हमें ‘जीएसटी’ को सरल और व्यावहारिक बनाना होगा !

हमें ‘जीएसटी’ को सरल और व्यावहारिक बनाना होगा

पिछले दशक के सबसे कठिन सुधारों में से एक राष्ट्रीय जीएसटी था, जिसे 2017 में लागू किया गया। इसने विभिन्न केंद्रीय और राज्यों के अप्रत्यक्ष करों की जगह ले ली। संसद के दोनों सदनों के अलावा हर राज्य की विधानसभा को भी जीएसटी विधेयक पारित करना था। इसके कारण लाखों व्यवसायों की पूरी टैक्स प्रणाली को बदलना पड़ा।

ऑनलाइन सिस्टम बनाना पड़ा। केंद्र और राज्यों के बीच राजस्व का विभाजन तय करना पड़ा। विपक्ष की आलोचना सहनी पड़ी। जनता का विश्वास जीतना भी जरूरी था। भारत जैसे देश के लिए यह एक धीमा और कठिन सुधार था।

शायद यही कारण है कि इसे भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार की प्रमुख उपलब्धियों में से एक माना जाता है। जीएसटी का बुनियादी मकसद यह था कि कर-व्यवस्था एक समान, सरलीकृत और बेकार की झंझटों से मुक्त हो।

और इसके बावजूद पिछले हफ्ते इंटरनेट पर कैरेमलाइज्ड-पॉपकॉर्न पर जीएसटी को लेकर मीम्स की धूम मची हुई थी। पता चला कि सादे या नमकीन पॉपकॉर्न पर 5% जीएसटी लगता है, लेकिन कैरेमलाइज्ड पर 18% टैक्स लगता है।

कारण? क्योंकि चीनी वाले स्नैक्स पर 18% जीएसटी लगता है, जबकि नमकीन स्नैक्स पर 5% ही लगता है। चूंकि कैरेमलाइज्ड-पॉपकॉर्न मीठा होता है, इसलिए आपको ज्यादा टैक्स देना पड़ता है। खुद देश की वित्त मंत्री को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में इस बात को स्पष्ट करना पड़ा।

कुछ महीने पहले, दक्षिण भारत की एक रेस्तरां-चेन के मालिक ने बताया था कि कैसे बन पर कम टैक्स लगता है, क्रीम पर कम टैक्स लगता है, लेकिन अगर क्रीम को बन पर लगाया जाए, तो दोनों पर ज्यादा टैक्स लगता है।

इसका नतीजा यह रहा कि उनके ग्राहक क्रीम और बन अलग-अलग मांगने लगे। यह बात मजाक में कही गई थी, लेकिन यह एक सच्चाई को भी दर्शाती है। यह कि चीजों को सरल बनाने के मकसद से किया गया जीएसटी समय के साथ और जटिल होता जा रहा है।

इस समस्या का मूल कारण नीति-निर्माताओं की मानसिकता है। वे हर चीज को नियंत्रित करने की अपनी इच्छा को नहीं छोड़ सकते, टैक्स में भी अपनी नैतिकता थोप सकते हैं, अतिरिक्त कर-राजस्व की हर बूंद निचोड़ने के लिए ‘चतुर’ नीतियां बना सकते हैं और जीएसटी के पीछे के इस व्यापक उद्देश्य को देख नहीं पाते कि उसे चीजों को सरल बनाने के लिए लाया गया था। अनेक टैक्स स्लैब, उपकरों और नीति-निर्माताओं के हाथों में अनियंत्रित शक्तियों वाला जटिल जीएसटी, जीएसटी सुधार न होने के बराबर है।

जीएसटी की शुरुआत के समय इसमें चार स्लैब थे : 5%, 12%, 18% और 28%। कुछ वस्तुओं को जीएसटी से छूट दी गई थी, जिससे उन पर 0% स्लैब जुड़ गया। ईंधन जैसी कुछ वस्तुओं को जीएसटी से बाहर रखा गया, जिन पर कर की दरें और अधिक थीं। इससे अतिरिक्त स्लैब बन गया।

इस प्रकार, हमने छह अलग-अलग जीएसटी दरों के साथ शुरुआत की। समय के साथ, कुछ उत्पादों (जैसे लग्जरी कारों) पर कई तरह के उपकर जोड़े गए, जिसका अर्थ है कि इन छह स्लैबों में और भी हेरफेर करके नीति-निर्माता अपनी इच्छानुसार जीएसटी दर तय कर सकते हैं।

कई स्लैब के साथ शुरुआत करने के पीछे जटिल व्यवस्था में सुधार का विचार था। लेकिन जैसे-जैसे हम 2025 के करीब पहुंच रहे हैं, हमें जीएसटी को और सरल बनाना चाहिए। इसे दो स्लैब से अधिक नहीं करना चाहिए और उपकरों को समाप्त कर देना चाहिए। तभी जीएसटी के वास्तविक लाभ महसूस किए जा सकते हैं।

लेकिन अभी तो हम मीठे बनाम नमकीन और उनकी कर-दरों पर बहस में ही उलझे हैं। वैसे, नमकीन स्नैक्स भी पाचन के दौरान शरीर द्वारा शुगर के रूप में ही टूटता है। तो क्या जीएसटी को स्नैक्स को हजम करने के बाद वाली शुगर पर भी टैक्स लगाना चाहिए?

पॉपकॉर्न और क्रीम बन्स ही भारत में अजीबोगरीब कर-वाली वस्तुएं नहीं हैं। झाड़ू पर 0% जीएसटी है, वैक्यूम क्लीनर पर 28% है। 1,000 से कम कीमत वाले जूतों पर 5% कर लगाया जाता है, इससे महंगे जूतों पर 18%। एसी रेस्तरां पर नॉन-एसी से अधिक कर लगाया जाता है।

इनमें से कई नीतियां उदारीकरण से पहले की इस मानसिकता से उपजी हैं कि जो चीज अच्छी, मजेदार, आरामदायक हो, उस पर टैक्स लगा दो। और अगर कोई चीज उच्च गुणवत्ता वाली है या सम्पन्न लोगों द्वारा उपयोग की जाती है तो उस पर और टैक्स लगाया जाना चाहिए। जबकि जीएसटी पहले ही एक परसेंटेज-बेस्ट टैक्स है, जो सुनिश्चित करता है कि ऊंची कीमतों वाले आइटम्स अधिक कर-भुगतान करेंगे।

2025 का बजट जीएसटी-सुधारों का अवसर है। हमें टैक्स-स्लैब को सरल बनाना होगा और सुनिश्चित करना होगा कि 98% से अधिक आइटम एक या दो स्लैब में आते हों। लग्जरी वाली चीजें बुरी हैं, यह मानसिकता भी बदलनी होगी। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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