चरम पर शत्रुता की राजनीति, भारतीय लोकतंत्र के लिए ये डरावना
यह स्वीकार करना पड़ेगा कि वर्तमान राजनीति सामान्य दलीय प्रतिस्पर्धा से निकलकर परस्पर कटुता से होते हुए शत्रु भाव में बदल गई है। मामला इतना था कि विपक्ष बीते कई दिन से संसद परिसर में मकर द्वार पर प्रदर्शन कर रहा था। 19 दिसंबर को भाजपा सांसदों ने विपक्षी सांसदों के पहले प्रदर्शन शुरू कर दिया। कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी सांसद नारा लगाते वहीं पहुंच गए।
….बीते दिनों संसद परिसर में सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच जो कुछ हुआ, वह भारतीय लोकतंत्र के लिए डरावना है। संसद संसदीय लोकतंत्र की शीर्ष इकाई है और उस परिसर में सांसदों के बीच सामान्य हिंसा हो सकती है और पक्ष-विपक्ष के सांसद एक-दूसरे के खिलाफ गंभीर धाराओं में रपट भी दर्ज करा सकते हैं, इस सीमा तक राजनीति के पतन की कल्पना नहीं की जाती। राहुल गांधी पर जानबूझकर गंभीर चोट पहुंचाने, दूसरों की सुरक्षा को खतरे में डालने, आपराधिक धमकी जैसी धाराओं में भाजपा सांसदों द्वारा थाने में मामला दर्ज कराया जा चुका है। विपक्ष ने भी सत्तापक्ष के सांसदो के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई है। पूरे घटनाक्रम को लेकर दोनों पक्षों के अपने-अपने रुख हैं, पर कुछ बातें प्रत्यक्ष दिख रहीं हैं। भाजपा के दो सांसदों प्रताप सारंगी और मुकेश राजपूत को जो चोटें आईं, वे दिख भी रहीं हैं। नगालैंड की महिला राज्यसभा सदस्य कह रहीं हैं कि राहुल गांधी जिस तरह मेरे पास आकर चीखने लगे, वह मेरे लिए असहज था। दोनों पक्षों का अपना मत है, पर कल्पना करिए कि कोई महिला किसी आम व्यक्ति पर ऐसे आरोप लगाती तो उसके साथ कानून कैसा व्यवहार करता?
यह स्वीकार करना पड़ेगा कि वर्तमान राजनीति सामान्य दलीय प्रतिस्पर्धा से निकलकर परस्पर कटुता से होते हुए शत्रु भाव में बदल गई है। मामला इतना था कि विपक्ष बीते कई दिन से संसद परिसर में मकर द्वार पर प्रदर्शन कर रहा था। 19 दिसंबर को भाजपा सांसदों ने विपक्षी सांसदों के पहले प्रदर्शन शुरू कर दिया। कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी सांसद नारा लगाते वहीं पहुंच गए। जितनी बात सामने आ रही है, उसके अनुसार राहुल गांधी उनके बीच से ही सदन में जाने लगे और उसमें ही वह सब घटित हो गया, जिसे लेकर आरोप-प्रत्यारोप का दौर जारी है। देश ने वह राजनीति भी देखी है, जब सत्तापक्ष और विपक्ष एक-दूसरे के विरुद्ध शब्दों की बौछार करते थे। बावजूद उनके बीच परस्पर सम्मान का भाव रहता था। संसद में वाद-विवाद के बाद सांसद एक-दूसरे से बात करते हुए बाहर निकलते थे और एक साथ भोजन भी करते थे। कभी सत्तापक्ष और विपक्ष में तनाव उत्पन्न होता था तो कुछ ऐसे नेता दोनों ओर थे, जो बीच- बचाव कर देते थे। पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर कई बार दोनों पक्षों की सार्वजनिक आलोचना करते हुए सांसदों को अपने व्यवहार को सुधारने की सीख देते और मामला शांत हो जाता था। आज एक भी नेता ऐसा नहीं है जो बीच-बचाव करा सके।
प्रताप सारंगी और मुकेश राजपूत जैसे ही गिरे, वैसे ही राहुल गांधी को उनके साथ सहानुभूति दिखानी चाहिए थी। तब शायद मामला आगे नहीं बढ़ता। उनके घायल होने की सूचना के तुरंत बाद यदि वह चिंता जता देते, फोन कर लेते तो भी स्थिति यहां तक नहीं पहुंचती। मल्लिकार्जुन खरगे के साथ भी यही व्यवहार होना चाहिए था। इसी तरह नगालैंड की महिला सांसद से क्षमा याचना की जानी चाहिए थी। किसकी गलती है या नहीं, यह विषय बाद में आता है। कोई हमारे सामने गिर गया तो उसे उठाने, उसका हाल-चाल लेने जैसी गरिमा अवश्य दिखानी चाहिए थी। यदि राहुल ऐसा करते, तब भाजपा सांसदों के सामने भी इस सीमा तक जाने का आधार नहीं बनता। मुझे याद है कि नरसिंह राव सरकार के दौरान तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष डा. मुरली मनोहर जोशी के नेतृत्व में विरोध प्रदर्शन हुआ था और पुलिस द्वारा पानी की बौछार एवं धक्का-मुक्की से उन्हें चोट आ गई थी। उनके एम्स में भर्ती होने के कुछ समय बाद ही अनेक केंद्रीय मंत्री उन्हें देखने पहुंचे थे। यह सांसदों का एक स्थापित व्यवहार है।
निःसंदेह यह भी सही है कि सदन में विपक्ष को अपनी बात तरीके से रखने का पूरा अवसर मिलना चाहिए। राज्यसभा में जैसी स्थिति पैदा हुई, वह नहीं होनी चाहिए। विपक्षी नेताओं और सभापति के बीच मामला एक-दूसरे के विरुद्ध हमले तक पहुंच गया। जब सभापति धनखड़ ने मल्लिकार्जुन खरगे से कहा कि आप मेरे कमरे में आइए तो उन्होंने कहा कि आप वहां बुलाकर अपमान करते हैं, मैं क्यों आऊं। विपक्ष की नाराजगी है तो उसे भी सुनकर दूर करने का पूरा प्रयास होना चाहिए। सत्तापक्ष के पास जवाब देने का हर अवसर उपलब्ध होता है। असंसदीय शब्दों को निकाला जा सकता है। वर्तमान राजनीति का संकट परस्पर संवाद और एक-दूसरे के सम्मान के अभाव का है। यदि झूठ और फरेब को राजनीति का मुख्य हथियार बनाया जाएगा तो इसकी परिणति विषैली राजनीति ही होगी।
क्या आज कोई मंत्री डा. आंबेडकर के अपमान का साहस दिखा सकता है? आज कोई पार्टी या नेता ऐसा नहीं कर सकता। गृह मंत्री अमित शाह के लंबे भाषण से कुछ सेकेंड की एक बाइट को संदर्भ से अलग कर उसे मुद्दा बनाना सस्ती राजनीति है। भाजपा से आप असहमत होइए, लेकिन यह स्वीकारना होगा कि यदि डा. आंबेडकर को किसी सरकार ने सर्वाधिक सम्मान दिया तो वह मोदी सरकार है। जिस भाषण पर अमित शाह से त्यागपत्र की मांग की जा रही है, उसी में उनका कहना था कि कांग्रेस का इतिहास उनका अपमान करने का है। फिर वह ऐसे तथ्य सामने लाते हैं, जो यह बताते हैं कि आंबेडकरजी की सचमुच उपेक्षा की गई। लगता है लोकसभा चुनाव में संविधान और आरक्षण खत्म हो जाएगा जैसे झूठे नैरेटिव की आंशिक सफलता से कांग्रेस और विपक्ष को लगा कि जनता को आगे भी भ्रमित किया जा सकता है।
यह भी तथ्य है कि विपक्ष द्वारा झूठ फैलाने के प्रत्युत्तर में भाजपा ने भी वे मुद्दे उठाए, जो उस रूप में नहीं थे। यदि एक पक्ष फरेब करता है तो दूसरे पक्ष से भी इसी तरह का प्रत्युत्तर मिलेगा। कटु राजनीति की आधारभूमि प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में सरकार गठन के साथ ही हो गई थी। देश में नेताओं, बुद्धिजीवियों, एक्टिविस्टों का एक ऐसा वर्ग है जो यह पचा नहीं पाया कि मोदी सत्ता शीर्ष पर पहुंच गए। आज संघ और भाजपा से वैचारिक मतभेद नफरत और जुगुप्सा की सीमा तक पहुंच गया है। राहुल गांधी द्वारा चौकीदार चोर है जैसा नारा देने से मामला और बिगड़ा। वर्तमान राजनीति में विवेकशील बातचीत की गुंजाइश खत्म है। देश के विवेकशील एवं प्रभावी लोगों को चाहिए कि वे राजनीति को सामान्य पटरी पर लाने के लिए संगठित होकर जो कर सकते हैं, करें, क्योंकि क्या जो हो रहा है, उसके आगे की कल्पना डराने वाली है?
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)