क्या बाबा साहेब अंबेडकर सच में समान नागरिक संहिता लाना चाहते थे?
क्या बाबा साहेब अंबेडकर सच में समान नागरिक संहिता लाना चाहते थे? इतिहास पर एक नजर
UCC भारत में अभी तक पूरी तरह से लागू नहीं हुआ है. भारत में समान नागरिक संहिता (UCC) एक ऐसा मुद्दा है जिस पर हमेशा से बहस होती रही है.
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डॉ भीमराव अंबेडकर जिन्हें हम बाबा साहेब के नाम से जानते हैं, वह भारतीय संविधान के शिल्पकार थे. लेकिन क्या आपको पता है कि आज जिस समान नागरिक संहिता (UCC) की चर्चा जोरों पर है, उसे लेकर बाबा साहेब के विचार क्या थे?
क्या बाबा साहेब सच में वे UCC को देश में लागू करना चाहते थे? या फिर यह सिर्फ एक राजनीतिक हथकंडा है, जिसका इस्तेमाल बाबा साहेब के नाम पर किया जा रहा है? आइए, इतिहास के पन्नों को पलटते हुए इस सवाल का जवाब तलाशने की कोशिश करते हैं.
संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसंबर 1946 को हुई थी और यह 24 जनवरी 1950 तक चली थी. आजादी के बाद 29 अगस्त 1947 को संविधान सभा ने डॉ बीआर अंबेडकर की अध्यक्षता में एक मसौदा समिति का गठन किया. संविधान सभा में संविधान के हर पहलू पर गहन चर्चा हुई. इन चर्चाओं का रिकॉर्ड संसद की बेवसाइट (sansad.in) पर उपलब्ध है.
क्या भारतीय संविधान समान नागरिक संहिता का जिक्र है?
भारत के संविधान में कुछ ऐसे नियम हैं जो सरकार को बताते हैं कि देश को कैसे चलाना है और लोगों के लिए क्या करना है. इनमें से एक नियम है अनुच्छेद 44, जिसमें लिखा है कि सरकार पूरे देश में सभी नागरिकों के लिए एक जैसा कानून बनाने की कोशिश करेगी, चाहे वो किसी भी धर्म के हों. इसे ‘समान नागरिक संहिता’ कहा जाता है.
मतलब ये है कि शादी, तलाक, गोद लेना और संपत्ति बांटने जैसे मामलों में सभी धर्मों के लोगों के लिए एक जैसे नियम होंगे. मगर, अभी ऐसा नहीं है. अलग-अलग धर्मों के लोगों के लिए अलग-अलग कानून हैं. जैसे हिंदुओं के लिए हिंदू मैरिज एक्ट है, मुसलमानों के लिए मुस्लिम पर्सनल लॉ है.
जब भारत का संविधान बन रहा था, तब डॉ भीमराव अंबेडकर ने 23 नवंबर 1948 को एक नियम का प्रस्ताव रखा. यह नियम सभी नागरिकों के लिए एक समान कानून बनाने के बारे में था. उन्होंने इसे ‘ड्राफ्ट आर्टिकल 35’ नाम दिया था. हालांकि कुछ मुस्लिम सदस्यों ने इस पर आपत्ति जताई, फिर भी उसी दिन इस नियम को स्वीकार कर लिया गया. इसके बाद में यही नियम संविधान में ‘अनुच्छेद 44’ के रूप में शामिल हो गया.
मुस्लिम सदस्यों का क्या कहना था?
जब समान नागरिक संहिता पर चर्चा हो रही थी, तब कुछ मुस्लिम सदस्यों ने इसमें कुछ बदलाव करने की मांग की. उनका कहना था कि इसमें साफ-साफ लिखा जाना चाहिए कि अगर कोई भी ग्रुप, समुदाय या लोग अपना पर्सनल लॉ नहीं छोड़ना चाहते, तो उन्हें मजबूर नहीं किया जाएगा. अगर किसी समुदाय के पर्सनल लॉ को किसी कानून से सुरक्षा मिली हुई है, तो उसे उस समुदाय की मंजूरी के बिना नहीं बदला जा सकता. इन बदलावों पर पूरे दिन चर्चा चली.
मोहम्मद इस्माइल ने विरोध करते हुए कहा था, ‘UCC लागू करके नए कानून लाने की जरूरत नहीं है. जो पर्सनल लॉ पहले से चले आ रहे हैं, उन्हें ही रहने दिया जाए. UCC का मकसद एक जैसा कानून लाकर सद्भाव बढ़ाना है, लेकिन यह जरूरी नहीं है कि सभी के लिए एक ही कानून हो. इससे लोगों में असंतोष फैल सकता है. अगर लोगों को अपना-अपना पर्सनल लॉ मानने की आजादी दी जाए, तो किसी को कोई शिकायत नहीं होगी और सब में सद्भाव बना रहेगा.’
वहीं, पॉकर साहब बहादुर ने कहा, “अंग्रेजों ने 150 साल तक भारत पर राज किया लेकिन उन्होंने भी किसी समुदाय के पर्सनल लॉ में दखल नहीं दिया. उन्होंने हर समुदाय को अपना पर्सनल लॉ मानने की आजादी दी थी. यही उनके शासन की सफलता का राज था. क्या हमें आजादी मिलने के बाद लोगों की धार्मिक आजादी और अपना पर्सनल लॉ मानने की आजादी छीन लेनी चाहिए? क्या हमें पूरे देश पर एक ही नागरिक कानून थोपना चाहिए? UCC लाने का असली मकसद क्या है? अगर इसका मतलब सिर्फ सिविल प्रक्रिया संहिता जैसे कानूनों में एकरूपता लाना है, तो किसी को कोई आपत्ति नहीं है. लेकिन अगर UCC का मतलब पर्सनल लॉ में दखल देना है, तो यह गलत है.”
वहीं केएम मुंशी ने समर्थन करते हुए कहा कि यह देश की एकता और धर्मनिरपेक्षता के लिए जरूरी है. उन्होंने यह भी बताया कि हिंदू समुदायों में भी UCC को लेकर कुछ चिंताएं हैं. अल्लादी कृष्णस्वामी अय्यर ने कहा कि समान नागरिक संहिता से सद्भाव बढ़ेगा. उन्होंने सवाल उठाया कि जब सभी के लिए एक जैसा क्रिमिनल कानून हो सकता है, तो UCC का विरोध क्यों?
डॉ भीमराव अंबेडकर ने क्या जवाब दिया
संविधान सभा में समान नागरिक संहिता पर चर्चा के दौरान डॉ भीमराव अंबेडकर ने भी अपने विचार रखे. अंबेडकर ने साफ कहा कि वह UCC से जुड़े अनुच्छेद में किसी भी तरह का संशोधन स्वीकार नहीं कर सकते. उन्होंने कहा कि वह इस समय UCC के गुण-दोष पर चर्चा नहीं करना चाहते.
डॉ अंबेडकर ने कहा कि हुसैन इमाम ने यह सवाल उठाया कि क्या इतने बड़े देश में एक जैसा कानून लागू करना संभव है? अंबेडकर ने इस पर हैरानी जताते हुए कहा कि हमारे देश में तो पहले से ही कई मामलों में एक जैसे कानून हैं, जैसे कि पूरे देश में एक जैसा दंड संहिता और आपराधिक प्रक्रिया संहिता लागू है. पूरे देश में संपत्ति के लेन-देन के लिए एक जैसा कानून है.इसके अलावा परक्राम्य लिखत अधिनियम (Negotiable Instruments Acts) जैसे कई और कानून भी हैं जो पूरे देश में एक जैसे लागू होते हैं.
डॉ अंबेडकर ने कहा कि सिर्फ शादी और उत्तराधिकार के मामले में ही अभी तक एक जैसा कानून नहीं बन पाया है. अनुच्छेद 35 (जो बाद में अनुच्छेद 44 बना) का मकसद इसमें भी एक जैसा कानून लाना है. उन्होंने कहा कि यह पूछना कि क्या हम ऐसा कर सकते हैं, गलत है क्योंकि हम पहले ही कई मामलों में ऐसा कर चुके हैं.
मुस्लिम भी मानते थे हिंदू कानून!
डॉ भीमराव अंबेडकर ने संविधान सभा में एक और चौंकाने वाली बात बताई. उन्होंने कहा कि सिर्फ उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत ही नहीं, बल्कि 1937 तक भारत के कई हिस्सों में मुसलमान भी उत्तराधिकार के मामले में हिंदू कानून का पालन करते थे. उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बॉम्बे जैसे प्रांतों में मुसलमान काफी हद तक हिंदू कानून का पालन करते थे. 1937 में सरकार को एक कानून पास करना पड़ा ताकि इन मुसलमानों पर भी शरीयत कानून लागू हो सके और पूरे देश में एक जैसा कानून चल सके. उत्तरी मालाबार में हिंदुओं और मुसलमानों दोनों पर मारुमक्कथायम कानून लागू होता था.
डॉ अंबेडकर ने कहा कि उत्तरी मालाबार में मुसलमान मातृसत्तात्मक कानून (Marumakkathyam Law) का पालन करते थे. इसलिए यह कहना गलत है कि मुस्लिम कानून हमेशा से एक जैसा रहा है. उन्होंने बताया कि अगर सभी नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता बनाई जाती है और उसमें हिंदू कानून के कुछ हिस्सों को शामिल किया जाता है, तो किसी भी मुसलमान को यह कहने का कोई अधिकार नहीं है कि इससे उनकी भावनाओं को ठेस पहुंची है, क्योंकि ये हिस्से सिर्फ इसलिए शामिल किए गए हैं क्योंकि वे सबसे उपयुक्त हैं, न कि इसलिए कि वे हिंदू कानून का हिस्सा हैं.
UCC: किसी पर जबरदस्ती नहीं!
डॉ भीमराव अंबेडकर ने संविधान सभा में मुस्लिम सदस्यों की चिंताओं को दूर करने की कोशिश की. उन्होंने बताया कि UCC को लेकर किसी पर कोई जबरदस्ती नहीं की जाएगी. कुछ सदस्य UCC को लेकर बेवजह डरे हुए हैं. अनुच्छेद 35 में सिर्फ इतना कहा गया है कि सरकार नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता बनाने की कोशिश करेगी. इसका मतलब यह नहीं है कि UCC बनने के बाद इसे सभी पर जबरदस्ती लागू कर दिया जाएगा.
डॉ अंबेडकर ने बताया कि संसद UCC को लागू करने का तरीका तय करेगी. हो सकता है कि शुरुआत में इसे सिर्फ उन्हीं लोगों पर लागू किया जाए जो खुद इसके लिए तैयार हों. यह कोई नया तरीका नहीं है. 1937 में शरीयत कानून को भी इसी तरह लागू किया गया था.
संविधान सभा में समान नागरिक संहिता (UCC) पर काफी बहस और चर्चा के बाद आखिरकार वोटिंग का समय आया. उपराष्ट्रपति ने पूछा- क्या किसी भी समूह, समुदाय या लोगों को अपना पर्सनल लॉ छोड़ने के लिए मजबूर नहीं किया जाएगा? यह प्रस्ताव खारिज हो गया.
फिर पूछा- क्या किसी भी समुदाय के पर्सनल लॉ को उस समुदाय की मंजूरी के बिना नहीं बदला जाएगा? यह प्रस्ताव भी खारिज हो गया. तीसरा प्रस्ताव रखा गया कि क्या संविधान के भाग IV (जिसमें नीति निर्देशक तत्व हैं) को हटा दिया जाए? यह प्रस्ताव भी खारिज हो गया.
आखिरी प्रस्ताव रखा गया कि क्या अनुच्छेद 35 (जो बाद में अनुच्छेद 44 बना) को संविधान में शामिल किया जाए. यह प्रस्ताव पास हो गया. इस तरह, सभी संशोधनों को खारिज करने के बाद UCC को संविधान में शामिल कर लिया गया.
जब अंबेडकर ने UCC पर उठाए सवाल!
जब संविधान को बने हुए सिर्फ एक साल ही हुआ था, तब कानून मंत्री डॉ भीमराव अंबेडकर को इस आरोप का सामना करना पड़ा था कि 1951 का हिंदू कोड बिल सांप्रदायिक है, क्योंकि यह सिर्फ हिंदुओं के लिए था, मुसलमानों, पारसियों, यहूदियों और ईसाइयों के लिए नहीं.
इस पर 6 फरवरी 1951 को संविधान निर्माता डॉ अंबेडकर ने संसद सदस्यों को जवाब दिया, जिन्होंने समान नागरिक संहिता (UCC) की मांग की थी. उन्होंने कहा, “अगर वे समान नागरिक संहिता चाहते हैं, तो क्या उन्हें लगता है कि इसे लाने में बहुत समय लगेगा?”
डॉ अंबेडकर ने समान नागरिक संहिता पर सिर्फ सवाल ही नहीं उठाए, बल्कि उन्होंने इस पर तीखा तंज भी कसा था. उन्होंने कहा था, “शायद वे इसलिए यूसीसी की मांग कर रहे हैं क्योंकि हिंदू कोड बिल को तैयार करने में 4-5 साल लग गए. उन्हें लगता होगा कि यूसीसी बनाने में दस साल लगेंगे. मैं उन्हें बताना चाहता हूं कि यूसीसी पहले से ही मौजूद है. अगर वे चाहें तो इसे दो दिन के अंदर संसद में पेश किया जा सकता है. अगर वे इसे स्वीकार करने को तैयार हैं तो हम इसे आधे घंटे में पास कर सकते हैं.”
भीमराव अंबेडकर ने कहा था कि भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम 1925 और विशेष विवाह अधिनियम 1872 में कुछ छोटे-मोटे बदलाव करके ‘कल ही UCC लागू किया जा सकता है.’ डॉ अंबेडकर ने समान नागरिक संहिता का समर्थन किया था, लेकिन उनके समय में भी यह मुद्दा विवादों से घिरा रहा. अक्टूबर 1951 में हिंदू कोड बिल पर चल रहे विवाद के कारण डॉ अंबेडकर ने कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया.
जब सुप्रीम कोर्ट ने UCC पर जाहिर की अपनी नाराजगी
समान नागरिक संहिता को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने साल 1995 में शाह बानो केस में नाराजगी जाहिर की थी. सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, “यह अफसोस की बात है कि हमारे संविधान का अनुच्छेद 44 सिर्फ कागजों में ही रह गया है. एक समान नागरिक संहिता विभिन्न कानूनों के प्रति विभाजित निष्ठाओं को दूर करके राष्ट्रीय एकीकरण में मदद करेगी, जिनमें परस्पर विरोधी विचारधाराएं हैं. कोई भी समुदाय इस मुद्दे पर पहल नहीं करेगा। यह राज्य का कर्तव्य है कि वह देश के नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता लागू करे.”
साल 1995 में सरला मुद्गल केस में सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम टिप्पणी की थी. अदालत ने कहा कि जब देश के 80% से ज्यादा नागरिकों के लिए पहले से ही एक जैसा पर्सनल लॉ लागू है, ऐसे में UCC लागू करने में और देरी क्यों की जा रही है? सभी नागरिकों के लिए एक जैसा कानून होना चाहिए.
लिली थॉमस केस (2000) में सुप्रीम कोर्ट ने देखा कि समान नागरिक संहिता के मामले में सरकार टालमटोल कर रही है. सरकार ने 1996 में दो बार हलफनामा देकर कहा कि वह UCC तभी बनाएगी जब अलग-अलग समुदाय खुद इसके लिए सरकार के पास आएंगे और पहल करेंगे. सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के इस रवैये पर नाराजगी जताई और UCC लागू करने की दिशा में ठोस कदम उठाने को कहा.
समान नागरिक संहिता: लागू करना इतना आसान क्यों नहीं?
भारत में अलग-अलग समुदायों के लिए शादी, तलाक, संपत्ति और उत्तराधिकार जैसे मामलों में अलग-अलग कानून हैं. इन सभी को एक ही कानून में लाना बहुत बड़ी चुनौती है. अलग-अलग धार्मिक समुदायों की अपनी परंपराएं और कानून हैं, जिनसे वे गहराई से जुड़े हैं. UCC लागू होने पर उन्हें डर है कि उनकी परंपराओं को नुकसान पहुंचेगा. कुछ लोगों का यह भी तर्क है कि UCC से उनके धार्मिक आजादी के अधिकार का उल्लंघन होगा, जो संविधान के अनुच्छेद 25 में दिया गया है. इस अनुच्छेद में हर व्यक्ति को अपने धर्म का पालन करने की आजादी है. UCC को अक्सर राजनीतिक नजरिए से देखा जाता है. राजनीतिक दल और नेता अपने फायदे के लिए इसका समर्थन या विरोध करते हैं, जिससे UCC लागू करने में देरी होती है.
इस कारण, UCC भारत में अभी तक पूरी तरह से लागू नहीं हुआ है. हालांकि, गोवा एकमात्र ऐसा राज्य है जहां पुर्तगाली औपनिवेशिक काल से ही समान नागरिक संहिता लागू है. इसके अलावा, उत्तराखंड में हाल ही में UCC लागू किया गया है, जिसमें एक से ज्यादा शादी करना मना है और सभी धर्मों के लिए शादी की उम्र 21 साल तय की गई है.
UCC को लेकर देश में काफी चर्चा है और इसके पक्ष और विपक्ष में कई तर्क दिए जा रहे हैं. कुछ लोग इसे देश की एकता और समानता के लिए जरूरी मानते हैं, तो कुछ लोगों को इससे धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता को खतरा दिखाई देता है.