में बहुत आसानी से भाषा को सीख पाएंगे.
राजनीति के बीच में हिंदी आ जाती है. हिंदी को बढ़ावा देंगे, लेकिन यह नहीं सोचेंगे कि जब तक हिंदी को उड़ने नहीं देंगे, वह जन-जन की भाषा नहीं बनती. किसी भाषा का जब सरकारीकरण हो जाता है, तो लोग उससे दूर होते चले जाते हैं. आजादी के 75 से अधिक साल हो चुके हैं. समय है कि अब इस तरह की बातों पर ब्रेक लगे, भाषा के नाम पर राजनीति बंद हो.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि …. न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.